रविवार, 15 सितंबर 2013

चिड़िया - कबूतर

बचपन में 
नन्हीं नन्हीं- सी बातें
चुन्नू -मुन्नू की 
करें टोकरी टेढ़ी
छड़ी- सहारे 
बाँधा लम्बी रस्सी से 
टोकरी नीचे
रखें रोटी का चूरा
थोड़ा- सा पानी 
मुट्ठी भर दाने भी 
किसी कोने में
चुपके से छुपते
शोर न करो 
साथियों से कहते
उड़ते पाखी 
ज्यों देखकर रोटी
दाना व पानी
बिन टोकरी देखे
ज्यों पास आते
अपनी समझ में
फुर्ती दिखाते
हम रस्सी खींचते
गिरी टोकरी 
फुर्र उड़ते पाखी 
चिड़िया फुर्र
कबूतर भी फुर्र
फुर्र ऱ र र 
पक्षी फु्र्र हो जाते
हाथ मलते 
यूँ हम रह जाते
मगर फिर 
बिन साहस हारे
रखते वहीं 
दोस्तों के सहारे 
फिर टोकरी
ऐसे कभी- न- कभी
कोई- न- कोई
कबूतर - चिड़िया
पकड़ी जाती
पंख-पंख को कर 
हरा गुलाबी
आज़ाद छोड़ देते 
खुले आकाश 
लगाकर अपनी 
नाम परची
ये है मेरी चिड़िया
वो तेरा कबूतर !


डॉ हरदीप कौर सन्धु 

6 टिप्‍पणियां:

ज्योति-कलश ने कहा…

मासूम यादों को समेटे बहुत सुन्दर चोका ....बहुत बधाई हरदीप जी !

Manju Gupta ने कहा…

मासूम बचपन के यथार्थ को बयाँ करता उत्कृष्ट चोका .

बधाई .

Krishna ने कहा…

बहुत सुन्दर सजीव चित्रण भोले प्यारे बचपन की मासूमियत का।
हरदीप जी आपने तो मुझे मेरा बचपन याद दिला दिया। चिड़िया को
छूने भर की ललक में हम भी तो यही किया करते थे।......हार्दिक बधाई!

Subhash Chandra Lakhera ने कहा…

बहुत सुन्दर व उत्कृष्ट चोका, हरदीप जी हार्दिक बधाई!

Rachana ने कहा…

uf yado ka sagar aaj fir aankhon ke samne se gujar gaya hardeep ji bahut sunder likha hai
rachana

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

बचपन की मासूमियत को समेटे बहुत सुन्दर चोका...हार्दिक बधाई...|