गुरुवार, 19 मई 2022

1036- भोर फिर आएगी!

1- भोर फिर आगी!

डॉ. सुरंगमा यादव 

 

साँझ की उदासी मन पर छा रही थी ।आँखें छलकने की तैयारी कर चुकी थीं, ।तभी सहसा अतीत के पन्ने फड़फड़ाने लगे। उस पृष्ठ के उजले अक्षरों ने आँसुओं के वेग पर बाँध, बाँध  दिया। उमड़े-घुमड़े बिन बरसे लौटे मेघों की तरह ,आँखों में छा घटाएँ विलीन हो गईं । कानों में वही मीठे शब्द गूँजने लगे-'रोना नहीं, रोने से प्रयास कमजोर होते हैं, परिस्थितियों का दुस्साहस बढ़ता है, चीजें हमेशा हमारे अनुरूप नहीं होतीं। सूझबूझ से बनानी पड़ती हैं ।'- यह कहते हुए उनके बूढ़े हाथ गालों पर ढुलके आँसुओं को सोख लेते। उन्होंने कोई डिग्री तो नहीं ली थी, न ही महिला सशक्तीकरण पर ज्ञान बटोरा था, पर उनके वे शब्द-'रोना महिलाओं की सबसे बड़ी कमजोरी है ।' दूर तक हिम्मत देने वाले थे। सहसा आँखों के सामने उनके अंतिम समय का दृश्य उभर आया। असाध्य बीमारी से ग्रसित, आँखों की कोरों में आँसू रोके वे मृत्यु शय्या पर थीं ।उनकी यह दशा देखकर मेरी आँखें आँसुओं को रोक ना सकीं । उन्होंने अपने शिथिल-से हाथों को किसी तरह मेरे आँसू पोंछने के लिए उठाना चाहा ,लेकिन वे बीच में ही कभी ना उठने के लिए गिर चुके थे; परन्तु उनकी खुली आँखें मानो कह रही थीं-रोना नहीं, चीजें हमेशा मन की नहीं होतीं ।

    आज फिर नानी के हाथों का स्पर्श  मुझे अपने गालों पर महसूस हुआ। मैं उठ खड़ी हुई, उदास शाम सिंदूरी लगने लगी,जैसे कह रही हो,  ‘भोर फिर आगी

 नानी की सीख

उजाले की पोटली

मन में बँधी।

 

2-कृष्णा वर्मा 

1-यूँ न बदलो

 

1  

यूँ न बदलो

ऐ मौसमी हवाओ!

तुम बदलो

तो बदल जाता है

ऋतु-अस्तित्व

हरियाली होती है

लहूलुहान

पत्तों का डालियों से

छूटता हाथ

व्याकुल- सी चिड़िया

ढूँढे ठिकाना

समेटने को पंख

मृत हो जाता  

भँवरों का संगीत 

थम जाते हैं

पत्तों के कहकहे

भूल जाते हैं

सुमन मुस्कुराना

स्थिर हो जाती

खुशियों की झालरें

टूटती तान

प्यार के नग़मों की

पसरे सन्नाटा

घेरती उदासियाँ

सुनो रोक लो

अपनी ये रफ़्तार

बच जाएगी

यूँ डगमगाने से

मुहब्बतों की आस्था।

-0-

2- फीका हुआ चंद्रमा

 

मौसम ने ली

कैसी ये अँगड़ाई

हुई मध्यम

सूर्य की प्रचंडता  

चटक गए

धूप के लिशकारे

कच्ची लस्सी- सा

फीका हुआ चंद्रमा

सिमट गया

सितारों का वजूद

चंचल हवा

सटी दीवार संग

कौन ले गया

ओस की तरुनाई

हरे पत्तों ने

ओढ़ा पीत वसन

क्यों बाँसुरी के

सुर हुए निष्प्राण

प्रेम की धुन

सोई चादर तान

सिकुड़ रहीं 

चंचल धाराएँ औ

रूठ गई क्यों

कुसुमों से सुगंध

रंगों ने लिया

क्यों फूलों से वैराग्य 

उदास भौरे

तितलियाँ बेहाल

दोपहरी में

होने लगी है शाम

ऋतु ढिठाई

तोड़ी क़ुदरत ने

ख़ुशियों से सगाई। 

 

-0-

4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

मर्मस्पर्शी हाइबन। बधाई सुदर्शन रत्नाकर

बेनामी ने कहा…

बहुत सुंदर चोका । बहुत बहुत बधाई कृष्णा वर्मा जी सुदर्शन रत्नाकर

भीकम सिंह ने कहा…

बहुत सुन्दर हाइबन, बेहतरीन चोका, डॉ सुरंगमा यादव जी और कृष्णा वर्मा जी को हार्दिक शुभकामनाएँ ।

Sonneteer Anima Das ने कहा…

अत्यंत सुंदर भावपूर्ण सृजन...बधाई 🌹🙏🙏🙏