शनिवार, 9 जुलाई 2022

1050- नदी

 भीकम सिंह

 

नदी- 1

 

नदियाँ सभी

जहाँ तक भी गईं

भँवर सारे

उसके साथ गए

फिर कौन है

जो नदियों की सारी

हँसी खा गया

बड़े सिन्धु के बीच

चर्चा ज्यों हुई

शहरी काफिलों पे

रुकी शक की सुई।

 

नदी- 2

 

नदी बूढ़ी है

हौसले को हारी-सी

मैदान खोले

जंग की तैयारी-सी

निर्बल तट

उदासियों की बालू

बेच -बेचके

पत्थर तराशे हैं

चला-चलाके

दिल पर आरी -सी

जागी है खुद्दारी-सी ।

 

नदी - 3

 

नावें थकीं -सी

घाटों पे बँधी हुई

तेरे दुःख से

दुःखी हुई हैं नदी !

तुझ पे जुल्म

बढ़ता देखकर

सभी ने जैसे

अन्याय के विरुद्ध

हड़ताल की

तेरा पाट लौटेगा

केवट ने बात की।

 

नदी- 4

 

साल वृक्षों से

लिपटकर रोई

पीड़ित नदी

दूभर हुआ मेरा

इस समय

जिन्दा बने रहना

किससे कहूँ

तुमसे क्या छिपाना

खोजे हैं मैंने

जमीन में सूराख़

आती सीता की याद ।

 

नदी  - 5

 

भटके हुए

मैदानों के हालात

देख नदी ने

जख़्मी हुए पंखों को*

जैसे फैलाया

रोता हुआ झरना

बुदबुदाया

ठेकेदार गुज़रे

जहाँ-जहाँ से

निर्जन है वहाँ पे

तू सँभल यहाँ से ।

 

* पर्वतीय ढाल से जब नदी मैदानों में प्रवेश करती है तो जलोढ़ पंख नाम की स्थलाकृति बनाती है, उससे पहले जल प्रपात (झरना) का निर्माण कर चुकी होती है

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3 टिप्‍पणियां:

प्रीति अग्रवाल ने कहा…

आदरणीय भीकम सिंह जी एक से बढ़कर एक सुंदर चोका रचे हैं आपने, बहुत बहुत बधाई, मन प्रसन्न हो गया पढ़कर!!

Gurjar Kapil Bainsla ने कहा…

वाह सर! उत्तम चोका पढ़ने को मिल रहे है। हार्दिक शुभकामनाएँ।

बेनामी ने कहा…

बहुत ही अद्भुत सृजन।
हार्दिक बधाई आदरणीय 🌷💐

सादर