बुधवार, 13 मार्च 2024

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 डॉ. कविता भट्ट शैलपुत्री   [ ब्रज अनुवाद-रश्मि विभा त्रिपाठी]

1
बाँचो तो मन
नैनों की खिड़की से
पूर्ण प्रेम के
हस्ताक्षर कर दो
प्रथम पृष्ठ पर।

हिय बाँचौ तौ
नैननि दरीची सौं
दस्खत करौ
आखे अनुराग के
अगवारी पन्ना पै।
2
रजनीगंधा
हो सुवासित तुम
अँधेरे में भी,
तुम्हारे अस्तित्व से
जीवन संचार है।

रजनीगंधा
हौ गमकत तुव
अँध्यारे मैं उ
तिहारे ह्वैवे तैं ऐ
जीबनु संचरतु।
3
रजत - कण
बिखेरे मेरा मन
मुसकानों के
प्रिय तेरे आँगन
यों बरसा जीवन।


रूपे के कन
आवापै मोरौ मन
मुलकिनि के
पिउ तो अँगनाई
जौं बरस्यौ जीबनु।
4
तुम विवश
हो मेरी मुस्कान- सी
पुण्यसलिला
नहीं छोड़ती धर्म
उदास हो बहती।

तैं परबस
मो मुसकनियाँ सी
पुन्यसलिला
ना छाँड़ै धरम, ह्वै
उचाढ़ी परबाँही।
5
लौटाने आया
जिसने ली उधार
धूप जाड़े में
कर रहा प्रचार
गर्मी की भरमार।

फेरिबे आयौ
जानैं लयौ करज
घाम जाड़े मैं
सिगकौं ई बताई
ग्रीषम अधिकाई।
6
खोले द्वार यूँ
बोझिल पलकों से,
नशे में चूर
कदमों के लिए भी,
मंदिर के जैसे ही।

उघ्टे द्वार जौं
भारी पलकन सौं
मद में चूर
पाँइनि के लएँ उ
मंदिर ई की नाँईं।
7
टूटना - पीड़ा
उससे भी अधिक
पीड़ादायी है
टूटने- जुड़ने का
विवश सिलसिला।

टूटिबौ- पीर
वातैं ऊ अकूहल
पीर दिवैया
टूटिबे जुरिबे कौ
परबस क्रम ऐ।
8
घृणा ही हो तो
जी सकता है कोई
जीवन अच्छा
किन्तु बुरा है होता
प्रेम का झूठा भ्रम।

अलिच्छ होइ
तौ जी सकतु कोऊ
जीबनु आछौ
पै बिरम अनेरौ
हिलनि कौ अनैसौ।
9
तोड़ते नहीं
शीशातो क्या करते
सह न सके
दर्द- भरी झुर्रियाँ
किसी का उपहास।

टोरत नाहीं
सीसा, का करत तौ
अएरि सके
न पीर भरीं रेखैं
काहू कौ हँसी- ठट्ठौ।
10
भरी गागर
मेरी आँखों की प्रिय
कुछ कहती,
जीवन पीड़ा सहती
लज्जितन बहती।

छक्क गगरी
पिय मो नैननि की
कछू उच्चरै
जीबनु पीर सहै
कनौड़ी, नाहिं बहै।
11
बचपन था-
जहाँ झूलता मेरा,
टँगा है मन
ननिहाल के उसी
आम के पेड़ पर।

सिसुताई ई
जहँ रम्कति मोरी
उरम्यौ हिय
ननसार के वाई
अंबुआ बिरिछ पै।
12
पास में खड़ा
मोटर पुल नया,   
पैदल पुल-
अब चुप-उदास 
था लाया हमें पास।

ढिंयई ठाड़्यौ
मोटर पुल नयौ
पैदरि पुल
अब चुप्प उचाढ़
हमें ढिंयाँ लायौ हुतौ।

-0-

10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! अद्भुत जुगलबंदी!

    कविता भट्ट जी के अति सुंदर तांका और उतना ही सुंदर रश्मि जी का अनुवाद।

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  2. हार्दिक बधाई आप दोनों को । अनुवाद की दुनिया में स्वागत है।
    शुभकामनाएँ।

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  3. वाह! बहुत सुन्दर। हार्दिक बधाई रश्मि जी।

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  4. टँगा है मन
    ननिहाल के उसी
    आम के पेड़ पर।

    अति सुंदर। बचपन की स्मृतियों को जगाता मोहक ताँका। अन्य ताँका और ब्रज में अनुवाद का जवाब नहीं। सृजक एवं अनुवादक को बहुत-बहुत बधाई।

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  5. मूल और अनुवाद दोनों मनोहारी हैं, बहुत बधाई आप दोनों को

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  6. ताँका और अनुवाद दोनों बेहतरीन ...कविता जी और रश्मि जी को बहुत बधाई।

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  7. बहुत सुंदर ताँका का बहुत ही सुंदर अनुवाद। आप दोनों को हार्दिक बधाई।

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  8. ताँका एवं उनका अनुवाद दोनों ही अतिसुन्दर व भावपूर्ण!

    ~सादर
    अनिता ललित

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