सोमवार, 8 अप्रैल 2024

1172-नैनों से नीर बहा

 

-डॉ. जेन्नी शबनम



1

नैनों से नीर बहा

किसने कब जाना

कितना है दर्द सहा।

2

मन है रूखा-रूखा

यों लगता मानो

सागर हो ज्यों सूखा।

3

दुनिया खेल दिखाती

माया रचकरके

सुख-दुख से बहलाती।

4

चल-चलके घबराए

धार समय की ये

किधर बहा ले जाए।

5

मैं दुख की हूँ बदली

बूँद बनी बरसी

सुख पाने  को मचली

6

जीवन समझाता है

सुख-दुख है खेला

पर मन घबराता है।

7

कोई अपना होता

हर लेता पीड़ा

पूरा सपना होता।

8

फूलों का वर माँगा

माला बन जाऊँ

बस इतना भर माँगा।

9

तुम कुछ ना मान सके

मैं कितनी बिखरी

तुम कुछ ना जान सके।

10

कब-कब कितना खोई

क्या करना कहके

कब-कब कितना रोई।

11

जीवन में उलझन है

साँसें थम जाएँ

केवल इतना मन है।

12

जब वो पल आएगा

पूरे हों सपने

जीवन ढल जाएगा ।

13

चन्दा उतरा अँगना

मानो तुम आए

बाजे मोरा कँगना।

14

चाँद उतर आया है

मन यूँ मचल रहा

ज्यों पी घर आया है।

15

चमक रहा है दिनकर

दमको मुझ-सा तुम

मुस्काता है कहकर।

16

हरदम हँसते रहना

क्या पाया- खोया

जीवन जीकर कहना।

17

बदली जब-जब बरसे

आँखों का पानी

पी पाने को रसे।

18

अपने छल करते हैं

शिकवा क्या करना

हम हर पल मरते हैं।

19

करते वे मनमानी

कितना सहते हम

ढ़ी है बदनामी।

-0-

 2-रमेश कुमार सोनी



1

पेड़ काँपते

चश्मा बदले माली

बढ़ई हुआ मन

दिखे सर्वत्र

आरी,कुल्हाड़ी संग 

बाजार को सपने। 

2

गुलाब हँसे

कँटीली चौहद्दी में

सौंदर्य की सुरक्षा

महँगा बिके

कोठियों,मंदिरों में 

महक बिखेरते। 

3

भोर को चखा

तोते की चोंच लाल

भूख ज़िंदा ही रही

फड़फड़ाती 

घोंसलों की उड़ानें

दानों के गाँव तक। 

4

मेघ गरजे 

स्वप्न अँखुआएँगे

खेत नहाते थके

दूब झूमती

धरा हरिया गई

मन -मोर नाचते। 


5

साधु- से बैठे 

भोर-साँझ का रंग

अँगोछे में समेटे 

पहाड़ जैसे

सुख निखरा नहीं

दुःख उजाड़ा नहीं। 

 

6

भीगी हैं लटें

उड़ रहा दुपट्टा

वर्षा में भुट्टा खाना

स्मृति ताज़ा

सौंदर्य दमका है

मिट्टी की सुगंध-सा। 

7

पिंयरी ओढ़े

रेत ढूँढती पानी

मीलों यात्रा करती

नीला आकाश

देख-देख हँसता

मेघ नकचढ़ा है। 

8

गर्मी छुट्टियाँ

साँप-सीढ़ी का खेल

रोज मन ना भरे

पासा उछला

वक्त जीतता सदा

तेरे-मेरे बहाने। 

9

कर्फ़्यू की आग

चूल्हे डरने लगे

अनशन में घर

शहर बंद

भूख छिपी बैठी है

कोई हँस रहा है।

10

यात्री जागते

नींद की ट्रेन चली 

किस्से चढ़ते रहे

गाँव उतरे

गप्पें लड़ाते बीता

तेरा-मेरा सफ़र।

11

पाठक गुम

उदास हैं किताबें

'न्यूज़' शोक में गए

वाचनालय

आलमारियाँबन्द

अज्ञान फैल रहा। 

12

जेबों ने देखी

बाज़ारों की रंगीनी

झोली खाली हो गई

किसान- मन

पसीना जब बोते

सधवा- सी चहकी। 

13

मैके से लौटीं 

साड़ियाँ चहकी हैं

घर महक रहा

रिश्ते खनके

लाज बाहों में छिपी

प्यार बरस गया। 

-0-


9 टिप्‍पणियां:

  1. अरे वाह, बहुत खूबसूरत लिखा है, हार्दिक शुभकामनाऍं।

    जवाब देंहटाएं
  2. जेन्नी जी को अच्छे माहिया की बधाई।

    मेरे सेदोका प्रकाशित करने के लिए संपादक जी का आभार।
    रचनाओं के प्रकाशन होने से हमें पता लगता है कि हमारे लिखने की राह सही है।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर माहिया।
    आदरणीया जेन्नी शबनम जी को हार्दिक बधाई।
    सुंदर सेदोका के लिए आदरणीय सोनी जी को हार्दिक बधाई।

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. अति सुंदर माहिया और बहुत बढ़िया सेदोका...जेन्नी जी एवं रशबनम जी तथा रमेश सोनी जी को हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर माहिया एवं सेदोका। जेन्नी जी एवं रमेश कुमार सोनी जी को बेहतरीन सृजन के लिए हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

    जवाब देंहटाएं

  6. विविध भावों से भरे माहिया और सेदोका के लिये जेन्नी शबनम व रमेश सोनी जी को हार्दिक बधाई |

    पुष्पा मेहरा

    जवाब देंहटाएं
  7. रमेश सोनी जी के सेदोका बहुत सुन्दर और भावपूर्ण हैं। बधाई रमेश जी।
    मेरे माहिया को स्थान देने और पसन्द करने के लिए आप सभी का हृदय से आभार!

    जवाब देंहटाएं
  8. माहिया और सेदोका, दोनों अति सुंदर। जेन्नी जी और सोनी जी को बधाई!!

    जवाब देंहटाएं