गुरुवार, 4 जुलाई 2013

बेबस निगाहें


सुभाष लखेड़ा
1
बादल फटा 
फिर जो कुछ घटा 
कौन बताए 
उत्तराखंड से वे 
अभी तो नहीं 
2.
सामने बहे 
परिवार के लोग 
देखते रहे 
पहाड़ों की चोटी से 
थी बेबस निगाहें
3.
दुख बाँटने  
हुँचे नेता लोग       
सभी दलों से 
झूठी आहें भरते,
अभिनय करते।     

-0-

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मार्मिक ताँका, बड़ा सजीव चित्रण!
    सुभाष जी बधाई!

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  2. सामयिक और प्रभावी ताँका । बधाई
    सुभाष लखेड़ा जी !

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  3. पहाड़ों की चोटी से
    थी बेबस निगाहें ।.....सामयिक और प्रभावी ताँका, सुभाष जी बधाई!

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  4. दुख बाँटने
    पहुँचे नेता लोग
    सभी दलों से
    झूठी आहें भरते,
    अभिनय करते

    एकदम सही कहा सुभाष जी आपने ...अभिनय ही तो करते हैं ये .... इनके सामने तो फिल्मों का अभिनय भी कम है .... इनकी छीना-झपटी , बन्दर बाँट चलती ही रहती है चाहे कुछ भी हो जाये .... बस एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहो, अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहो ... न दुःख न सहानुभूति कुछ भी नहीं इनकी तो बस अर्जुन की तरह नजर सिर्फ वोट बैंक पर ही रहती है .... एक सूत्रीय कार्यक्रम .... कि कौन सा तिकड़म भिड़ायें और विरोधी चित्त हो जाये और हम आगे निकल जाएँ ...

    Manju Mishra
    www.manukavya.wordpress.com

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  5. बहुत ह्रुदयस्पर्शी और सच्चाई बयान करते तांका...|

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  6. सटीक व सामयिक रचना . किसी भी नेता के झूठे आँसू भी नहीं बहे .
    बधाई .

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  7. संपादक द्वय और आप सभी को हार्दिक धन्यवाद !

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