शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2013

मानव-मन

रेखा रोहतगी
1
इस जग में
सबसे विचित्र है
मानव-मन
सुखों को पाकर भी
होता निराश
दुखों  में भी न हुआ 
कभी हताश
कभी हारकर भी
हार न माने
भीड़ में भी अकेला 
स्वयं को माने
अकेलेपन को भी
कभी  मेला ही जाने ।
-0-
2
मानसर में !
चुगता रहा मोती
मन का हंस
आँखें बन चकोर
पीती ही रहीं
चन्दा तेरी किरनें
सपने में भी
झपके न पलक
तेरी ललक
नेह-चाशनी पागी
लगन लागी
पंख उगे बिना ही
मैं तो हो गई पाखी ।

-0-

5 टिप्‍पणियां:

  1. मानव-मन की विचित्रता को बहुत निपुणता से चित्रित किया आपने ...और बहुत सुन्दर है यह मानस का हंस ....हार्दिक बधाई आपको ...नमन !

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  2. मानव मन का बहुत सुंदर चित्रण किया है रेखा रोहतगी जी!
    इतनी सुंदर अभिव्यक्ति के लिए बहुत-बहुत बधाई!!!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  3. choka ki prathham prastuti par utsaah-vardhan ke liye aap sabka evam kambose jee ka hardik abhinandan.
    rekha rohatgi

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  4. कभी हारकर भी
    हार न माने
    भीड़ में भी अकेला
    स्वयं को माने
    अकेलेपन को भी
    कभी मेला ही जाने ।
    बहुत खूबसूरत चोका...हार्दिक बधाई...|

    प्रियंका

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