मंगलवार, 12 नवंबर 2013

तेरा मिलन




डॉ हरदीप कौर सन्धु
तेरा  मिलन
सुना जाता है मुझे
हर पल ही
अनकहा -सा दर्द
बहता रहा
जो तेरी अँखियों से
निचौड़ी गई
अधूरे अरमान
कठिन राह
अब कहाँ से लाऊँ
पी खींचती 
कोई जादुई दवा
धीरे -धीरे से
तेरे खुले ज़ख्मों पे
रखने को मैं
उठी बिरहा -हूक
बेनूर हुई 
लबों पे आ लौटती
काँटों चुभती
तीखी -सी टीस ने
हौले -हौले ही
समय की तल पे
यूँ  फ़ाहे रख
खुद ही हैं भरने 
तेरे दिल  के 
अक औ असह्य 
गहरे  दर्द- ज़ख्म !
-0-

4 टिप्‍पणियां:

  1. खूबसूरती से सच बयान हुई कि
    समय से बड़ा कोई मलहम नहीं
    अद्धभुत अभिव्यक्ति

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  2. मर्मस्पर्शी चोका ....
    अब कहाँ से लाऊँ
    पीर खींचती
    कोई जादुई दवा.......बहुत सुन्दर रचना ..बधाई ...हरदीप जी !

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  3. कुछ पीर की दवा होती ही नहीं, वक़्त का मरहम ही धीरे धीरे.....
    बहुत खूबसूरत अलफ़ाज़...

    अब कहाँ से लाऊँ
    पीर खींचती
    कोई जादुई दवा
    धीरे -धीरे से
    तेरे खुले ज़ख्मों पे
    रखने को मैं

    भावपूर्ण चोका के लिए हरदीप जी को बधाई.

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  4. bahan hardeep ji apake dwara likha gaya choka sargarbhit hai.
    pushpamehra.

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