शनिवार, 20 अगस्त 2016

724

आज़ाद है परिन्दा 

डॉ सुधा गुप्ता


ओ अभागे मेरे मन !
अन्धमोह से ग्रस्त, अन्धानुरागी, पक्षपाती तुम ! तुम स्वयं को एक डिबिया में बन्द कर, साहूकार के पास गिरवी रख मुझे बिल्कुल भूल गए। .एक लम्बा -कदाचित आजीवन कारावास। चक्रवृद्धि ब्याज चुकाते तुम्हारी कमर टूट गई ;बस , साहूकार बदलते रहे और ऋण -राशि निरंतर बढ़ती गई , हर बार ऋण की शर्तें कठोर से कठोरतम होती गईं। परिणाम ? कारावास भी कठोरतम होता गया। 
'मैं ' एकाकी छूटी गई , पीछे रह गई। तुम्हें खोजने अन्धी गलियों में भटकते -भटकते बेदम हो गई पर तुम तो 'काले जादू' की डिबिया में कैद थे , मेरी पुकार तुम तक पहुँचती कैसे ? ताज़ी बयार का कोई झोंका तुम तक कैसे आ पाता ?
तुम ! मित्रद्रोही, विश्वासघाती, छलिया ! मेरे होकर भी कभी मेरे न हुए। जितना तुम्हें निकट पाने का यत्न करती, उतना ही तुम 'गैर' के निकट चले जाते। जितनी ममता तुम पर लुटाती, उतनी ही निर्ममता से मुझे परे ठेल देते। 
   अधीर प्रतीक्षा में युगों का समय बीत गया। फिर एक तुम्हें पाने की आशा के क्रूर फन्दों को ही मैंने तोड़ डाला। जाओ, भटको , मरो या जीओ, मुझे तुमसे कुछ लेना देना नहीं है ; कैद में सड़ते -गलते रो तो भी मुझ पर कोई असर पड़ने वाला नहीं। 
यंत्रणा की चरम छटपटाहट से मुक्तिकामी में मैं तुमसे ही विद्रोह कर बैठी। स्वतंत्रता का अपना आनन्द है जो मैंने पा लिया है। 
तोड़ सींखचे 
आज़ाद है परिन्दा 
और खुश भी। 


23 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! अादरणीय सुधा जी की लेखनी तो बस कमाल है। जो भी लिखती हैं क्या खूब लिखती हैं

    बस साहूकार बदलते रहे और ऋण -राशि निरंतर बढ़ती गई , हर बार ऋण की शर्तें कठोर से कठोरतम होती गईं... कितने सुन्दर ढंग से कितने कम शब्दों में कितनी बड़ी बात

    सुधा जी को जानना और उनसे अामने सामने मिलना बहुत बड़ासौभाग्य है जो सौभाग्य से मुझे प्राप्त हुअा है

    सादर
    मंजु

    जवाब देंहटाएं
  2. दर्द और पीड़ा की कैद की छटपटाहट से मुक्त होनें का प्रयास साथ - साथ आशा के नये सवेरे की ओर आना ,बहुत मार्मिक......पर खूबसूरत भी.....सादर नमन है आपको और आपकी लेखनी को आदरणीया !

    जवाब देंहटाएं
  3. अंधे मोह में उलझा मन क्या-क्या नहीं सहता,बहुत सुंदर प्रेरक अभिव्यक्ति आदरणीया सुधा जी की। सोभाग्य हमारा आपकी लेखनी के मोती हमे मिले।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर हाइबान -'तोड़ सींखचे \आज़ाद है परिंदा \ और खुश भी|'आदरेय सुधा दीदी की लेखनी को नमन |


    पुष्पा मेहरा

    जवाब देंहटाएं
  5. मोह से मुक्ति की अभिव्यक्ति । बहुत सुंदर। आपकी लेखनी को नमन।

    जवाब देंहटाएं
  6. डॉ सुधा गुप्ता जी का हाइबन 'आज़ाद परिंदा' मैंने एक बार नहीं बार बार पढ़ा। हर बार अल्फ़ाज़ नए- नए अहसासों के द्वार खोलते गए। जितना इसे मैं समझ पाई हूँ -अपने शब्दों में लिखने का प्रयास किया है।
    'आज़ाद परिंदा' हाइबन में डॉ सुधा गुप्ता जी ने मन और आत्मा की परस्थिति को बाखूबी बयान किया है। यह एक अछूता विषय है जिस पर बहुत कम लिखा गया है।
    कहते है कि दिल दरिया समुन्द्रों डूंगे कौन दिलों की जाने।
    मनुष्य के मन में क्या -क्या हो रहा है इस का कोई पारावार नहीं है। ऐसे विषय पर विचार करने के लिए हमें ताउम्र तजुर्बों में से गुज़रना पड़ता है।
    इस जगत में हर प्राणी की उपस्थिति भौतिक तथा सूक्ष्म शरीर की वजह से है। तन रूपी भौतिक शरीर एक कवच है हमारे सूक्ष्म शरीर का , जिस का सीधा रिश्ता मन तथा आत्मा से है। डॉ सुधा जी लिखती हैं कि अंधे मोह में ग्रस्त मन को तृष्णा , भटकन , निराशा , चिंता जैसे साहूकारों के पास गिरवी रख दिया गया । चक्रवृद्धि ब्याज चुकाते इसकी कमर टूट गई , मगर ब्याज बढ़ता ही गया। वह आत्मा को भूल गया। आत्मा की पुकार मन तक पहुंची ही नहीं। असल में आत्मा पर मन का कब्ज़ा हो जाता है। वह उसे भूख प्यास , दुःख सुख तथा भले बुरे चक्रों में डाल देता है। चंचल मन के पीछे लगकर हम संसार के भवसागर से पार जाना चाहते हैं।
    हमारी बुद्धि काम ही नहीं करती। उदाहरण के लिए किसी की गिरी कीमती चीज़ को देखते ही हमारा मन ललचा जाता है। जब हम वह चीज़ उठाने लगते है तो इधर उधर देखते तो हैं कि कोई हमें देख तो नहीं रहा क्योंकि हमारी सोच हमें आगाह करती है। मगर फिर भी मन हमें उस कीमती चीज़ को उठाने के लिए मजबूर कर देता है। हमारी सोच हमें भले -बुरे से आगाह करवाती है और मन संस्कारों अधीन सोच को प्रेरित कर कोई भी काम हम से करवा लेता है।
    संसारी चमक -दमक तथा मोह माया जैसे साहूकारों के वश में पड़ा मन आत्मा की अधीनता स्वीकार करने से इंकार कर देता है। आत्मा कभी बुरी नहीं होती क्योंकि इसका सीधा सबंध परमात्मा से है। इंसान की सोच की उपज इसे बुरा बना देती है। आत्मा का सीधा सबंध मन से भी है। जैसे जैसे मन सच्चा हो जाता है भली आत्मा हम में समा जाती है।
    डॉ सुधा जी का कहना है कि हम ताउम्र अपने मन को आत्मा की असीम शक्ति के बारे में समझने के लिए पुकारते रहते हैं। मगर कामयाब नहीं होते। असल में आत्मा ही हमारी रूह है , यह वो तत्व है जो हमारे जीवन का रहनुमा है। इसको सच -झूठ की पहचान करने का ज्ञान होता है। हमारे अंहकार तथा अज्ञानता के कारण हम सच को नकारते हैं। यह आत्मा ही है जो एक जीव को दूसरे से अलग करती है।
    आखिर में वह कहती हैं कि युगों के समय की खोज के बाद आपने क्रूर फन्दों को तोड़कर आत्मा को मन से आज़ादी दिला ली है। कहते हैं कि यह आत्मा ही है जो हमें अच्छे कामों के लिए प्रेरित करती है तथा नेक -पावन विचार रखती है। अच्छे -बुरे चक्रों का रास्ता बताती है। इस डगर पर चलते वह अब राहत महसूस कर रही है तथा आज़ाद परिंदे की भांति अंबर को छूने की तमन्ना रखती है।
    यह हाइबन पढ़ते हुए बहुत से नए विचारों की परतें खुलीं। भगवान से यही प्रार्थना करती हूँ कि आपकी कलम से ऐसी ही और उत्तम रचनाएँ पढ़ने को मिलती रहें। डॉ सुधा गुप्ता जी की कलम को नमन।
    डॉ हरदीप कौर सन्धु

    जवाब देंहटाएं
  7. आदरणीया सुधा दीदी जी की लेखनी से सदा ही उत्कृष्ट स्तर के सुगन्धित फूल झरते हैं। उनकी अभिव्यक्ति सदैव ही परम आनंद का अनुभव कराती है और हमें निःशब्द कर देती है। आज की प्रस्तुति में आत्मा की मन के बंधनों से छूटने की, उनको तोड़ने की छटपटाहट को किस क़दर ख़ूबसूरती से बयाँ किया है दीदी जी ने... कि क्या कहें! बस मन तृप्त हो गया।
    उसपर प्रिय बहन हरदीप जी की व्याख्या ने और चार चाँद लगा दिए। इस सुंदर विवेचना के लिए आपका हार्दिक आभार हरदीप जी!
    दीदी जी, ईश्वर से यही दुआ है कि आपको स्वस्थ, सुखी, संतुष्ट एवं चिंतामुक्त दीर्घायु मिले, आप इसी तरह रचना के संसार को समृद्ध करती रहें और आपका स्नेहाशीर्वाद भरा हाथ हमेशा-हमेशा हमारे सिर पर बना रहे!
    आपको एवं आपकी लेखनी को शत-शत नमन!!!

    सादर
    अनिता ललित

    जवाब देंहटाएं
  8. सूफियाना हाइबन में गागर में सागर भर दिया .

    स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करती हूँ .
    मंजू गुप्ता

    जवाब देंहटाएं
  9. तुम ! मित्रद्रोही, विश्वासघाती, छलिया ! मेरे होकर भी कभी मेरे न हुए। जितना तुम्हें निकट पाने का यत्न करती, उतना ही तुम 'गैर' के निकट चले जाते। जितनी ममता तुम पर लुटाती, उतनी ही निर्ममता से मुझे परे ठेल देते।

    वाह..आज़ादी और खुशी दोनों को पूरक मानकर मन की स्थिति को व्याख्यायित करना..बहुत सुंदर बन पड़ा है।सच में मन ऐसा ही है जो जिसके वश में हो गया,उसी का ही हो जाता है फिर तन चाहकर भी उस मन को अपने नियंत्रण में नहीं रख पाता।...शुभकामनाएं...डॉ.सुधा जी

    आ हरदीप जी,आपकी विचारात्मक समीक्षा पढ़कर अति प्रसन्नता हुई...बधाई

    जवाब देंहटाएं
  10. आज़ाद परिंदा - जब तन और मन किसी में आत्मसात हो जाता है तो उसे पाने की इच्छा भी लुप्त हो जाती है , शायद यही सांख्य दर्शन पढ़ते हुए समझा था, जिसे अद्वैत भाव भी कह सकते हैं | मुझे सुधा जी के सभी उलाहनों में भी वही अद्वैत भाव दिखाई दिया | बहुत सुंदर प्रस्तुति के लिए आदरणीय सुधा जी , हरदीप जी एवं बिया काम्बोज जी को साधुवाद |

    सादर,
    शशि पाधा

    जवाब देंहटाएं
  11. वाह सुधा जी कितने सुन्दर शब्दों में रचना की है ।ऋण कठोर और कठोरतम होता गया ।बहुत मन भावन और गहरा हाईबन है आपके लेखन को नमन करती हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  12. लाजवाब प्रस्तुति! अद्भुत अभिव्यक्ति! आदरणीया सुधा जी आपको तथा आपकी लेखनी को मेरा नमन।

    जवाब देंहटाएं
  13. आ.सुधा जी , मन और आत्मा के रिश्तों का दार्शनिक पृष्ठभूमि में विश्लेषण करते हुए आपकी यह विशिष्ट रचना पढ़कर बहुत अच्छा लगा। बहुत-बहुत बधाई हो!

    जवाब देंहटाएं
  14. आदरणीया सुधा दीदी की उत्कृष्ट लेखनी हमेशा चकित करती है| मन का मोहग्रस्त होना, अन्धानुरागी होना,पक्षपाती होना , अन्तरात्मा की छटपटाहट...सबकुछ साहुकार और चक्रवृद्धि ब्याज की कठोर शर्तों के माध्यम से बताना और अन्त में हाइकु... आजादी का सुख...बहुत ही अच्छा हाइबन|बधाई सुधादीदी को और आभार त्रिवेणी मंच का|
    सादर
    ऋता

    जवाब देंहटाएं
  15. कमला घाटाऔरा की टिप्पणी:- रा


    आज़ाद है परिंदा
    किसी भी उच्चकोटि के लेखक या कवि की लिखत पढ़ कर साधारण पाठक यूं ही कुछ लिख देता है अपना कर्तव्य समझ ।मुझे काफी समय लगा समझने में कि सुधा जी ने हाइबन में कहा क्या है? जब तक हरदीप जी की इस हाइबन की व्याख्या नहीं पढ़ी अपने विचार व्यक्त करने में मैं असमर्थ रही । अब अपने विचार लिखती हूँ । आदरणीया सुधा जी का यह हाइबन अपने छोटे से कलेवर से अध्यात्म की गूढ़ गूथी समेटे हुये है । जीवात्मा और चंचल मन की बातें कही गई हैं इसमें ।पराधीनता के कष्टों का सुन्दर विवेचन है इसमें । मन को जितना पढताड़ो समझायो कहाँ मानता है सुधा जी के शब्दों में मित्र द्रोही ,विश्वास घाती ...मोहपाश की जादू की डिबीया में बंध युगों से अधीनता के कष्टों को झेल रहा है । हजारों उपाय करके जब आत्मा उसे राह पर लाने में सफल नहीं होती तो उसका पीछा छोड़ देती है । उसे उसके हाल पर ।यही वह अवस्था है जब जीते जी जीवात्मा स्थूल शरीर में रहते हुये ही मोक्ष प्राप्त कर लेती है यानी मोह से मुक्ति । हजारो अनुभवों से गुजरने के बाद यह स्थिति प्राप्त होती है ।यह इतना सहज नहीं । जब जीवात्मा साक्षी भाव से यह देखती है तो समझ जाती है ।मनका पीछा छोड़कर ही मुक्ति का आनंद लिया जासकता है । महाभारत का धनुर्धर अर्जुन इसी मन:स्थिति से जब गुजर रहा था तो मोहकी मित्रता पर अड़ा रहा युद्ध करने से इन्कार करके घुटने टेक कर बैठ गया । कृष्ण ने जैसे अर्जुन के मनके मोह को त्यागने की शिक्षा दी । सुधा जी ने भी यही बात हमें समझा दी ।मनका पीछा छोड़ना ही उचित है । सुधा जी ने वह आज़ादी पा ली सुख देने वाली ।धन्य उन की लेखनी । धन्य उन की प्रतिभा जिसने हमें इतनी ज्ञान की बातें चंद शब्दों में पिरो कर हमें उपहार में दी हैं ।हम यही प्रार्थना करते हैं वे अपने ऐसे ही अनमोल उपहारों से हमें आशार्वाद देती रहे अपना प्यार लुटाती रहें ।





    Kamla Ghataaura

    जवाब देंहटाएं
  16. सम्माननीया कमला जी , आपकी टिप्पणी (सुधाजी की रचना पर) पढ़ी। अच्छा लगा कि आपने पूरी तरह समझने पर प्रतिक्रियास्वरूप विचार अभिव्यक्त किए;परंतु आपने कहा -
    "किसी भी उच्चकोटि के लेखक या कवि की लिखत
    पढ़कर साधारण पाठक यूँ ही कुछ लिख देता है अपना कर्त्तव्य समझ ।"
    मन आपकी बात से सहमत न हो सका।मेरे विचार से लेखन में अनुभवी लेखक की रचना कोइ पढ़कर अपनी समझ व दृष्टिकोण से उसके विषय में अभिव्यक्ति देता है
    तो इसमें उस पाठक को हम कैसे साधारण कह सकते हैं।
    क्या अपने नज़रिए से रचना को समझ लेना ही उसे साधारण बना देता है।
    या फिर उसे आनंद की अनुभूति हुई उसे अपने तक सीमित रखे जब तक कि उत्तम कोटि का लेखक या कवि उसकी व्याख्या उतनी ही उच्च कोटि( गंभीर शब्दावली) में
    स्पष्ट न कर दे।
    हाइबन को समझने में आपको समय लगा तो हो सकता है सभी को लगा हो ,पर यदि वह अपनी प्रतिक्रिया में कुछ लिखता है तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि अपना कर्तव्य समझ कर यूँ ही कुछ लिख दिया होगा।
    और वह एक साधारण पाठक ही होगा।लेखन मे अनुभवी न सही , पाठक है और रचना पढ़कर भावनाएँ आंदोलित हो रही हैं तो चाहे कोई भी दृष्टिकोण व नज़रिया उसका रहा हो उसे उच्च ,साधारण आदि श्रेणीमें विभाजन करना सही नहीं है।कोई भला यूँ ही क्यों लिख देगा? उसे क्या कोई पारितोषिक मिलेगा?एेसा करने में कौनसा कर्त्तव्य पूरा होगा?क्षमा चाहती हूँ कुछ समझ नहीं आया आपने एेसा क्यों सोचा?

    जवाब देंहटाएं
  17. पहली बार पढ़ा आपको , आदरणीया सुधा दी । मन भाव विभोर हो गया । इस रचना पर सुधी जनों की प्रतिक्रिया भी पढ़ी । कितनी बारीकी से पढ़कर समीक्षा की गई है । बहुत ही सुन्दर रचना । बहुत बधाई आपको

    जवाब देंहटाएं


  18. आदरणीय सुधा दीदी के गूढ़ दर्शन पर आधारित हाइबन
    ‘आज़ाद है परिंदा’ का पूर्ण विश्लेषण पुष्पा मेहरा २२.८.१६
    जैसा कि हाइबन के शीर्षक से ही स्पष्ट हो जाता है कि ‘परिंदा’ शब्द का प्रयोग न तो गगनचारी –स्थूल तनधारी पक्षियों के लिए और ना ही स्थूल शरीर के लिए किया गया है,परिंदा है तो वह हमारा मनमौजी और निरंकुशताकांक्षी मन ही है जो हर जगह उड़ता स्वयं तृप्त होता रहता है,ये चंचल मन हमें ऐन्द्रिक सुख देने का साधन बना रहता है यह तो वह मायावी जादूगर है जो हमें अहंकार ,माया ,मोह, मद और मत्सर के जटिल पाश में बाँधे रखता है ,यही तो प्राकृतिदत्त माया का प्रभाव है ,इसीलिए संत कबीर ने माया को महा ठगिनी कहा है यह तो इतनी मोहिनी है कि भौतिक (क्षणिक) सुखों की मदिरा पिला- पिला मनुष्य को मनुष्य शरीर धारण करने का असली मर्म ही भुला देती है | हम भूल जाते हैं कि ‘शरीरमाद्यमखलुधर्मसाधनम’ आत्मा तो अजर,अमर, सर्वव्यापक है और रहेगी | हमारे शरीर रूपी आवरण में काम,क्रोध, मोह आदि मकड़ी के जाले की तरह हैं जिसमें हमारा मन पतंगा फँसा रहता है, उस जाले से छूटने की कोशिश में हम और उलझते जाते हैं जब तक हमारा सारा ध्यान उसके घुमावदार बन्धनों के घुमावों को समझ कर अपना मन वा हाथ उसी ओर पूर्णरूप से केन्द्रित कर उनसे छूटने का प्रयत्न नहीं करते |
    कहने का उद्देश्य यह है कि अपनी इन्द्रियों के दास हम तब तक जन्म लेकर कर्म-बंधन में बँधते रहेंगे जब तक हम अपने पूर्व जन्म के अर्जित अच्छे –बुरे कर्मों को काट कर उनसे पूर्ण रूप से उऋण नहीं हो जाते यह तभी सम्भव होगा जब हम अपने मदमस्त मन पर साधना रूपी अंकुश लगा सकेंगे | जहाँ तक मैं समझ सकी हूँ (निजी विचार) परमात्मा (भगवान कृष्ण )में पूर्ण रूप से आत्मलीन गोपियों ने भी मन को एक ही माना जो परम प्रकाश पा चुका है जिसे ज्ञान का भ्रम नहीं भाता | यदि हमने गीता में संकेतित और पातंजलि के विश्लेषित अष्टांग योग को आत्मसात कर यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार, धारणा,ध्यान, समाधि की स्थिति को पा लिया तो हमारी आत्मा पूर्ण मुक्त हो सुख –दुःख से परे हो जायेगी |
    ध्यानावस्था में मन–पंछी तरह–तरह के अच्छे –बुरे विचार रूपी तिनके लाकर घर बनाता रहता है हम जब इनकी परवाह ना कर, इनको अनदेखा कर परम प्रकाश की ओर उन्मुख होने का प्रण कर ही लेते हैं तो पूर्णानंद की प्राप्ति कर आवागमन के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं | तो ये है पूजनीय दीदी जी का मन परिंदा |अंत में मैं यह बताना चाहती हूँ कि इस विषय पर प्रतिक्रिया अति संक्षिप्त से लेकर विस्तृत से भी विस्तृत हो सकती है क्योंकि इसकी जितनी परतें खुलतीं हैं उतनी ही बंद मिलती हैं जिन्हें खोलते–खोलते युग बीत जाते हैं और सूक्ष्म शरीर रुपी डिबिया बंद ही चली जाती है, हम जन्म जन्मान्तर तक कर्मफल भोगते उन्हें उलाहना देते रहते हैं | किन्तु हमारी दीदी तो आत्मसुख का अनुभव कर सभी को उसे पाने की प्रेरणा दे रही हैं |
    pushpa.mehra@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  19. सुन्दर भावधारा प्रवाहित करता मनोमुग्धकारी हाइबन !
    उसपर भी सुधी जनों की सुन्दर चर्चा !!

    आदरणीया सुधा दीदी की सशक्त लेखनी को शत-शत नमन करते हुए उनके सुखी, स्वस्थ, दीर्घायु जीवन की कामना करती हूँ ,उनका स्नेह आशीर्वाद हम पर सदैव बना रहे ! दीदी की रचनाएँ हमारी पाठशाला हैं !

    इस सुयोग के प्रायोजक आदरणीय हिमांशु भैया जी और बहन हरदीप जी के प्रति भी सादर नमन वंदन !!

    सादर /साभार
    ज्योत्स्ना शर्मा

    जवाब देंहटाएं

  20. लाजवाब प्रस्तुति! अद्भुत अभिव्यक्ति!दीदी का सादर बधाई।बहुत ही गहन अभिव्‍यक्ति।जीवन की सत्‍यता कहता हाइबन। दीदी आपको नमन ।

    जवाब देंहटाएं
  21. प्रभावशाली हाइबन जितना मंत्रमुग्ध करता है उस पर समीक्षाएँ चार चाँद लगा रही हैं ! बार बार पढ़कर जीवन दर्शन पर समझ पुख़्ता होती है !

    जवाब देंहटाएं
  22. क्या कहूँ...कैसे कहूँ...? आदरणीया सुधा जी की लेखनी की तारीफ़ करने के लिए अब कौन से शब्द खोजूँ...? बारम्बार पढ़ा...हर बार नया...उतना ही शानदार और अप्रतिम...|
    हरदीप जी, आपने जितनी सूक्ष्म व्याख्या कर डाली, उसके लिए आपका भी अभिनंदन...|

    आभार आप सभी का जो इतनी प्यारी रचनाएँ पढ़ने का सौभाग्य हम सभी को मिलता है...|
    बहुत बहुत बधाई...|

    जवाब देंहटाएं