मंगलवार, 17 जनवरी 2012

परछाई की पीड़ा


रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

नहीं बैठना
सटकर दो पल
जलन -भरी
मेरी परछाई से
दे देगी पीड़ा
दो पल की छुअन
जग जाएँगी
सोई सभी कथाएँ
तड़पा देंगी
जीवन की व्यथाएँ !
वो स्वर्णकेशी
परियों का नर्तन
अश्रु-चुम्बन
भावमग्न होते ही
विदा हो जाना ,
फिर लौट न पाना
विवशता में
कुछ छटपटाना
गए पहर
चाँद का सुबकना
किसने जाना ?
छू न पाना हथेली
वो प्यार-भरी
सहमी और डरी
लिख न पाना-
जन्मों की अभिलाषा,
आग जगी मन की ।
-0- 

6 टिप्‍पणियां:

  1. भाव विभोर करते,जीवन की गहनता,सरलता से समझाते अति सुदर।

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  2. फिर लौट न पाना
    विवशता में
    कुछ छटपटाना
    गए पहर
    चाँद का सुबकना
    किसने जाना ?
    अति सुन्दर भावना।
    कृष्णा वर्मा

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  3. चोका में भावों को अच्छी अभिव्यक्ति दे रहे हैं आप

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  4. गए पहर
    चाँद का सुबकना
    किसने जाना ?

    सुबकता चाँद ...कितना सुन्दर बिंब !!!

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  5. man mein gahre utarte ehsaas...

    फिर लौट न पाना
    विवशता में
    कुछ छटपटाना
    गए पहर
    चाँद का सुबकना
    किसने जाना ?

    bhav aur shabd donon hin behtareen. badhai Kamboj bhai.

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  6. बहुत ही मार्मिक चोका लिखा है हिमांशु जी .....बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं ...

    डा. रमा द्विवेदी

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