अनुपमा त्रिपाठी
छवि सुहाए
सूरतिया पिया की
मनवा भाए
नदिया हूँ मैं
सागर पियु मेरो
बहती जाऊँ
कथा सागर तक
कहती जाऊँ
पियु में समा जाऊँ
पीड़ा राह की
सकल सह जाऊँ ।
बन में ढूँढूँ
धारा- हूँ जीवन
की
घन बिचरूँ
ज्यूँ धार नदिया की
कठिन पंथ
अलबेली -सी रुत
मोहे सताए
जिया नाहीं बस में
पीर घनेरी
.
मनवा अकुलाए ।
बिपिन घने
मैं कित मुड़
जाऊँ
पिया बुलाए
मन चैन न पाए
बढ़ती जाऊँ
रुक ना पाए
अब कौन गाँव है
कौन देस है
नगरिया पिया की
रुक ना पाऊँ
कल- कल करती
बहती जाऊँ
छल -छल बहूँ मैं
सागर को पा जाऊँ ।
-0-
बहुत सुंदर.....
जवाब देंहटाएंबिल्कुल कल-कल करती नादिया सी बहती रचना... :)
बधाई अनुपमा त्रिपाठी जी !
~सादर
चोका त्रिवेणी पर लेने हेतु बहुत आभार हरदीप जी एवं हिमांशु भैया जी ।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंवाह!! काव्य सौन्दर्य से भरपूर रचना!!
जवाब देंहटाएंभाव अति सुंदर...अनुपमा जी को बहुत बहुत बधाई|
बहुत सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंअनुपमा जी बधाई।
बहुत सुंदर .... कल कल छल छल सी बहती हुई ...
जवाब देंहटाएंBhavpurn abhivyakti...
जवाब देंहटाएंBhavpurn abhivykati....
जवाब देंहटाएंशब्दों की अविरल धारा में बहता काव्य सौन्दर्य | बधाई आपको |
जवाब देंहटाएंमधुर और मुखर!
जवाब देंहटाएंछल -छल बहूँ मैं
जवाब देंहटाएंसागर को पा जाऊँ ।
बहुत सुन्दर...बधाई...।
प्रियंका
अनुपम भाव संयोजित किये हैं आपने इस अभिव्यक्ति में ...
जवाब देंहटाएंमन को शीतल जल की तरह ठंडी कर गयी आपकी यह प्रस्तुति. आपकी काव्य धारा ऐसे ही बहती रहे.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अनुपमा जी...
जवाब देंहटाएंअनु
काव्य सौंदर्य लिए गतिमान चौका . बधाई .
जवाब देंहटाएंमन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
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