शनिवार, 4 अप्रैल 2015

क़तरा शबनम



प्रो.दविन्द्र  कौर सिद्धू

आज तो नन्हीं सूर्य उदय होने से पहले ही उठ गई थी। आँखें मलती मेरे पास आकर कहने लगी, " चलो.....  बाहर जल्दी चलो........मुझे ओस देखनी है ........फिर धूप में हमें कहाँ मिलेगी ?"
          दूसरे ही पल हम दोनों आँगन की बगीची में थीं।  घास पर पड़ी ओस की मुलायम - सी चादर पर नंगे पाँव चलने का अपना ही लुत्फ़ था। मेरी अँगुली पकड़े वह छोटे -छोटे से सवाल करती चली गई  और मैं जवाब देती रही ……… " कितनी मोहक लग रही है ये घास पे बिखरी ओस....इसका वजूद बस कुछ ही पलों का मेहमान है। यही क्षण इसको जीने लायक बनाते हैं। इसके यही पल किसी के काम आ गए हैं। "
             मनमोहक सवेर में ओस की बूँदों संग चलते मैं अपने ही ख्यालों में बहने लगी .......... मेरा वजूद भी जीने लायक बन जाए अगर एक पल भी किसी के काम आ  जाए।  काश मेरा एक पल एक क्षण मानवता के काम आ जाए। काश मैं भी ओस बनकर मानवता के चरणों  में पड़ जाऊँ,   कुदरत ,   कादर मुझे एक पल ही ऐसा दे दे। "
           मुझे पता ही न चला नन्हीं कब मेरी अँगुली छोड़ पत्तों पर पड़ी ओस की बूँदों को पकड़ने में लगी थी। अपने ख्यालों से मैं तब निकली ,जब रोते हुए उसने मेरी चुनरी के पल्लू को खींचते हुए कहा, "देखो बड़ी मुश्किल से मैंने मोती ढूँढे थे अब पता नहीं कहाँ चले गए ?" गोद में उठाकर उसे चुप कराते हुए मैंने समझाया, " घास की नरम पत्तियों को नहलाकर , आँखों को ठंडक देकर, मौसम को खुशनुमा कर ये मोती कहीं खोए नहीं हैं....... बल्कि कुदरत रानी की गोद में सोने के लिए चले गए हैं …… जैसे तुम मेरी गोद में सो जाया करती हो। ये कल फिर आएँगे, जीवन में जान डालेंगे, जीने लायक बनाएँगे कुदरत संग मेल कराएँगे।  " सच हाँ.………मुच। "
नन्हीं की आँखों के उतर आए तरल मोती मैंने बटोर लिये थे।
मके हवा
तरा शबनम
बटोरे मोती।
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7 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! बहुत कोमल भावों से ओतप्रोत सारगर्भित रचना ! दिल को मानों सहला कर निकल गयी...
    बहुत सुंदर!
    हार्दिक बधाई प्रो. दविन्द्र कौर सिद्धू जी !

    ~सादर
    अनिता ललित

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  2. बहुत कोमल भावों वाली सारगर्भित रचना।हार्दिक बधाई।

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  3. बहुत सुन्दर , कोमल प्रस्तुति ...
    हार्दिक बधाई !

    ~सादर
    ज्योत्स्ना शर्मा

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  4. बहुत ही कोमल और भावपूर्ण हाइबन है यह...| इस प्यारी सी रचना के लिए हार्दिक बधाई...|

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