शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

रोशनी



प्रियंका गुप्ता

बात कई साल पहले की है। तब मेरा बेटा चुनमुन ढाई-तीन साल का रहा होगा और मेरे जेठ की बेटी टीटू करीबन छ साल की...। गर्मियों के दिन थे और शहर में हर साल की तरह भरपूर बिजली कटौती...। घर में तब एक ही इन्वर्टर हुआ करता था और वो भी कई बार चार्ज़ नहीं हो पाता था...। ऐसे में अगर शाम को या रात के वक़्त बिजली गई नहीं कि मुसीबत...। एक तो गर्मी...ऊपर से अँधेरे में चुनमुन और टीटू की धमाचौकड़ी...। इन दोनो की बदमाशियाँ भी कोई मामूली नहीं होती थी, बल्कि हम सब का यही मानना था (और आज भी है) कि चुनमुन को विभिन्न प्रकार से शरारतें कैसे करते हैं, इसका दिव्य-ज्ञान टीटू से मिला था...। ख़ैर, बात गर्मियों की बिजली कटौती की हो रही थी। दिन तो जैसे-तैसे कट जाता था, पर रात में एक तो सारा काम-धन्धा बहुत अटक जाता था, उस पर थोड़ी- सी बोरियत भी...। ऐसे समय में दिन भर का थका-हारा शरीर आराम भी माँगता था;लेकिन दोनो बच्चे मेरे ही आसपास रहते थे, इसलिए मैं आराम कर पाऊँ, यह असम्भव का दूसरा नाम था।
        कुछ देर तो दोनो बच्चे अपनी शरारतों में मस्त रहते, पर जैसे-जैसे लाइट आने में देर होती...बच्चे, खास तौर से टीटू, बेसब्र होने लगती। उसके सौ मर्ज़ों की एक दवा...हज़ार सवालों का एक जवाब...उसकी चाची...यानी कि मैं...। हर शैतानी आजमाने के बाद ऊबकर वे दोनो मेरे पास आते...। सवाल टीटू ही दागती...चाची, लाइट कब आएगी...?
        अब इस शहर में बिजली कब आएगी, कब जाएगी...ये तो  किसी को भी नहीं पता, तो भला मेरी क्या बिसात थी? शुरू में तो मैं...पता नहीं बेटू...कह कर चुप रह जाती थी, पर अचानक ही एक दिन मुझे एक उपाय सूझा। अगली बार जब टीटू और चुनमुन अपने भोले-भाले मुखड़े पर ये सवाल चिपकाए हुए मेरे सामने प्रस्तुत हुए, मैने बड़े आत्मविश्वास से उनसे कहा...लाइट बुलानी है न...? तो आओ, दोनो मेरे पास चुपचाप लेट जाओ...। न तो उठना है, न कुछ बोलना है। देखना, अभी लाइट आ जाएगी...।

मैने अपने पूरे जीवन में दोनो बच्चों को इतना आज्ञाकारी कभी नहीं देखा, जितना उस पल हो जाते थे। दोनो चटपट मेरे दोनो ओर लेट जाते थे। लेटने से पहले टीटू की चुनमुन को सख़्त ताकीद होती थी...चुनमुन, बिल्कुल चुप रहना है...ठीक...? नहीं तो मैं खेलूँगी नहीं...। चुनमुन जी एक बार मेरी अवज्ञा कर सकते थे, पर टीटू की हर बात सिर-माथे...। पहली बार तो मैने कुछ पल के चैन की खातिर यह बात यूँ ही कह दी थी, पर जब तक ये दोनो नासमझ रहे...और जब तक उन्हें कुछ देर शान्ति से लिटा पाने की मेरी यह कोशिश कामयाब होती रही...तब तक मेरे कहे हुए दस मिनट बीतते-बीतते हमेशा लाइट कैसे आती रही, आज तक यह बात मेरे लिए रहस्य ही है।
        आज दोनो बच्चे समझदारी की दहलीज़ पर आ चुके हैं और दोनो को यह बात बहुत अच्छी तरह याद भी है। आज भी कभी ज़िक्र चलने पर दोनो अपनी ऐसी बेवकूफ़ी पर दिल खोल कर हँसते हैं...पर मेरा सवाल अभी भी वैसे ही अनुत्तरित है...।
        क्या यह बच्चों का मेरे ऊपर वह मासूम विश्वास, मेरी बातों पर उनका अटल भरोसा ही था जो रोशनी बनकर सब कुछ उजियारा कर देता था...?
        विश्वास तेरा
        किसी दिये सरीखा
        राह दिखाता ।

15 टिप्‍पणियां:

  1. sundr prastuti haaiban ki .
    bhaavon kaa dipak anubhavon kaa ujaas prakashit kar raha hae .

    badhai प्रियंका गुप्ता

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  2. बढ़िया हाइगा....बधाई प्रियंका जी!

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  3. सही है...प्रियंका ने लिखा तो हमें भी याद आया...बच्चों को हम भी यही कहते और ईश्वर हमारी बात रख लेते थे...
    बड़े अचेछे हाइबन बने हैं...बधाई प्रियंका को!

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  4. अच्छा लेख! बच्चों की तरह सरल तथा मासूमियत से भरा।

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  5. अच्छा लेख! बच्चों की तरह सरल तथा मासूमियत से भरा।

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  6. मासूम विश्वास को शायद ईश्वर भी नहीं तोड़ना चाहते होंगे !
    बहुत रोचक हाइबन... प्रियंका जी! बहुत बधाई आपको!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  7. प्रियंका जी आप का हाइबन रौशनी यह हाइबन सच में एक रौशनी है उस सर्वशक्ति मान पर विश्वास की। विश्वास ईश्वर का ही तो रूप है ।पावर कट वालों की क्या बिसात जो बिजली न भेजते ईश्वर की न सुनते ।बहुत सुन्दर लिखा बच्चों की मासूमियत पर रोशनी डालता ।हार्दिक वधाई।

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