सोमवार, 16 मई 2016

703

कृष्णा वर्मा
1
ढले जो दिन
दबे पाँव उतरे
साँवरी  सां
सलेटी यादों की
खोलती गाँठ
आ लिपटें मन से
बरखा में ज्यों
बिजली गगन से
मन के घन
यादें घनघनाएँ
पिघले पीड़ा
अखियाँ बरसाएँ
ज्यों-ज्यों शाम
ओढ़ती जाए रात
तर्रार होती
जाए स्मृति- बौछार
साँझ निगोड़ी
काहे करे हैरान
सुलगा जाए
फिर बुझी राख में
क्यों यादों वाली आँच।
2
छाने लगे जो
मन -आकाश पर
भावों के मेघ
झरने लगती हैं
चिंतन -बूँदें
जोतने लगती है
कलम नोक
कोरे काग़ज़ी खेत
अँकुरा जाते
संवेदना के बीज
उग आती हैं
शब्दों की फुलवारी
महक उठें
गीत ग़ज़ल छंद
मौलिक फ़नकारी।
3
साँझ के गाल
लगा जो रंग लाल
सूर्य घोड़ों की
हुई मध्यम चाल
उतरा सिंधु
रवि करने स्नान
मौन हो धूप
रोए है ज़ार-ज़ार
बालू में खिंडी
जो रंगों की डलिया
बंसी में फूँके
सुर कोई छलिया
खड़ा सुदूर
चन्द्रमा मुस्कुराए
रात के पल्लू
तारे टिमटिमाए
रात उचक
देखे भीगे नज़ारे
लहरों की पीठ पे
झूलें सितारे
आ बैठा चाँद
बरगद की डाल
हौले-हौले से
उतरी जो चाँदनी
भीगा ख़ुमार
रात की रानी जगी
महका प्यार
जुन्हाई में नहाई
सगरी कायनात।
-0-


5 टिप्‍पणियां:

  1. फिर बुझी राख में
    क्यों यादों वाली आँच।

    1 , ३ में शाम का मनोहारी चित्रण
    २ मन के भावों की सुंदर प्रस्तुति
    बधाई कृष्णा जी अनवरत चलती कलम के लिए

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  2. सुन्दर सृजन है कृष्णा जी हार्दिक बधाई । आपकी लेखनी यूँ ही चलती रहे शुभकामनाएं ।

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  3. बहुत सुंदर रचनाएँ दीदी ! मन के घन , शब्दों की फुलवारी , साँझ के गाल ...सभी मोहक ! हार्दिक बधाई !!

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  4. साँवरी सांझ
    सलेटी यादों की
    खोलती गाँठ
    बहुत प्यारा !
    बहुत सुन्दर सृजन सभी मोहक ! हार्दिक बधाई कृष्णा जी !!

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