शनिवार, 22 जुलाई 2017

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कृष्णा वर्मा

शब्द कमाल
हिलें ना डुलें पर
चलते ऐसी चाल
बे हथियार
सहज कर देते
जुदा रिश्तों से प्यार।

मरी है शर्म
कैसे करें बयान
सूखा आँख का पानी
ढोएं माँ-बाप
ज़िम्मेदारियों का बोझ
च्चों  की मनमानी।

कैसा ज़माना
बदले हैं अपने
मरे हैं अहसास
पीड़ा ना दर्द
रिश्तों की टूटन क्यों
चुभती नहीं आज।

होंठों पे ताला
घुटा-घुटा जीवन
जीता आज ज़माना
पहचाना भी
लगे अब अंजाना
मन हुआ सयाना।

खोया है कहाँ
ढूँढें दिशा-देश में
अपना बचपन
जिस गली में
फुर्स जैसे  ऊँचे
थे अपने मकान।

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