गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

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डॉ. सुरंगमा यादव

  1.आसमान में सीढ़ी

 


महानगर के जंगल में, अपार्टमेंट्स रूपी वृक्षों पर फ्लैट के घोंसले में रहने को विवश आज का बचपन जमीन और आसमान दोनों  के सुख से वंचित-सा हो गया है. आज उसे वह अल्हड़ आनंद कहाँ, जो हमने आम-अमरूद के बाग में चुपके से कच्चे फल तोड़कर भागने में  पाया।  बरसात में कागज की नाव बनाने के लिए कापी के पेज फाड़ना,अमावस्या के गहरे काले अँधेरे को देखकर डरना और चाँदनी रात में उजाला होने के कारण भय कम लगना तथा रात में छत पर खुले आसमान के नीचे लेटकर चंद्रमा पर चरखा कातती बुढ़िया की कहानियाँ सुनने का सुख बचपन की अमूल्य निधि है।  आज के बच्चे फुल मून और न्यू मून बस किताबों में ही पढ़ते हैं, बिजली के प्रकाश से जगमगाते शहरों में उन्हें पता ही नहीं कि कब पूर्णिमा है और कब अमावस।  

उम्र के पहाड़ पर चढ़ते-चढ़ते मन जब-तब फिसलकर बचपन की ओर चला जाता है अतीत की ओर , ये फिसलन मन को गुदगुदा देती है।  आज भी जब मैं अपनी छत पर जाती हूँ और आसमान को देखती हूँ, तो बचपन की उस कल्पना को याद करके हँस पड़ती हूँ, जब मैं अकसर सोचा करती थी कि आसमान कितना ही ऊँचा क्यों न हो, यदि हम बहुत-सी सीढ़ियों को जोड़कर एक लम्बी-सी सीढ़ी बना लें, तो क्या आसमान तक नहीं पहुँच सकते।  माँ हँसकर कहती- "बेटा आसमान बहुत ऊँचा है; लेकिन  अपने कार्यों से हम आसमान की ऊँचाई पा  सकते हैं। ''  अबोध मन की यह कल्पना कहीं न कहीं मन के किसी कोने में आज भी पल रही है.

 किस्से-कहानी

चाँद-सितारे भूला

महानगर।

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2.परख

 चाचा जी के पहुँचने से पहले ही स्मृतियों ने आकर आतिथ्य ग्रहण कर लिया।  उस दिन चाचा जी की छोटी बेटी की शादी थी।  चाचा जी बिटिया की शादी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे।  बारात के  स्वागत सत्कार से लेकर दान-दहेज सब सामर्थ्य से बढ़कर दिया।  इस खुशी के मौके पर भी किसी पुरानी चोट की तरह टीस लहर मार देती थी,जो उनकी बातों और चेहरे से साफ झलकती थी।  रोबीला चेहरा,घनी मूँछें सामने वाले को प्रभावित करने वाली थीं।  वे अकसर कहा करते थे-‘‘बच्चों को अच्छे संस्कार देना चाहिए।  हमारी तो दोनों बेटियाँ सुशील और संस्कारी हैं’’ यह कहते-  कहते  उनका हाथ मूँछों पर चला जाता; लेकिन जब उनकी अपनी बनायी कसौटी पर संस्कार परखने की बारी आ,तो उन्हें गहरा धक्का लगा।  मूँछों का ताव और युवावस्था की हठ दोनों आमने-सामने थीं।  अंततः दोनों ने एक-दूसरे को अस्वीकार कर दिया।  धीरे-धीरे वक्त बीतता गया।  एक दिन  बूढ़ा शरीर बीमारी की गिरफ्त में आ गया।  सूचना मिलते ही छोटी बेटी और दामाद आ गए; लेकिन यह क्या, जो दामाद कई-कई दिन रुककर आवभगत कराता था,दूसरे ही दिन जाने को तैयार हो गया।  बेटी ने किनारे ले जाकर उसे समझाना चाहा, तो जवाब में उसके दो टूक शब्द उनके कानों में चुभने लगे-‘‘जिस लड़की के भाई ना हो,उससे शादी इसीलिए नहीं करना चाहिए, बुढ़ापे में बुड्ढे-बुढ़िया की देखभाल का झंझट रहता है।  वो तो इतना दहेज ना मिला होता, तो मैं भी कभी नहीं करता।  यहाँ अस्पताल में मेरा दम घुटता है।  मैं नहीं रुक सकता। ’’

चाचा जी समझ चुके थे ,उनकी पारखी आँखों ने धोखा खाया है।  पाँच साल पहले जब बड़ी बेटी ने कोर्ट मैरिज की, तभी से उन्होंने उससे अपना रिश्ता खत्म कर लिया।  पिता की बीमारी का पता पाते ही वह अपने पति व चार साल के बेटे के साथ भय,चिंता और संकोच का दामन थामे पिता के सामने थी।  बड़े दामाद ने अस्पताल में रहकर रात-दिन उनकी सेवा की।  उसका सेवा भाव देखकर उनकी आँखें लगातार चुपचाप उसके प्रति अपने मन में जमे मैल की पर्त धो रही थीं।  वह मन ही मन कह रहे थे-इसे कहते हैं संस्कार।

      अस्पताल से डिस्चार्ज होते समय नर्स ने कहा- ‘‘आपके बेटे ने आपकी बहुत सेवा की,आप बहुत भाग्यशाली हैं।  रुँधे गले से वे इतना ही कह पा‘‘यह बेटा मैंने अपनी बेटी की बदौलत पाया है। ’’

 वक़्त जो पड़ा

कितने मुखौटों से

 परदा हटा।

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3.आँधियाँ/ डॉ. सुरंगमा यादव

 आँधियाँ जब आती हैं, तो सभी पेड़ों को झंझोड़ती हैं,कुछ आँधियों की धक्का-मुक्की सह नहीं पाते और गिर जाते हैं । कुछ बिना विचलित हुए आँधियों का सामना करते हैं और अपने अस्तित्व को बचा लेते हैं। दुःख किसी न किसी रूप में सभी के जीवन में आता है,जो साहसी होते हैं दुःख की ज्वाला में तपकर और निखर जाते हैं। कुछ ऐसे ही विचारों से अपने मन को रीचार्ज करते हुए वह जैसे निश्चय कर रही थी कि ऐसे संबंध जो जीवन को दुष्कर बना दें, उन्हें ढोना क्या ईश्वर प्रदत्त  अनमोल जीवन के साथ न्याय है? नहीं कदापि नहीं।  जब स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर हो जायें तो क्लेश सहने से क्या लाभ? समाज में ऐसी बहुत -सी महिलाएँ हैं जिन्होंने कष्टकारी स्थितियों का सामना किया है या कर रही हैं।   इनमें कई ऐसी भी हैं जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में बड़े धैर्य से काम लेकर स्वयं को स्थापित किया। हमें दूर जाने की जरूरत नहीं है, अपने नजदीक ही हम ऐसा उदाहरण देख सकते हैं ,जो न कभी संकटों से घबरायीं न आशा का दामन छोड़ा और आज वह मान-प्रतिष्ठा व स्थान उन्हें प्राप्त है जिस पर कोई भी गर्व कर सकता है। यही सोचते हुए वह अपने मुकदमें की तारीख पर कोर्ट के लिए निकल पड़ती है।

वृक्ष हैं वही

जो तूफानों से लड़े

आज हैं खड़े।

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15 टिप्‍पणियां:

  1. डाॅक्टर सुरंगमा यादव जी के तीनों हाइबन बहुत सुन्दर, भावनापूर्ण, बीते पलों की सुरम्य तस्वीर के साथ मिलकर आनंद प्रदान करते हैं । हाइकु भी सटीक व सुंदर है । हार्दिक बधाई।

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  2. उत्कृष्ट विचार एवं स्मृति में अतीत... दोनों ही प्रशंसनीय हैं.. 🌹सुंदर सृजन... 🌹🙏🏻

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  3. सुंदर सार्थक लेखन सुरंगमा जी। दृश्य मन में छप गए। बधाई आपको।

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  4. बेहतरीन हाइबन, संग्रह की ओर बढिए-शुभकामनाएँ।

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  5. सुरंगमा जी तीनों हाइबन भाषा एवं भाव की दृष्टि से बहुत ही सुंदर हैं। उत्कृष्ट सृजन के लिए हार्दिक बधाई ।सुदर्शन रत्नाकर

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  6. तीनों ही हाइबन बहुत सुंदर हैं सुरंगमा जी बधाई

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  7. तीनों हाइबन बहुत सुन्दर, भावपूर्ण ...हार्दिक बधाई सुरंगमा जी।

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  8. महानगर में अपना अतीत तलाशते लोग, रिश्तों का गणित और स्त्री -संघर्ष जैसी तीन अलग-अलग भावभूमियों को चित्रित करते तीन महत्त्वपूर्ण हाइबन। तीनों उत्कृष्ट और प्रभावी। डॉ. सुरंगमा जी को हार्दिक बधाई।

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  9. वाह।
    तीनों हाइबन बहुत सुंदर और भावपूर्ण।
    हार्दिक बधाई आदरणीया सुरंगमा दीदी को

    सादर

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  10. रश्मि विभा त्रिपाठी28 फ़रवरी 2025 को 5:13 am बजे

    तीनों हाइबन बहुत सुंदर और भावपूर्ण।
    हार्दिक बधाई आदरणीया सुरंगमा दीदी को।

    सादर

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  11. आदरणीया🌷🙏🏽
    बहुत भावपूर्ण एवं मर्मस्पर्शी। हार्दिक बधाई :
    - मेरे मन के किसी कोने में एक मासूम सा बच्चा
    - बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है

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  12. शानदार हाइबुन। एक नया आयाम पता चला हाइबुन लिखने का

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  13. बहुत अच्छे हैं , हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

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  14. वाह! एक से बढ़कर एक हाइबन , आनन्द आ गया!

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  15. वाह! सभी हाइबन एक से बढ़कर एक! मन को छू गए!

    ~सादर
    अनिता ललित

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