रविवार, 16 अक्टूबर 2011

चाँद तराशा



सुप्रीत कौर सन्धु
1
तारे बिखरे 
जब चाँद तराशा 
ज्यों हीरे मोती
टूटकर बिखरे
टिम-टिम करते 
2
सिर झुकाए
लाल फूल लगाए 
ख्यालों में खोई 
वहाँ खड़ी देखूँ मैं 
बरसात बारूदी 
3
गर्म हवाएँ
हमको यूँ सताएँ 
गर्मी की रातें 
मच्छर तान छेड़ें 
सारी रात जगाएँ 
-0-

6 टिप्‍पणियां:

  1. बेटी सुप्रीत आपके तीनों ताँका बहुत अच्छे हैं । बहुत बधाई !1

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  2. kya baat hai beta aapto bahut hi pyara likhte ho barudi barish sunder prayog hai .beta aap ki soch to kamal hai
    sada khush raho
    sneh
    maousi (rachana)

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  3. सुप्रीत, आपने बहुत अच्छा लिखा है बेटा|पढ़ाई के साथ-साथ इस कला को भी विकसित कीजिए और सफलता की ओर बढ़ते रहिए|आपको मेरा बहुत सारा स्नेहाशीष|

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  4. kya baat hai beta choti si umar main itana gahra sochte ho. bahut hi achcha likha hai.aise hi sunder aur gahra likhate raho.
    amita

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  5. आप सभी को सुप्रीत का प्रयास अच्छा लगा , नन्ही की तरफ से मैं आप सब का शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ | जब लिखती है तो कहती है कि मम्मा आपके आईड़ीआस पुराने हैं मै कुछ और ढंग से सोचती हूँ ..जैसे ....आप सब को चाँद गोल दिखाई देता है ..लेकिन यह गोल कैसे बना ...तराशा होगा तो ...तारे बने होंगे |
    आप सभी के आशीर्वाद से कुछ और नया लिखने का प्रयास करेगी |
    आभार !
    हरदीप

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  6. “सुन्दर भाव
    खूबसूरत शब्द
    प्रभावकारी
    दिल में उतरते
    अपने से ख़याल.”

    सादर बधाई...

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