मंगलवार, 25 जून 2013

टूटे पहाड़


सुदर्शन रत्नाकर

काली थी रात
हुई जो बरसात
निगल गई
सूनी हुईं वादियाँ
टूटे पहाड़
उफनती नदियाँ
बहा ले गईं
जहाँ मौत थी खड़ी
बाँहें पसारे
कितनी भयावह !
अपने छूटे
नज़रों के सामने
बहते
कैसी आपदा
सूझता नहीं रास्ता
किसे पुकारें ?
जीवन जहाँ कल
अगले पल
पसरा है सन्नाटा
आँखें खोजतीं
लहरों की गोद में
छूटे जो साथी
चेत जाओ मानव !
प्रकृति देती
छेड़छाड़ करो तो
 वू ले भी लेती
कैसा है ज़लज़ला
ले गया ज़िंदगियाँ   ।
-0-


9 टिप्‍पणियां:

  1. prakiti ke prakop ka spasht chitran bahut sundar, dukhad hai.
    Pushpa mehra

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  2. बहुत मार्मिक चोका....बधाई!

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  3. बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...

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  4. जीवन जहाँ कल
    अगले पल
    पसरा है सन्नाटा
    आँखें खोजतीं
    लहरों की गोद में
    छूटे जो साथी ।

    हर पल.. हर बूँद.. अब बस याद दिलायेंगी.. कोई जो अपना था.. !

    गहरे दर्द की गवाही देती मार्मिक रचना.. !

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  5. सचेत करती ...मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति !
    सादर
    ज्योत्स्ना शर्मा

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  6. उफ़...बहुत सजीव चित्रण...| मन को बहुत गहरे से छू गया...|

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