रविवार, 28 सितंबर 2014

पाथर–पंख



डॉ सुधा गुप्ता के तीन हाइबन
1-पाथरपंख
चाहत तो दे दी उड़ने की इतनी कि ओर न छोर आकाश नाप डालूँ, पृथिवी की परिक्रमा कर डालूँ, हर  फूलपत्ती से दोस्ती कर लूँ, दुनिया के हर रोते बच्चे को गले लगा कर उसके आँसू पोंछ दूँ.... आज तक धरती पर लिखीअनलिखी सारी
कविताएँ पढ़ डालूँ ....
कन्धों से बाँध दिये एक जोड़ी पाथरपंख! गले में डाल दिया चक्की का पाट.... पैरों में डाल दीं लोहे की बेडि़याँ....
वाह रे ऊपर वाले! तू भी बड़ा मज़ाकपसन्द है! नित नए कौतुक करना तेरी फ़ितरत में शामिल!
·       आग का प्याला
                धरती के  होठों से
               लगाके  हँसा
·       उस आग को
                 धरती तो पी गई
                तू  ख़ुद जला!
                (1993)
-0-
2- पोशाक
अचानक मोटीमोटी बूँदें आईं और तड़ातड़ बरस पड़ीं। सब हरकत में आ गए। कोई सूखने को फैलाए कपड़े बटोर रहा था, कोई मिर्चमसालों की थालियाँ उठा रहा था, कोई कुछ और।
....फिर बारिश तेज़ हो गई, सब अपनेअपने शरण स्थलों में छिप गए।
बेचारी मासूम फ़ाख़्ता को न सँभलने का मौका मिला, न सिर छिपाने की जगह....
कई घण्टे बाद जब बाहर बारामदे में आई तो करुणा से भीग उठा मन! सहमीसिकुड़ी, भीगी पाँखों का सारा भारीपन समेटे बैठी थी वही  फ़ाख़्ता सामने के पेड़ की डाली पर.... अरी, तू पूरी बारिश में भीगती रही थी क्या? घने पत्तों ने भी आसरा न दिया? कुछ न बोली। उसके भीगे डैनों और भारी पंखों ने ही कहा
·       तेरी तरह
                कई जोड़ी पोशाक
               नहीं हैं यहाँ।
·       पंछी के पास
                बस, एक पोशाक
               गीली या सूखी।
                                (2008)
-0-
3. पुकार...
आज भोर में आँख खुल गई, घड़ी पर नज़र फेंकी पौने चार....
        अचानक जाग उठने का कारण भी अगले पल समझ में आ गया बाहर के किसी पेड़ पर कोकिल लगातार कूक रहा थाबिना रुके, अविराम बिना साँस लिये। ऐसा बेचैन, इतना विकल कि कुछ कहा न जाए.... कैसी तो यह पुकार है....
        हमारे रीतिकालीन कवियों ने तो कोकिल को कोसने में ग्रन्थ के ग्रन्थ रच डाले हैं तरहतरह के उपालम्भ और अभियोग–‘भरी कोयलिया, तू कूककूक कर बिरहन का करेजा काढ़े डाल रही है आदि इत्यादि उक्तियों से भरा पड़ा है उत्तरकालीन भक्ति काव्य : रीति काव्य!
        किन्तु मुझे तो कोकिल की बेचैन अवाज़ें सुन कर प्राय: लगता है कि कोकिल की कूक स्वयं में इतनी पीड़ा, ऐसी विह्वल आतुरता लिये होती है कि वह क्या तो दूसरों को विकल करे, उसे अपनी ही छटपटाहट से होश नहीं! आज भी कोकिल की अनवरत पुकारों ने अपनी बेचैनी से मुझे नींद से उठकर अपने
आकुल अधीर जगत् में खींच लिया है....
·       कोकिलव्यथा
                जग न जानाबूझा
                विलाप वृथा!!
        (  प्रकाशनाधीन  संग्रह सफ़र में छाले हैं से साभार !)

11 टिप्‍पणियां:

  1. वाह! वाह! क्या कहें! कुछ कहने के लिए शब्द ही नहीं मिल रहे ! सुधा दीदी जी , इतनी स्वाभाविक, मार्मिक घटनाएँ हाइबन के रूप में पढ़कर एक अजीब सी तृप्ति का एहसास हुआ। दिल को इतने हल्के से जैसे किसी ने छू भी लिया और विह्वल भी कर दिया !
    उत्कृष्ट अभिव्यक्ति !
    नमन आपको व आपकी लेखनी को !

    ~सादर
    अनिता ललित

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  2. निशब्द कर दिया इस उत्कृष्ट प्रस्तुति ने |कहाँ तो कोयल की कूक में छिपी व्यथा,पंछी का बारिश में असहाय भीगना और धरती का सारा का सारा ताप पी जाना--- ऐसी अनुभूति तो कोई कोमल ह्रदय ही कर सकता है | आदरणीय सुधा जी की लेखनी को नमन |

    शशि पाधा

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  3. एक साथ तीन-तीन हाइबन...और वो भी सुधा जी की सशक्त कलम से...ये तो उम्मीद से दुगुना नहीं...उम्मीद से तिगुना मिला है...| बहुत आभार और बधाई...|

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  4. अति सुन्दर हाइबन । अत्युत्तम अनुभूति !
    आपको, आपकी लेखनी को सादर नमन ।

    कृष्णा वर्मा

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  5. सुधाजी आपकी लेखनी को प्रणाम. कितनी मर्म स्पर्शी हैं ये रचनाएं,देखते ही बनाता है. बधाई. -सुरेन्द्र वर्मा.

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  6. सुधा दी को नमन...
    भावप्रवण हाइकु दिल को छूते हुए,
    कोयल -फा़ख़्ता के बिम्ब बहुत प्रभावशाली...सादर बधाई !!

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  7. तीनों हाइबन अनुपम हैं ...कोमल मन की सुन्दर निर्मल भावनाओं की बहुत सुन्दर , प्रभावी अभिव्यक्ति ...दिल से निकल कर दिल तक जाती ...साक्षात सहृदय कविता !!!!
    नमन दीदी ...शुभाशीष रखिये हम पर !

    सादर
    ज्योत्स्ना शर्मा

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  8. भाव-गंगा चाहे गद्‍य में हो या पद्‍य में सुधा दी को पढ़ना सदा ही आनंददायी और प्रेरक होता है।
    साधुवाद !

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  9. SUDHA JI KI HAR VIDHA SE SUDHA CHALAKTI HAI ....AAPKO PADHNA HAMARA SAUBHAGY HAI...UTKRISHT RACHNAO KE SAATH -SAATH AAPKO SADAR NAMAN...

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