शनिवार, 17 सितंबर 2016

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ताँका
सुदर्शन रत्नाकर
1
कहाँ जाते हो
साँझ होते ढलते
किरणों संग
शिशु बन आते हो
विहान -रथ पर ।
2
स्पर्श मात्र से
जगती है चेतना
कण -कण में
आभा जब फैलाती
सुनहरी किरणें।
3
छोड़ो भी अब
नफ़रत की बातें
उगा फ़सलें
ह्रदय में प्यार की
नूतन विचार की।
4
छोड़ो भी क्रोध
बेटी नहीं है बोझ
शोभा घर की
महकता वो फूल
नहीं पाँव की धूल
-0-
सुदर्शन रत्नाकर - ई-29, नेहरू ग्राऊण्ड, फ़रीदाबाद 121001
-0-
बेनाम- सा ये दर्द...
प्रियंका गुप्ता

अभी क्या उम्र ही थी उसकी...मात्र अठ्ठारह साल ही न...? उन्नीसवें में कदम रखे बस चन्द महीने ही तो गुज़रे थे और वो विवाह की वेदी पर बिठा दी गई...। कुँवारी आँखों ने अभी तो कुछ सुनहरे ख़्वाब देखने शुरू ही किए थे कि माँ की अचानक उभरी बरसों पुरानी बीमारी की तीव्रता ने उन्हें जल्द-से-जल्द कलौती बेटी के हाथ पीले कर देने की हड़बड़ी में डाल दिया । अगर अचानक उन्हें कुछ हो गय़ा तो इस मासूम का क्या होगा, दिन-रात बस यही चिन्ता उन्हें खाने लगी थी, जिसकी वजह से रहते-रहते उनकी बीमारी और भी ज़ोर पकड़ लेती थी।

माँ के पति यानी बेटी के पिता अगर इस भरोसे के क़ाबिल होते कि वे उनके न रहने पर बेटी को सकुशल उसकी ज़िन्दगी की एक सही राह पर पहुँचा आएँगे ,तो भी माँ को इतनी जल्दी न होती । पर यहाँ तो मामला ही उल्टा था । बेटी को जितना दुनिया की बुराई से बचाना था, उससे ज़्यादा ख़तरा घर में बैठे उस पिता-रूपी दानव से था...। चरित्रहीनता की पराकाष्ठा तक पहुँचा वह व्यक्ति इन्सान कहला जाने के योग्य है भी, अक्सर वे माँ-बेटी इस बात पर भी मनन करने लग जातीं, पर कहतीं भी तो किससे...? ऐसा कौन था जो इस इन्सानी खोल में छिपे रंगे सियार को पहचान पाता...? इससे भी बड़ा सवाल यह था कि जो लोग उसकी सच्चाई से वाकिफ़ भी थे, उनकी ज़िद और परामर्श भी यही थे कि समाज द्वारा बाँधा गया शादी का यह अटूट बन्धन ऐसे तोड़ा नहीं करते, भले ही उससे लड़ते-लड़ते एक दिन खुद की साँस और आस दोनो का बन्धन ही टूट क्यों न जाए...?
यही कारण था कि बेटी के अपने कैरियर की राह में अपना पहला कदम बढ़ाने के साथ-साथ माँ ने यह कहते हुए उसे सामने आए सबसे योग्य लड़के के साथ बाँध दिया कि मेरे जीते-जी तुम सुरक्षित इस घर से निकल भर जाओ ; ताकि अगर दुर्भाग्य से मुझे कुछ हो भी जाए तो मैं इस शान्ति को अपने दिल में रख पाऊँ कि मेरी बेटी हर तरह से मेरे सामने ही सुखी-सुरक्षित है...। बेटी भी मान गई...। उसने तो सारी बात तय करते समय माँ से बस इतनी सी शर्त रखी थी न कि भले ही वह उसे एक साधारण शक़्ल-सूरत वाले, किसी मामूली आय वाले से उसे ब्याह दे, पर उसका चरित्र पिता जैसा हरगिज़ न हो...। माँ भी उसकी बात मान गई थी...। मज़े की बात यह हुई कि माँ-बेटी एक-दूसरे की बात मान गए ,पर ऊपर बैठे उस सर्वशक्तिमान को उनकी बातों पर बेहद हँसी आई...। हँसते-हँसते, बस मज़ाक में विधाता ने बेटी के भाग्य की लकीरें खींच दीं...।
बेटी को विदा करने के साथ ही माँ ने राहत की साँस लेते हुए अपनी बीमारी को भी बहुत हद तक अपने से परे धकेल दिया...। बेटी खुश थी कि उसकी शादी से कुछ और अच्छा हुआ हो न हुआ हो, माँ अपनी उस भीषण शारीरिक तक़लीफ़ से तो आज़ाद हो गई...। पर विदाई के मात्र चन्द घण्टों के भीतर ही बेटी जान गई थी, पति और पिता में सिर्फ़ नाममात्र की मात्राओं का फ़र्क ही नहीं था, बल्कि स्वभाव और चरित्र में भी मात्र कुछ बारीक़ -सा ही अन्तर था...। बेटी बहुत रोई...शिकायतें की माँ से...कभी तुमसे कोई ज़िद भी तो नहीं करती थी न माँ,  कुछ माँगते हुए भी सौ बार झिझका करती थी न...बस एक चीज़ मुँह खोल कर माँगी, वह भी न दी गई तुमसे...?

माँ भी रोई...भाग्य को कोसा...बेटी को गले लगा सान्त्वना देती हुई अनजाने ही समाज की पिलाई घुट्टी घूँट-घूँट उसके गले उतारने लगी...। बेटी भी माँ की मजबूरी समझती थी, सो हलाहल पी गई...। पर आँखों के सामने जाने कैसे शिव की वही मूरत आ गई, जिसके सामने शादी तक वह रोज़ नियम से अगरबत्ती जलाया करती थी...। नहीं...! विष पिया तो क्या, वह उसे को गले से नीचे नहीं उतरने देगी...। भाग्य ने अगर विषधर उसके गले में लपेटे हैं ,तो उन्हें वह अपने आभूषण बना लेगी...। दुनिया से लड़ने के लिए अगर उसे अपने आराध्य की तरह रुद्रावतार भी लेना पड़े ,तो वो भी सही...। अधिक से अधिक क्या होगा...? शिव को भी तो अघौरी कह कर दुनिया ने हाशिये पर करने की कोशिश की थी न, पर वो कितनों के आराध्य भी तो हुए न...? उसे भी अब शिव ही बनना होगा...भाग्य को अपने कर्मों से बदल कर मुठ्ठी में करना ही होगा...।
बेटी को अपने जीवन की सही राह आखिरकार मिल ही गई थी...। ऊपर बैठा विधाता भी शायद अब एक सन्तोष भरी मुस्कान मुस्काता होगा, बेटी को इस बात का पूरा यक़ीन है...।
आसान नहीं
शिव हो विष पीना
अमृत देना ।
-0-

17 टिप्‍पणियां:

  1. सुदर्शना जी बहुत सुंदर ताँका

    प्रियंका जी ह्रदयस्पर्शी कहानी

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  2. सुदर्शन जी सभी ताँका एक से बढ़कर एक हैं बधाई लें ।
    बेनाम -सा ये दर्द ,बहुत मर्मस्पर्शी । हाइबन सी लगी ।साथ में हाइकु भी सटीक । बधाई ।

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  3. सुदर्शन जी सभी ताँका एक से बढ़कर एक हैं बधाई लें ।
    बेनाम -सा ये दर्द ,बहुत मर्मस्पर्शी । हाइबन सी लगी ।साथ में हाइकु भी सटीक । बधाई ।

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  4. sudarshan ji bahut koob tanka badhai
    priyanka ji dard bhara haiban sunder haiku ke sath khoob likha hai aapne badhai
    rachana

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  5. सुद्रशन जी ताँका बहुत अच्छे लगे । खास कर छोड़ो भी क्रोध बेटी नहीं बोझ ... बधाई ।
    प्रियंका जी आप के हाइबन को पढ़कर भाग्यविधाता के कार्यों के प्रति मन अक्रोश से भर गया ।क्यों वह भी बेटी का भाग्य हँसी खेल समझ कुछ का कुछ लिख देता है । संसार तो बेटी को दुख देने का ठेका लेकर बैठा है जैसे । प्रभु को तो करूणा से काम लेना चाहिये । बहुत मार्मिक हाइबन है । किसी की भी बेटी का ऐसा भाग्य न हो जिसे शिव की तरह नील कंठ बनना पड़े । इस बेनाम से दर्द को कोई नहीं समझ सकता । बहुत मार्मिक हाइबन है । आप के हृदय की करूणा ने यह हाइबन लिख कर उस बेटी के प्रति जो संवेदना दिखाई है ।बहुत भावपूर्ण है ।बधाई ।

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  6. आप सभी के उत्साहपूर्ण कमेन्ट के लिए तहे दिल से शुक्रिया...| कमला जी, विधाता कभी कभी जाने क्या सोचता है किसी का भाग्य लिखते समय, पर जब भी इस हाइबन में मौजूद उस लडकी की ज़िंदगी देखती हूँ तो लगता है, शायद विधाता इतनी नाजुक सी लडकी को फौलाद बनते देखना चाहता रहा होगा| शायद इसी वजह से संघर्षों की आंच में पकने के लिए उसे डाल दिया होगा...| पर जो भी है, अपने तरीके से...अपने हिसाब से मन की खुशी और संतोष वह खोज चुकी है...|

    सुदर्शन जी, बेटी के होने पर क्रोध करने वालों पर मुझे गुस्सा भी आता है और तरस भी...| ऐसे नासमझ होते हैं वे लोग कि उन्हें ऐसे समझाना पड़ता है...
    छोड़ो भी क्रोध
    बेटी नहीं है बोझ
    शोभा घर की
    महकता वो फूल
    नहीं पाँव की धूल |
    बहुत अच्छे तांका हैं आपके...| बधाई...|

    आदरणीय काम्बोज जी और हरदीप जी ने मेरे हाइबन को यहाँ प्रस्तुत करके एक बार फिर हमेशा की तरह मेरा उत्साह बढाया है...| अपनों को आभार नहीं कहते, पर फिर भर्र मैं कह रही...|

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  7. आ.सुदर्शन जी..नमन
    बेटी सच में बोझ नहीं हैं...खूबसूरत तांका रचनाएं

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  8. प्रियंका जी...क्या खूब लिखा है।...आसान नहीं,शिव हो विष पीना,अमृत देना...बेहतरीन

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  9. प्रियंका जी...क्या खूब लिखा है।...आसान नहीं,शिव हो विष पीना,अमृत देना...बेहतरीन

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  10. आ.सुदर्शन जी..नमन
    बेटी सच में बोझ नहीं हैं...खूबसूरत तांका रचनाएं

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  11. ताँका पसंद करने के लिए आप सब का हार्दिक आभार।

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  12. प्रियंकाजी मार्मिक हाइबन। सुंदर रचना के लिए बधाई।

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  13. आदरणीय सुदर्शन जी सभी ताँका एक से बढ़कर !
    प्रियंकाजी ह्रदयस्पर्शी हाइबन !.आसान नहीं,शिव हो विष पीना,अमृत देना...बहुत खूब !
    सुंदर रचना के लिए आप दोनों रचनाकारों को बहुत -बहुत बधाई !!!

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  14. सुदर्शन जी जीवनदाता सूर्य से मिली चेतना का गुणगान करते और जन-जन को विचारों की जड़ता छोड़ आगे बढ़कर बेटी को सहज भाव से स्वीकार करने का आवाहन करता ताँका बहुत सुंदर भाव लिए है,प्रियंका जी नर के वेश में घर में छिपे पिता जैसे दानव के पंजों से सदा सजग,फूँक-फूँक कर कदम रखने वाली बेटी जो उसके आचरण से घृणा कर सदा उससे बचती रही पर शादी के बाद जब पति को पिता जैसा ही पा आसमान से गिरे ख़जूर में अटके वाली कहावत उसके जीवन में चरितार्थ होने लगी तो मन की शक्ति उसका सहारा बनी, उसने जीवन की सारी विसंगतियों को शिव के समान ग्रहण किया भाग्य का विष समान कडवा सच जो उसके जीवन को समाप्त करना चाहता था उसे आगे ना बढ़ने देने की ठान बेपरवाह हो अपने जीवन में बुराइयों से किनारा करते हुए सत्कर्मों से अपनी राह बनाने वह स्वयं चल पड़ी और इस प्रकार उसने सिद्ध कर दिया कि मनुष्य अपने भाग्य का ख़ुद निर्माता है |बहुत सुंदर प्रेरणादायक हाइबन प्रेरणा जी बधाई ,सुदर्शन जी सुंदर ताँका हेतु बहुत-बहुत बधाई|
    पुष्पा मेहरा

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  15. सुदर्शन जी सभी ताँका बहुत बढ़िया!
    प्रियंका जी बहुत मर्मस्पर्शी हाइबन और लाजवाब हाइकु!
    आप दोनों रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

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  16. बहुत सुंदर ताँका सुदर्शन दीदी !
    मन को छूने वाला हाइबन प्रियंका जी !
    आप दोनों को हार्दिक बधाई !

    ~सादर
    अनिता ललित

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  17. प्यारे भाव लिए बहुत सुंदर ताँका दीदी ...हार्दिक बधाई !
    आसान नही ... मर्मस्पर्शी हाइबन प्रियंका जी !
    बहुत-बहुत बधाई !!

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