गुरुवार, 9 जनवरी 2020

898- विदाई

विदाई  -एक  हाइबन

दिल में बसीं यादें कहाँ से कहाँ ले जाती हैं । जब कहीं कुछ मिलता जुलता पढ़ने को मिलता है । मन कहीं से कहीं ले जाता है ।लोकगीत जुगनी की बातों ने मुझे भी अपने बचपन में देखी एक कन्या की विदाई की याद करा दी । उन दिनों लड़कियाँ जब चार पाँच क्लास पढ़ने के बाद स्कूल छुड़ाकर घर बिठा ली जाती थी ।और वह घर के काम -काज सीखने में जुट जाती थी ताकि सुसराल जाकर घर गृहस्थी को अच्छी तरह सँभाल सकें ।सीना पिरोना कसीदाकारी करना उन का मुख्य काम हो जाता था ।
उन्हीं दिनों सुना उस शहर की एक लड़की ने संस्कृत में एम ए किया है । तब उस की शादी हुई । मैंने अपनी उस छोटी उम्र में पहली कभी ऐसी किसी कन्या की विदाई  नहीं देखी थी , जो आँखों में बिना कोई आँसू लाए चुपचाप डोली में बैठ गई ।हम लड़कियाँ हैरानी से उसे जाते हुए देखती रह गईं ।ऐसे भी कोई विदा होकर जाता है ? तब तक जिस भी लड़की की विदाई देखी रो- रोकर लड़की का तो बुरा हाल होता ही था ,आस पड़ोस वालों के दिल भी द्रवित हो कर आँसू  बहाने लगते ।
अपने  चेहरे पर  कई  प्रश्न  को लिये हम घर लौट आईं । इसे शायद विवाह का ज्यादा ही इन्तजार रहा होगा तभी झट से डोली में बैठ गई  मुझे ऐसा लगा ;क्यों कि तब छोटी उम्र से ही लड़कियों को विवाह का इन्तजार रहता था ।अच्छे अच्छे गहने-कपड़े  का जो पहनने को मिलते थे । विवाह के बाद माँ के पास आती तो कई कई दिन सिर गुंदाकर , ठूठी फुल्ल सजाकर, मींढियाँ कराकर सखियों संग खेलती रहतीं । उनके लिए विवाह के मायने यही होते थे सजना -सँवरना । जब उन्हें पता चलता था अब हमेशा के लिए माँ का आँगन छूट जाएगा तब उन्हें सुध आती थी । बिना यत्न आँसुयों की झड़ी लग जाती थी ।

इस पढ़ी-लिखी बेटी की विदाई ने मुझे मेरे बड़े होने तक सोच में डुबोए रखा ।  मैं सोचती  रहती....
यह तो एक दिन होना ही है । माता पिता को दिल कड़ा करके अपनी लाडो को शादी करके विदा करना ही पडता है ।यह घर रखने वाली चीज़ तो है नहीं ।सदियों से यही परम्परा चली आ रही है ।हर माँ बाप को यह बिछोड़ा सहना पड़ता है ।बेटी भी जानती है ।

मेरी अपनी विदाई की बारी आई ,तो मेरी आँखें नम जरूर हुई पर आँसू नहीं निकले , क्योंकि मनको इस बात की तसल्ली थी कि मेरी बड़ी उम्र  में आकर विदा होने से  माँ- बाप के सिर से एक बेटी का बोझ कम हो जाएगा । मुझे इस एहसास ने थामें रखा ।बाद में माता- पिता के आँसू  काफी देर बहते रहे अपनी बड़ी लाडो को विदा करके । बहते ही हैं हर माँ- बाप की तरह । बड़ा मुश्किल है जिगरे के टुकड़े को पाल पोसकर पराये के पल्ले बाँध कर विदा करना ।

 मेरी बारी तो  मेरी आँखें नहीं भीगी ;लेकिन जब मेरी अपनी  बेटी की विदाई करने की बारी आई ,तो वह बाँध अपनी मर्यादा भूल गया । आँसू बिना प्रयास बरसने लगे । अपने कलेजे के टुकड़े को अनजानों के हवाले करना कैसा दुश्वार है  माँ का हृदय ही जान सकता है । समाज ने यह कैसी रीत बना दी ? बेटी को पाल-पोसकर हम कैसे चुप चाप दूसरों के हवाले कर देते हैं ।और सारी उम्र बेटी के लिये  सुख की कामना करते उसकी यादों में गुजार देते हैं ।और नैनों को बरसने से रोक ही नहीं पाते ।

करके दान
कलेजे का टुकड़ा
बरसे नैन ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. ये हाइबन मुझे भावुक कर गया। विदाई शब्द ही ऐसा है। विदा होना या विदा करना किसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता। मगर समय की नाज़ुकता उसे सिखाती है कि उस समय उस ने कैसे अपने आप को दूसरों के आगे पेश करना है। ज़रूरी नहीं होता कि विदाई के समय आँसू आँखों से हो बहे ये दिल से भी बह सकते हैं।  
    डा. हरदीप कौर सन्धु 

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  2. वाह, बहुत सुंदर व्याख्या है।

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  3. मन भावुक हो गया,बहुत सुन्दर लिखा है ।बधाई आपको ।

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  4. बहुत सुन्दर तथा भावपूर्ण रचना ... आपको हार्दिक बधाई कमला जी !

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  5. भीतर तक भिगो गया ये चोका! हर बेटी, हर माँ इस विदाई-बेला से ग़ुज़रती है और इसका दर्द समझती है।
    कमला जी, आप अब हमारे बीच नहीं हैं, मगर जाते-जाते आपने यह मार्मिक हाइबन रचकर हम सबको अलविदा कह दिया, हम सबकी आँखें नम कर दीं! ईश्वर आपको अपनी शरण मे रखे! ॐ शांति!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  6. बहुत ही सुंदर भाव पूर्ण ऑंखें नम करने वाला हाइबन है, कमला जी के सारे ही हाइबन बहुत सुंदर होते हैं उनकी लेखनी अमर है और रहेगी|

    पुष्पा मेहरा

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