रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
भरम हुआ
यह न जाने कैसे
दरक गया
है मन का दर्पन।
धुँधले नैन
थे देख नहीं पाए
कौन पराया
कहाँ अपनापन ।
मुड़के देखा-
वो पुकार थी चीन्ही
पहचाना था
वो प्यारा सम्बोधन।
धुली उदासी
पहली बारिश में
धुल जाता ज्यों
धूसरित आँगन ।
आँसू नैन में
भरे थे डब-डब
बढ़ी हथेली
पोंछा हर कम्पन।
थे वे अपने
जनम-जनम के
बाँधे हुए थे
रेशम- से बन्धन।
प्राण युगों से
हैं इनमें अटके
यूँ ही भटके
ये था पागलपन
तपथा माथा
हो गया था शीतल
पाई छुअन
मिट गए संशय,
मन की उलझन ।
सर ! आपने भावों को इतनी खूबसूरती से चोका में पिरोया है कि लगता है ये तो हमारे अनुभव का हिस्सा है, वाह नहीं, वाह वाह सर ।
जवाब देंहटाएंअति सुंदर... आपकी लेखनी हृदय की अनकही बातें कहती है.... सर 🙏🌹
जवाब देंहटाएंभैया बहुत गहरे भाव बधाई
जवाब देंहटाएंरचना
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से निकली बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति आपको बधाई भैया। सुदर्शन रत्नाकर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर चोका।
जवाब देंहटाएंहार्दिक बधाई आदरणीय गुरुवर को।
सादर
आप सभी हृदयतल से आभार
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक अभिव्यक्ति! धन्यवाद आदरणीय!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर, बहुत सुकोमल भाव संपन्न अभिव्यक्ति भैया।
जवाब देंहटाएंहृदय के कोमल भावों को स्पर्श करने वाला सुंदर चोका।सादर प्रणाम।
जवाब देंहटाएंअति सुंदर चोका...हार्दिक बधाई भाईसाहब।
जवाब देंहटाएंइस ह्रदयस्पर्शी चोका के लिए बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण , प्रवाहमय चोका ।हार्दिक बधाई हिमांशु भाई ।
जवाब देंहटाएंविभा रश्मि