-डॉ भावना कुँअर
मासूम
परी
जो जीना
चाहती थी,
बनी
शिकार
वहशी दरिन्दों
का
जूझती
रही
जिंदगी व
मौत से
लड़ती
रही,
आखिरी तक
खामोश थी
ज़ुबान
कह रही
थीं
मासूम वो
पलकें
अनकही सी
दर्द -भरी
कहानी
छोड़ रहा
था
शरीर अब
साथ
बुलंद
रहा
हौसला
जीवन का
बुझ ही
गई
जीवन की
वो जोत
गूँजने
लगी
माँ की
भी सिसकियाँ
कुचले
देख
नन्हीं
परी के पंख ।
सूना हो
गया
पिता का
वो आँगन
चहकती थी
सोन
चिरैया जहाँ।
आँसू से
भरी
आँखिया
निहारती
सूनी
कलाई
कानों
में गूँजती हैं
बेबस
चीखें
दर्द और
पुकार।
चारों
तरफ फैला
सहमा हुआ
आँसुओं
का सैलाब
कैसी
ज़ुदाई,
अपनी
जमीं फिर
खून से
है नहाई।
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