मंजूषा मन
1
अम्मा ने रोपा
तुलसी का बिरवा
पावन हुआ,
घर, आँगन, मन
सुवासित पवन।
2
साँझ का दीया
तुलसी चौरे पर
अम्मा ने धरा,
नेह से सुवासित
पावन हुई धरा।
3
पूजा की थाली
सजे दीप अक्षत
प्रार्थना वाली
नित भोर जो माँगी,
कभी जाएँ न खाली।
ताँका-चोका- सेदोका -माहिया-हाइबन
मंजूषा मन
1
अम्मा ने रोपा
तुलसी का बिरवा
पावन हुआ,
घर, आँगन, मन
सुवासित पवन।
2
साँझ का दीया
तुलसी चौरे पर
अम्मा ने धरा,
नेह से सुवासित
पावन हुई धरा।
3
पूजा की थाली
सजे दीप अक्षत
प्रार्थना वाली
नित भोर जो माँगी,
कभी जाएँ न खाली।
1-डॉoजेन्नी शबनम
1
जीवन जब आकुल है
राह नहीं दिखती
मन होता व्याकुल है।
2
हर बाट
छलावा है
चलना ही होगा
पग-पग पर
लावा है
3
रूठे मेरे सपने
अब कैसे जीना
भूले मेरे अपने
4
जो दूर गए मुझसे
सुध ना ली मेरी
क्या पीर कहूँ उनसे
5
जीवन एक झमेला
सब कुछ उलझा है
यह साँसों का खेला
-0-
2 -ज्योत्स्ना प्रदीप
1
सुरभित भारत- माटी
हिन्दी कण - कण में
चाहे पर्वत , घाटी ।
2
ये आन सँभाले है
वीर शहीदों की
ये शान सँभाले है।
3
हिन्दी के नारे थे
मंगल पाण्डे से
वो गोरे हारे थे ।
4
तीनों दीवाने थे
फाँसी के पल में
लब माँ के गाने थे।
5
भारत के सेनानी
हिन्दी मान करें
बन जाएँ बलिदानी !
6
नवरस भर जाते हैं
सात सुरों को ले
सुर -साधक गाते हैं ।
7
सावन रुत वासंती
होरी,कजरी की
हिन्दी से ही छनती ।
9
परिणय की रुत आई
मधु-रस छलकाती
हिन्दी ज्यों शहनाई ।
-0-
रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'
धीरे-धीरे गर्मी का ताप चरम पर पहुँचेगा...हिम-शैल भी पिघलने लगेंगे....
जेठ की तपती धूप जब तपा देगी...
झुलसती दोपहर फिर कहाँ विश्राम पाएगी ?
इस शहर में तो कोई ऐसी जगह नहीं ?बाट जोहती
कि दिन ढले सन्ध्या रानी के आँचल में छिप जाएँ..फिर लू के गर्म थपेड़े संभवत: न सता
पाएँ....
वो गाँव का बरगद आज भी बहुत याद आता है...न जाने किस हाल में होगा ?अब होगा भी या नहीं ?
रुआँसा हो गया मन...नहीं ! नहीं ! वो चिरंजीवी रहे...उसने लाखों को
जीवन दिया...अपने आँचल में पाला है...
उसके समान कहीं कोई भी नहीं...एक वो ही है... जो सब पर ही अपना निस्वार्थ
नेह लुटाने वाला है ...
बहुत बूढ़ा हो चुका होगा शायद पानी भी न देता होगा कोई उसे..वो अकेला
होगा।किसी को याद आती होगी उसकी ....?
क्या स्मृतियों में हरा-भरा होगा वह अभी तक ?किसी ने कभी सुध ली होगी उसकी ?
जिसकी शाखाओं ने अपनी बाहों में भर जी भर हर एक बचपन झुलाया....
अपनी घनी शीतल छाँव देकर गर्मी के भीषण कहर से बचाया ।
वो प्यारा गाँव
जहाँ थे दानी वृक्ष
बाँटते छाँव ।
सुदर्शन रत्नाकर
मालकिन जब भी कहती हैं, "कूरो, चलो घूमने चलें।" मेरा मन बल्लियों उछलने लगता है। एक यही तो समय होता है जब मैं आज़ादी की साँस ले सकता हूँ लेकिन मेरी आधी उत्सुकता वहीं समाप्त हो जाती है, जब वह कहती हैं, "कूरो, अपना पट्टा लाओ, पहले पट्टा बाँधेंगे फिर बाहर चलेंगे।" सारा दिन मुँह उठाये एक कमरे से दूसरे कमरे में घर के बंदों को सूँघता घूमता रहता हूँ। बाहर से कोई आता है तो मैं अजनबी को देख कर भौंकने लगता हूँ तब मैडम मुझे कमरे में बंद कर देती हैं और यह सजा घंटों चलती है। खाना नहीं खाता तो कहती हैं, खाना नहीं खाओगे तो नीचे कुत्तों को दे आऊँगी। " भूखे रहने के डर से खा लेता हूँ। कभी-कभी बालकनी में जाता हूँ तो वहाँ लगी लोहे की सलाख़ों में से सिर निकाल कर नीचे झाँकने की कोशिश करता हूँ चौबीसवीं मंज़िल से मुझे कुछ दिखाई तो देता नहीं, सिर और चकराने लगता है। बस नीचे से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें सुनाई देती हैं। इसलिए पट्टा बाँध कर ही सही, बाहर जाने को तो मिलता है।
लिफ़्ट से निकलते ही तेज़ कदमों से बाहर जाने की कोशिश करता हूँ। कितना अच्छा लगता है। मेरे जैसे और भी अलग-अलग नस्लों के कुत्ते अपने-अपने मालिकों के साथ घूमते मिल जाते हैं। पर मैडम मिलने नहीं देती। बस अपनी सहेली के कुत्ते से बात करने देती हैं। "कूरो, देखो ऑस्कर तुम्हारा दोस्त, मिलो इससे।" पर मुझे ऑस्कर अच्छा नहीं लगता। बड़ा अकड़ू है। है भी तो मुझसे कितना बड़ा। खेलते हुए मुझे दबोच लेता है। कई बार तो खरोंचें भी मार देता है। अभी तो अच्छा है, मेरे बाल घने हैं। चोट कम लगती है।
मैडम प्यार तो करती हैं लेकिन मुझे जो अच्छा लगता है वह नहीं करने देतीं। मेरा दिल चाहता है वह मेरा पट्टा खोल दें और मैं भाग कर अपने दोस्तों से मिल लूँ। जानते हैं आप मेरे दोस्त कौन हैं। अरे! वही जिनकी आवाजें मैं बालकनी से सुनता हूँ। मुझे नीचे आया देख वह मेरे आगे-पीछे चलने लगते हैं। मुझसे मनुहार करते हैं। मैं भी उनसे लिपटने, खेलने की कोशिश करता हूँ। पर मैडम मेरा पट्टा खींच कर कहती हैं, "नो कूरो, डर्टी डॉगी।" मैं उनकी बात कहाँ सुनता हूँ। पट्टा खींचते-खींचते भी उनके साथ खेल लेता हूँ, बात कर लेता हूँ। जब वह मेरा पट्टा देख कर हँसते हैं तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है। मैं कहता हूँ, "पट्टा है तो क्या हुआ, अच्छा खाना तो मिलता है।" पर वह सब-से बड़ा ब्राउनी हमेशा कहता है, पट्टे से तो भूखा रहना बेहतर है। " शायद वह ठीक कहता है। कितनी आज़ादी से घूमते हैं ये सब, लेकिन उनके भूखे रहने से मैं दुखी हो जाता हूँ, इसलिए कई बार मैं अपना खाना जानबूझकर नहीं खाता। तब मैडम वही खाना इनको दे देती हैं। मुझे अच्छा लगता है। जब मेरे दोस्तों को भरपेट खाना मिल जाता है, तब मैं अपने पट्टे के दर्द को भूल जाता हूँ।
मूक ये प्राणी
विचित्र है मित्रता
सीखो मानव
ऋता शेखर 'मधु'
1
गुलमोहर
तपे ग्रीष्म में
तलवों की राहत
जीतने की चाहत।
2
खिलते रहे
उपवन सुमन
काँटों के संग
पौधों का अनुबंध
अक्षुण्ण है सुगंध।
3
करते पार
हवा परतदार
नभ के तारे
आते टिमटिमाते
बालक मुस्कुराते।
4
नन्ही- सी दूब
सड़क के किनारे
तोड़ कंक्रीट
चुप से ताक रही
माटी से झाँक रही।
5
नन्ही- सी जान
पीठ पर खाद्यान्न
शीत या ग्रीष्म
पंक्तिबद्ध लगन
चीटियाँ हैं मगन।
6
नभ में दिखे
कभी झील में छुपे
स्वर्ण से जड़ा
सूर्य का रथ भला
किसके रोके रुका।
7
सिंधु- लहर
आरोह -अवरोह
कागज़ी नाव
विनम्रता से बही
दूर तक निर्बाध।
8
लौ करे नृत्य
नटखट पवन
बढ़ाती गति
लौ झुक -झुक जाती
स्वयं को है बचाती।
-0-
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
कर का स्पर्श
पाकर दो पल में
पाथर बना मोती
आभा दोगुनी
भावाकुल तरंगें
गद्य -तट छू गई ।
2
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चित्र -प्रीति अग्रवाल |
फूल-से झरो
बिखेर दो सुगन्ध
बहो अनिल मन्द,
किरन तुम
उजियारा भर दो
पुलकित कर दो।
3
छू स्वर्ण-पाखी
मेरी कञ्चन काया
सरस कर देना
अमृत रस
प्राणों के गह्वर में
आज तू भर देना।
4
मुखरित हों
रोम -रोम गा उठे
प्रतिध्वनि गुंजित
छू ले अम्बर
घाटियाँ नहा उठें
मुकुलित हों प्राण।
5
चलना चाहा
जब इस जग से
कर जकड़ रोका
देखा मुड़के-
स्वर्णाभा -सी मुस्काई
वह तुम ही तो थे!
6
मैं बलिहारी
ओ मेरे शब्दशिल्पी!
झंकृत हुआ उर
तेरा सितार
मधुरिम धुन से
करे कृति -सिंगार
7
उगो सूर्य- से
8
संतप्त मन
किए लाख जतन
न मिटी थी जलन
छली मुदित
छोड़े लज्जा- वसन
नग्न नृत्य- मगन।
9
छोटी- सी नाव
तैरा निंदा का सिन्धु
डुबाने वाले लाखों
फिर भी बचे
प्रिय आओ ! यों करें
कुछ दर्द बुहारें।