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सोमवार, 10 जनवरी 2022

1019-समय-चक्र

 

डॉ. सुधा गुप्ता

1

समय-चक्र


जीवन-अरगनी

सुख-दु:ख लटके,

धोते-सुखाते

कभी मुस्कान खिली

कभी आँसू टपके।

2

इतनी पीड़ा!


रुदन भी खो गया

अचरज बो गया,

सूखी आँखों में

बस जलन बाकी

हर साथी खो गया।

-0-  (सभी चित्र गूगल से साभार)

बुधवार, 5 फ़रवरी 2020

899-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के दस सेदोका


मेरी पसन्दः रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के दस सेदोका
डॉसुधा गुप्ता
इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक जापानी काव्य-विधाओं के हिन्दी में अवतरण एवं विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। पिछले पचास वर्षों में हाइकु ने पगडण्डी छोड़, राजमार्ग पकड़ लिया थाइस सदी के प्रथम दशक में जापानी कविता को दूसरी विधा ताँका पर्याप्त चर्चित एवं लोकप्रिय होने की राह पर थी, ‘हिन्दी हाइकु’ (सम्पादक डॉ-हरदीप कौर सन्धु, सह-सम्पादक श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, प्रारम्भ(4 जुलाई, 2010) बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा था। ऐसे में इन्हीं दोनों ने एक नवीन ब्लॉग ‘त्रिवेणी’ आरम्भ किया, जिसमें ताँका, चोका, हाइगा प्रकाशित होते थे (प्रारम्भ 23 सितम्बर 2011)। उपर्युक्त सम्पादक द्वय नवीनता का प्रेमी है, अतः जापानी विधा ‘सेदोका’ से पाठकों का परिचय कराया और रचनाकारों को प्रेरित किया कि सेदोका लिखें और त्रिवेणी के लिए भेजें। परिणाम आशातीत रहा, देखते ही देखते इतने सेदोका (अच्छे, सार्थक, शास्त्रीय परिभाषा के अनुकूल) एकत्र हो गए कि एक संग्रह बन सके। अतः 21 रचनाकारों के 326 सेदोका का संग्रह ‘अलसाई चाँदनी’ जो कि भारत में हिन्दी सेदोका का प्रथम संकलन है, 2012 में प्रकाशित हो गया। (यह सम्पूर्ण सूचना संकलन की भूमिका ‘अपनी बात’ के आधार पर दी गई है। सम्पादन किया है श्री ‘हिमांशु’, डॉ .भावना कुँर एवं डॉ.हरदीप कौर सन्धु ने) ‘अलसाई चाँदनी’ का गर्मजोशी से स्वागत हुआ और नए-नए रचनाकार सेदोका से जुड़ते गए-त्रिवेणी में छपते रहे।
हिमांशु जी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि आप ‘टीम-वर्क’ में विश्वास रखते हैं और जिस लक्ष्य को चुन लेते हैं ,उसे पूरा करने में जुट जाते हैं। परिणाम सदैव फलप्रद होता है। उनके सेदोका प्रेम ने बड़ी जल्दी इस विधा को लोकप्रिय बना दिया-इसके बाद अनेक एकल सेदोका-संग्रह प्रकाशित हुए---
अब मैं हिमांशु जी के उन दस सेदोका का ज़िक्र करना चाहूँगी, जो मुझे बेहद अच्छे लगे ।
हिमांशु जी प्रकृति से अपने लगाव के लिए ख्यात हैं ,तो दो सेदोका देखेंः प्रकृति का मोहक रूप-
1- झील का तट / बिखरी हो ज्यों लट / मचलतीं उर्मियाँ
पुरवा बही / बेसुध हो सो गई / अलसाई चाँदनी (13)
दूसरी ओर अभाव का अंकन, पर्यावरण के प्रति सचेत होने का सुंदर प्रमाण हैः
2- तपती शिला / निर्वसन पहाड़ / कट गए जंगल
न जाने कहाँ / दुबकी जल-धारा / खग-मृग भटके (27)
स्वार्थी इस संसार में आज स्थिति यह है कि दूसरे को सुखी देखकर मनुष्य दुःखी हो जाता है और दूसरे पर विपदा पड़े तो तृप्ति का अनुभव करता है-
3- शीतल जल / दो बूँद पिया जब / उनको नहीं भाया
ज़हर पिया / जब भर के प्याला / वे बहुत मुस्काए (12)
प्रेम’ मानव जीवन की वह शाश्वत भावना है जिस पर संसार टिका है, यदि जीवन में सच्चा मन-मीत मिल जाए तो मानव धन्य हो उठता है, उदात्त धरातल पर अवस्थित रचनाकार अभिव्यक्ति के लिए तदनुरूप शब्द-सम्पदा में उस भावना को यूँ प्रकट करता हैः
4- पुण्यों की कोई / तो बात रही होगी / कि राहें मिल गईं
जागे वसन्त / पाटल अधर पे / ऋचाएँ खिल गईं
जीवन तो सुख-दुःख का ऐसा संगम है जहाँ हर मानव को क्रमशः इन स्थितियों से गुज़रना अनिवार्य है। मन की वेदना को साझी करने वाला कोई मिल जाए तो सेदोकाकार कह उठता हैः
5- खाए हैं घाव / चलो, उनको धो लें / दुःख के पन्ने खोलें
करता है जी / गले से लगकर / जी भर हम रो लें
सेदोकाकार का जीवन-दर्शन अनूठा है, वह प्रेम बाँटने और धरा को सिंचित करने में विश्वास रखता हैः
6- आएँगे लोग / उठे हुए महल / गिरा जाएँगे लोग
शब्दों का रस / हार नहीं पाएगा / प्रेम-गीत गाएगा
कवि मन, भौतिक समृद्धि एवं विलासिता से कोसों दूर, जैसी परिस्थिति मिल जाए, उसी में सन्तुष्ट है। एक खूबसूरत सेदोका देखिए:
7- बीता जीवन / कभी घने बीहड़ / कभी किसी बस्ती में
काँटे भी सहे / कभी फ़ाके भी किए / पर रहे मस्ती में
अनन्य प्रेम की एकाग्रता में रचनाकार का मन किसी एक बिन्दु पर ऐसा स्थायी भाव से समर्पित हो चुका है कि अब ईश्वर (मंदिर) के प्रति कुछ भी देने को शेष नहीं बचा --- फिर?
8- मैं मजबूर / कि सिर झुकता है / तेरे दर पे आके
तू ही बता दे / किस मुँह से भला / मन्दिर अब जाऊँ
यह स्वार्थी संसार केवल लेना जानता है, सब कुछ हथियाकर, वक्त पड़ने पर मुँह मोड़कर, खिसक जाता है, कवि ने अपनी वेदना (जो प्रायः हर व्यक्ति के मन की वेदना है) इस सेदोका में रख दी हैः
9- नेह था बाँटा / अँजुरी भर-भर / जीवन-घट रीता
प्यास लगी थी / दो घूँट जल माँगा / कुछ भी नहीं पाया
हिमांशु जी के सेदोका पढ़ने का आनन्द अपूर्व है। चंदन की शीतलता, भोर की ताज़गी, तुषार-बिन्दु की पावनता का संगम अनूठा है। वस्तु और शिल्प का उत्कृष्ट संतुलन सेदोका विधा की परिपक्व, प्रांजल, समुन्नत स्थिति का उद्घोष करते हैं। रस में पगा मन, भीगी पाँखुरी-सा (उड़ने-हिलने-डुलने में असमर्थ) कह उठता हैः
           10-मूक है वाणी / कि न पार पाते हैं / शब्द हार जाते हैं
जब तुम्हारा / नभ जैसा निर्मल / हम प्यार पाते हैं
श्री ‘हिमांशु’ जी ने हिन्दी के रचनाकारों को इस नवीन जापानी काव्य-विधा से परिचित कराया, स्वयं सेदोका लिखे और अन्य कवियों से लिखवाने हेतु प्रेरित किया, वह बधाई के पात्र हैं।
-0-                                              


शनिवार, 3 अगस्त 2019

878


डॉoसुधा गुप्ता
1
चित ; ज्योत्स्ना प्रदीप की माताश्री
बाँस की पोरी
निकम्मी खोखल मैं
बेसुरी, कोरी
तूने फूँक जो भरी
बन गई बाँसुरी
2
तेरा ही जादू
दूध पीना भूला है
गैया का छौना
चित्र-से मोर, शुक
कैसा ये किया टोना


3
मिली झलक
लगी नहीं पलक
रूप सलोना
श्याम ने किया टोना
राधिका भूली सोना
4
बाँस कि पोरी
बनी रे मुरलिका
श्याम दीवानी
राधिका रो-रो मरे
चुराए, छिपा धरे
5
कान्हा क्या गए
राधा हुई बावरी
कैसी विकल
सदा गीला आँचल
सूखे न किसी पल
6
ज्वर से तपे
जंगल के पैताने
आ बैठी धूप
प्यासा बेचैन रोगी
दो बूँद पानी नहीं।
7
अपने भार
झुका हरसिंगार
फूलों का बोझ
उठाए नहीं बने
खिले इतने घने
8
पाँत में खड़े
गुलमोहर सजे
हरी पोशाक
चोटी में गूँथे फूल
छात्राएँ चलीं स्कूल
9
सुन रे बच्चे
सपने तेरे बड़े
नयन छोटे
आकाश तेरा घर
ले उड़ान जीभर
10
सुख का साथी
घर-परिवार
दु:ख का साथी
सिर्फ़ अकेलापन
किसे खोजे पागल
11
अकेली चली
दु:खों के दरिया में
आँसू की कश्ती
खुद ही मँझधार
खुद ही पतवार
-0-

शनिवार, 19 जनवरी 2019

851-जाड़े की धूप



1-डॉ.सुधा गुप्ता
1
पौष की हवा
कहे मार टहोका-
बता तो ज़रा
अब क्यों दुत्कारती
जेठ में दुलारती ।
2
सुबह  बस
ज़रा-सा झाँक जाती
दोपहर आ
छत के पीढ़े बैठ,
गायब होती धूप ।
3
जाड़े की धूप
पुरानी सहेली-सी
गले मिलती
नेह-भरी ऊष्मा  दे
अँकवार भरती ।
4
झलक दिखा
रूपजाल में फँसा
नेह बो गई
मायाविनी थी धूप
छूमन्तर हो गई ।
5
भागती आई
तीखी ठण्डी हवाएँ
सूचना लाईं
शीत-सेना लेकर
पौष ने की चढ़ाई ।
6
मेरे घर में
मनमौजी सूरज
देर से आता
झाँक, नमस्ते कर
तुरत भाग जाता ।
7
भोर होते ही
मचा है हड़कम्प
चुरा सूरज-
चोर हुआ फ़रार
छोड़ा नहीं सुराग।
8
सूरज-कृपा
कुँए- से आँगन में
धूप का धब्बा
बला की शोखी लिये
उतरा, उड़ गया।
9
शीत –ॠतु का
पहला कोहरा लो
आ ही धमका
अन्धी हुई धरती
राह बाट है खोई ।
10
बर्फ़ ढो लाई
दाँत किटकिटाती
पौष की हवा
सब द्वार थे बन्द
दस्तक दी ,न खुला ।
11
झोंक के मिर्च
शहर की आँखों में
लुटेरा शीत
सब कुछ उठाके
सरेशाम गायब ।
12
तीर -सी चुभी
खिड़की की सन्धि से
शातिर हवा
कमरे का सुकून
चुराकर ले गई ।

शुक्रवार, 18 मई 2018

808

1
कुछ खिलौने
उम्र छीन ले गई
कुछ वक़्त  ने लूटे,
ख़ाली हाथ हूँ
काश ! कोई लहर
हथेली भर जाए !

आज आदरणीया डॉ. सुधा गुप्ता जी का जन्म दिन है , इस अवसर पर हाइकु की शोध छात्रा  पूर्वा शर्मा का पत्र ,तथा अन्य रचनाएँ दी जा रही हैं. 
 पूज्या सुधा गुप्ता  जी को शत -शत नमन !
( सम्पादक एवं सभी रचनाकार )
-०-
आदरणीया सुधा जी,
प्रणाम !
 आपको जन्म दिन के लिए बहुत-बहुत बधाई हम सब के लिए बहुत ही ख़ुशी का अवसर है कि आपने अपने जीवन के 84 वर्ष पूर्ण कर लिये  और आज भी आपका साहित्य-सृजन निरंतर गतिमान है ‘हाइकु’ शब्द के साथ ही आपका नाम अपने आप जिह्वा पर आ जाता है  मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि शायद ही कोई ऐसा हाइकु रसिक होगा ,जो आपकी रचनाओं से प्रभावित न हुआ हो  आपके साथ बिताया प्रत्येक पल मेरे जीवन का अविस्मरणीय पल है, जिसे कैमरे में कैद करने की आवश्यकता नहीं है, यह सभी स्वर्णिम  पल मेरी आँखों में सदा के लिए बस चुके हैं  बस यही कामना  करते हैं आप नीरोग रहे और आपकी रचनाओं का स्वाद लेने का सौभाग्य हमें प्राप्त होता रहे  हम सभी हाइकु प्रेमियों की ओर से आपको बहुत-बहुत बधाई 
हाइकु वर्षा
अनवरत बरसे
सुधा-कलम से
-पूर्वा शर्मा 
-०-
1-मन बावरा 
-सत्या शर्मा ' कीर्ति '

उबड़ -खाबड़ , चढ़ाई से भरे रास्ते  और कहीं-कहीं दिखते पत्थरों से बने खूबसूरत से मकान
, जिनके आस -पास हसीन से  लोग जानी पहचानी सी मुस्कान लिए यूँ अपनापन दे रहे थे जैसे शायद उन्हें पता हो मै आऊँगी एक दिन ,जैसे कि नियति ने पहले ही सब व्यवस्था कर रखी हो ।
फिर हल्की सी बारिश और पेड़ों , फूलों , पत्तों से निकली मिली- जुली मीठी -सी खुशबु जैसे अंदर तक अमृत घोल गयी ।शुद्ध हवा कितना कुछ दे जाती है न जैसे कुछ भरता ही जाता है  अंदर ही अंदर ।पास ही सर्पिली सी नदी बलखाती- सी नीचे उतर रही थी और मेरा चढ़ना देख ,हँसकर  कह रही थी जाओ न अलकनन्दा तुम्हे ही याद कर रही है । मन जैसे और भी पुलकित हो उठा ।
तभी कहीं से किसी वाद्य यंत्र की आवाज सुनाई दी ।
जाने कहाँ से हवा संग तैरती - ढूँढ़ती हुई आ मिली मुझेसे ।मैंने भी कानों से सुन मन में बसा लिया पर जाने क्यों आँखों से टपक नदी संग बह गयी ।
कितना अजीब है न जहाँ हम किसी को नहीं जानते पर उस जगह को भी इन्तजार सा रहता है हमारा । हाँ , तभी तो मैं अपने सम्पूर्ण बजूद के साथ समाती जा रही थी और लग रहा था जैस एक जगह कब से खाली रखा था इन खूबसूरत वादियों ने शायद मेरे लिए ।
क्या सब कुछ निश्चित होता है ?
शायद इसीलिए पास से गुजरती हुई हवा ने हल्के से छू कर कहा "थकी तो नहीं "और आस - पास के पेड़ों को जोर से हिला अनगिनत रंग - बिरंगे फूलों को मुझ पर बरसा कहा " आओ स्वागत है तुम्हारा ।"
हाँ , कुछ जगहें भी इन्तजार करती है हमारे आने का ।
0
देखता द्वार
करता इन्तजार
मन बावरा ।।

0
उठे है हूक
पिया परदे
सी
कब
 आएँगे।।

-0-
2-दर्द  पेड़ों का
 -कमला घटाऔरा

आज मन बड़ा उत्साह से भरा था ।गगन में रह रह कर बादल अठखेलियाँ कर रहे थे । धूप  चंचल शिशु की तरह हमारी कार की खिड़की से हमारा स्पर्श कर  दूर भाग जाती। कभी जंगल की         ओर जाने वाले ऊँचे -ऊँचे पेड़ों के पीछे जाकर लुका-छिपी का खेल खेलती कभी फिर सामने आ जाती ।हमारा बचपन जगा रही थी । जी करता अभी कार से निकल हम भी पेड़ों के पीछे छुप जायें उसके दिखते ही उसे पकड़ लें । लेकिन शीतल हवा का स्पर्श तन में कंपन भर रहा था ।यहाँ इस देश में धूप होने पर भी ठंड ही रहती है ।
हम एक नए खरीदे घर को देखने जा रहे थे उसके मालिक के साथ । कार अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही थी ।अब हम फोरेस्ट रोड़ से आगे जा रहे थे । ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सड़क के दोनों ओर  ऊँचे - ऊँचे घने वृक्षों की कतारें आने वालों के स्वागत में खड़ी हों ,नवीन हरित वस्त्र धारण किये मुस्कुराती हुई ।आगे चल कर गिनती के कुछेक घरों का छोटा सा रिहायशी एरिया आ गया ।कुछ माइल चलने के बाद हमारी मंजिल थी । गेट खोलने के लिये कार से बटन दबाया गया । हमारी कार हमें कई मीटर चलकर अंदर गृह द्वार तक ले गई ।
तीन चार एकड़ की जगह में फैला यह एरिया  चारों ओर दरख्तों से घिरा था ।एक तरह से जंगल के बीच स्थित था । चारों ओर घूम कर अपने पग चिन्ह बनाना मेरे जैसे ढलती उम्र वालों के लिए मुश्किल होता है ।सो चारों ओर घूम कर हर पेड़ से ‘हैलो’ नहीं कह सकी । मैं तो वहाँ पूर्व बाशिंदो के लगाए फूल पौधों ,बेलों और फलों के पेड़ों को ही निहारती रही । मोहित होती रही । पेड़ पौधों के रसिकों का मन ही मन गुण गान करती रही । एक बहुत ही पुराना पेड़ जिसकी जड़ें , इस अर्ध सदी पूर्व बनाए पाँच कमरों के घर की नींव तक पहुँचने जा रही थी ,उन्हें काट दिया गया था ताकि घर को कोई क्षति न पहुँचे ।उसकी लकड़ियों को छोटा- छोटा करके  सूखने के लिये बिखेर दिया गया था , जो सर्दियों में घर गर्म रखने के काम आने वाली थी।
घर के नए मालिक ने इधर उधर बिखरी सूखी पतली टहनियों को भी इकट्ठा करके जलाने के लिए एक पेड़ के नीचे जमा किया हुआ था । जाते ही वह अपने काम में जुट गया । पुराने पेपर ले जाकर लाइटर से आग जला दी । धुँआ छोड़ती लकड़ियाँ जल्दी ही लपटों में बदल गईं । जिस सूखे पेड़ के नीचे सूखी लकड़ियाँ रखकर जलाई जा रही  थीं , उसकी लपटें सूखे पेड़ के शिखर को तो छू ही रही थी, लेकिन जब उन लपटों का सेक आस पास खड़े हरे भरे पेड़ों को भी झुलसाने लगा तो मन
असह्य पीड़ा से भर गया ।लगा जैसे पेड़ दर्द से कराह उठें हों ।मैं न उन्हें सांत्वना  दे सकती थी ना धुएँ को उस ओर जाने से रोक सकती थी ।जो कर सकती थी वह भी न कर सकी । मैं कह सकती थी आप लोगों को इन हरे भरे वृक्षों के पास इस तरह आग नहीं जलानी चाहिये थी । मैं कुछ कहती पहले ही मकान मालिक आग जला चुका था ।कहने का अब कोई फायदा नहीं था ।
जो एक तरफ तो सैंकड़ों नए पेड़ लगाने को यत्नशील है दूसरी ओर आग जलाते समय यह कैसे भूल गया  कि जो पेड़ लहलहा रहें हैं उन की सुरक्षा तो पहले सोच लूँ ।उनसे दूर जा कर आग जलाऊँ । मैं  इस उलझन से घिरी सोचती  रही कि हमारा ध्यान क्यों एक ही  काम पर जुट जाता है ? उसके दूसरे पक्ष को कैसे भूल जाता है ? काश ! उन की आँखें देख पाती जलते पेड़ों के दर्द को , जान पाती  उन में भी जान होती है । उन के दुख से धरा को भी पीड़ा होती 
दर्द पेड़ों  का
जान पाए न कोई
धरा तड़पे ।

-०-

-०-
3-भीग गई वसुधा
डॉ.पूर्णिमा राय, अमृतसर 

हवा के झोंके
छू रहे तन-मन
निश्छल यादें
बरबस उतरी
मन के द्वार
अखियों का पैमाना
ज्यों ही छलका
बादलों से टपकी
बूँद-बूँद से
भीग गई वसुधा
विरहाग्नि में
मूसलाधार वर्षा
हृदय नभ
हो गया आह्लादित
प्रिय मिलन
अनोखा प्रकृति का
भीनी सुगंध
अंग प्रत्यंग  हुए
पुलकित धरा के !

-0-



मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

794


जुगल बन्दी : माहिया 
डॉ सुधा गुप्ता : ज्योत्स्ना प्रदीप 
1
गरमाहट नातों की
डोरी टूट गई
भेंटों-सौगातों की।- डॉ.सुधा गुप्ता
0
डोरी तो जुड़ जाती 
सागर जान गया  
नदिया उस तक आती ।- ज्योत्स्ना प्रदीप  
2
अब आँसू सूख  चले
रेत -भरी आँखों
सपना कोई न पले ।- डॉ.सुधा गुप्ता
0
कुछ सीपी हैं बाकी 
मोती झाँक रहे 
कैसी प्यारी  झाँकी !  ज्योत्स्ना प्रदीप  
3
जाना था तो जाते
लौट न पाएँगे
इतना तो कह जाते ।- डॉ.सुधा गुप्ता
0
 फिर तुम तक आना है
तुझ  बिन जग झूठा 
सब कुछ वीराना है !  ज्योत्स्ना प्रदीप  
4
सब दिन यूँ  ही बीते
बाती से बिछुड़े
हैं दीप पड़े रीते ।-डॉ सुधा गुप्ता
0
अब मिलने की बारी 
बाती   दीप  धरी 
जलने की तैयारी ।- ज्योत्स्ना प्रदीप  
5
अब नींद नहीं आती
रातें रस- भीनी
कोरी आँखों जाती ।- डॉ .सुधा गुप्ता
0
आँखें ना कोरी हैं 
देखो रस  बरसा 
वो चाँद चकोरी हैं।- ज्योत्स्ना प्रदीप
6
जब चाहो तब मिलना
पर यह वादा हो
फिर सितम नहीं करना ।- डॉ .सुधा गुप्ता
0
ये सितम नहीं गोरी 
कुछ मजबूरी थी 
बस  इतनीं -सी चोरी ।-ज्योत्स्ना प्रदीप