आँखों का भ्रम
रामेश्वर काम्बोज‘हिमांशु’
नन्हे हाइकु ने चश्मा न तोड़ दिया होता तो
पता ही नहीं चल पाता कि मोतियाबिन्द विस्तार पा चुका है।अब आँख का आपरेशन होना
था।अच्छा ही हुआ जो चश्मा टूटा और आँखों का भ्रम भी।सुबह –सुबह अन्तिम मेल देखी । मैंने मेल अपने
एक अन्तरंग मित्र को अग्रेषित कर दी कि अब
कुछ दिनों के लिए लिखा-पढ़ी का काम संभाल ले। गाड़ी में बैठकर घर से निकला ही था कि
एक आत्ममुग्ध कवि का फोन आ गया।उनका आग्रह था कि मैं उनकी प्रकृति विषयक कविताओं पर लेख लिखकर दो-चार दिन
में रवाना कर दूँ । वे अपनी कविताएँ भेजने
को भी तैयार न थी । मैं खुद ही उनके संग्रहों से छाँटूँ। इनको अपने बारे में
लिखवाने का बहुत पहले से व्यसन रहा है । किसी के बारे में लिखना तथा अच्छी रचनाओं की
प्रशंसा करना खुद का अपमान समझते हैं।
मैंने उनको ऑपरेशन की बात कही और साफ़-साफ़ कह
दिया कि पूरे महीने मैं लेखन आदि काम नहीं कर सकूँगा।ये सब कुछ अनसुना करके
केवल अपने बारे में लिखने पर ही ज़ोर दे
रहे थे । कानों का इस्तेमाल इन्होंने सीखा ही नहीं था।सुना था साँप के कान
नहीं होते,लेकिन हम सबको साँप ही नहीं,बिना कान के लाखों इंसान मिलेंगे
।ये बीमार और कराहते हुए वृद्ध व्यक्ति को भी अपनी तुर्श आवाज़ में यह कहते सुने जा
सकते हैं-“आपने
हमारे बारे में लेख नहीं लिखा।सचमुच इतनी हेकड़ी दिखाना ठीक नहीं है।हम पर नहीं लिख
पाएँगे तो आप अमर कैसे होंगे?’’ साथ ही आपको यह भी समझाने की
कोशिश करेंगे कि इन पर क्या लिखा जाए और कितना लिखा जाए।ये मरने से पहले अमर होना
चाहते हैं।
मन में चलती विचारों की उलझन के कारण पता ही
न लगा कि कब मुझे ऑपरेशन बैड पर लेटा लिया गया।अब मुझे बेचैनी तथा चिंता को अपने
गले से उतारना था। ऑपरेशन जो शुरू होने जा रहा था। प्रभु का नाम जैसे ही मन में
लिया मुझे ऐसा लगा कि मेरे चाहने वाले मेरे ऑपरेशन टेबल के पास मेरी सुरक्षा के
लिए आ खड़े हुए हैं।
बोझिल मन
भूल गया पल में
सारी तपन।