प्रियंका गुप्ता
अभी क्या उम्र ही थी उसकी...मात्र अठ्ठारह
साल ही न...? उन्नीसवें में कदम रखे बस
चन्द महीने ही तो गुज़रे थे और वो विवाह की वेदी पर बिठा दी गई...। कुँवारी आँखों
ने अभी तो कुछ सुनहरे ख़्वाब देखने शुरू ही किए थे कि माँ की अचानक उभरी बरसों
पुरानी बीमारी की तीव्रता ने उन्हें जल्द-से-जल्द एकलौती बेटी के हाथ पीले कर देने
की हड़बड़ी में डाल दिया । अगर अचानक उन्हें कुछ हो गय़ा तो इस मासूम का क्या होगा,
दिन-रात बस यही चिन्ता उन्हें खाने लगी थी, जिसकी
वजह से रहते-रहते उनकी बीमारी और भी ज़ोर पकड़ लेती थी।
माँ के पति यानी बेटी के पिता अगर इस भरोसे के क़ाबिल होते
कि वे उनके न रहने पर बेटी को सकुशल उसकी ज़िन्दगी की एक सही राह पर पहुँचा आएँगे, तो भी माँ को इतनी जल्दी न होती । पर यहाँ तो मामला ही उल्टा था । बेटी
को जितना दुनिया की बुराई से बचाना था, उससे ज़्यादा ख़तरा घर
में बैठे उस पिता-रूपी दानव से था...। चरित्रहीनता की परकाष्ठा तक पहुँचा वह
व्यक्ति इन्सान कहलाए जाने के योग्य है भी, अक्सर वे माँ-बेटी इस बात पर भी मनन करने लग जातीं, पर
कहती भी तो किससे...? ऐसा कौन था जो इस इंसानी खोल में छिपे रँगे सियार को पहचान पाता...?
इससे भी बड़ा सवाल यह था कि जो लोग उसकी सच्चाई से वाकिफ़ भी थे,
उनकी ज़िद और परामर्श भी यही था कि समाज द्वारा बाँधा गया शादी का यह
अटूट बन्धन ऐसे तोड़ा नहीं करते, भले ही उससे लड़ते-लड़ते एक
दिन खुद की साँस और आस दोनो का बन्धन ही टूट क्यों न जाए...?
यही कारण था कि बेटी के अपने कैरियर की राह
में अपना पहला कदम बढ़ाने के साथ-साथ माँ ने यह कहते हुए उसे सामने आए सबसे योग्य
लड़के के साथ बाँध दिया कि मेरे जीते-जी तुम सुरक्षित इस घर से निकल भर जाओ, ताकि अगर दुर्भाग्य से मुझे कुछ हो भी जाए, तो मैं इस शान्ति को अपने दिल में रख पाऊँ कि मेरी बेटी हर तरह से मेरे
सामने ही सुखी-सुरक्षित है...। बेटी भी मान गई...। उसने तो सारी बात तय करते समय
माँ से बस इतनी सी शर्त रखी थी न कि भले ही वह उसे एक साधारण शक़्ल-सूरत वाले,
किसी मामूली आय वाले से उसे ब्याह दे, पर उसका
चरित्र पिता जैसा हरगिज़ न हो...। माँ भी उसकी बात मान गई थी...। मज़े की बात यह हुई
कि माँ-बेटी एक-दूसरे की बात मान गए; पर ऊपर बैठे उस
सर्वशक्तिमान को उनकी बातों पर बेहद हँसी आई...। हँसते-हँसते, बस मज़ाक में विधाता ने बेटी के भाग्य की लकीरें खींच दी...।
बेटी को विदा करने के साथ ही माँ ने राहत की
साँस लेते हुए अपनी बीमारी को भी बहुत हद तक अपने से परे धकेल दिया...। बेटी खुश
थी कि उसकी शादी से कुछ और अच्छा हुआ हो न हुआ हो, माँ अपनी उस भीषण शारीरिक तक़लीफ़ से तो आज़ाद
हो गई...। पर विदाई के मात्र चन्द घण्टों के भीतर ही बेटी जान गई थी, पति और पिता में सिर्फ़ नाममात्र की मात्राओं का फ़र्क ही नहीं था, बल्कि स्वभाव और चरित्र में भी मात्र कुछ बारीक़-सा
ही अन्तर था...। बेटी बहुत रोई...शिकायतें की माँ से...कभी तुमसे कोई ज़िद भी तो
नहीं करती थी न माँ, कुछ माँगते हुए भी सौ बार झिझका करती थी न...बस एक चीज़ मुँह खोल कर माँगी,
वह भी न दी गई तुमसे...?
माँ भी रोई...भाग्य को कोसा...बेटी को गले
लगा सान्त्वना देती हुई अनजाने ही समाज की पिलाई घुट्टी घूँट-घूँट उसके गले उतारने
लगी...। बेटी भी माँ की मजबूरी समझती थी, सो हलाहल पी गई...। पर आँखों के सामने जाने कैसे शिव की वही
मूरत आ गई जिसके सामने शादी तक वह रोज़ नियम से अगरबत्ती जलाया करती थी...।
नहीं...! विष पिया तो क्या, वह ज़हर को गले से नीचे नहीं
उतरने देगी...। भाग्य ने अगर विषधर उसके गले में लपेटे हैं,
तो उन्हें वह अपने आभूषण बना लेगी...। दुनिया से लड़ने के लिए अगर उसे अपने आराध्य
की तरह रुद्रावतार भी लेना पड़े, तो वो भी सही...। अधिक से
अधिक क्या होगा...? शिव को भी तो अघौरी कह कर दुनिया ने
हाशिये पर करने की कोशिश की थी न, पर वो कितनों के आराध्य भी
तो हुए न...? उसे भी अब शिव ही बनना होगा...भाग्य को अपने
कर्मों से बदल कर मुठ्ठी में करना ही होगा...।
बेटी को अपने जीवन की सही राह आखिरकार मिल ही
गई थी...। ऊपर बैठा विधाता भी शायद अब एक सन्तोष भरी मुस्कान मुस्काता होगा, बेटी को इस बात का पूरा यक़ीन है...।
आसान नहीं
शिव हो विष पीना
अमृत देना ।