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शनिवार, 22 अगस्त 2020

932

 1-तुम’ 

डॉ. पूर्वा शर्मा

‘मैंने तुम्हें दबाकर रखा है’- इस बात का मुझे भली-भाँति ज्ञान है । मैंने तुम्हें
बाहर निकलने का कोई अवसर नहीं दिया, पर क्या करूँ ! मेरी भी मजबूरी है । यदि तुम्हें किसी ने देख लिया , तो सब जान जाएँगे कि माज़रा क्या है ! दरअसल तुम तो हरपल मेरे साथ ही हो, दिखो या न दिखो तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । वैसे
तुमको छुपाकर रखना कोई आसान कार्य नहीं । पल-पल सहना पड़ता है, तिल-तिल
बहुत जलना पड़ता है । हृदय में उठी असहनीय पीड़ा एवं तेज़ कंपन के बावजूद भी तुम्हें छुपा लेने का कारण मेरे इतने वर्षों का अभ्यास ही है कि तुम्हें कोई देख नहीं पाता । हाँ, कई बार कोई संवेदनशील व्यक्ति सामने आ जाए तो वह तुम्हारे होने का एहसास भाँप लेता है, लेकिन इनसे बचने के अनेक उपाय भी मैंने खोज रखे हैं - नज़रें झुका लेना, मुँह फेर लेना या थोड़ी दूरी बना लेना इत्यादि । कई बार बहुत कठिन होता है यह सब करना, किन्तु तुम्हें इस ज़ालिम दुनिया से छुपाने में मैंने महारत हासिल की है । सच कहूँ तो तुम्हीं मेरी ताकत हो । वैसे तुम भी बड़े होशियार हो ! सबके जाने के बाद, धीरे से एकांत में....... तुम बिन बुलाए ही चले आते हो, पता नहीं कैसे, पर तुम इस बात का अंदाज़ा लगा लेते हो कि अब कोई नहीं है तुम्हें देखने वाला । तुम नैनों के कपाट खोल बहुत ही तेज़ रफ़्तार से बाहर चले आते हो, तुम्हारे बाहर आते ही तुम्हारा ‘यह घर’ गुलाबी और फिर धीरे-धीरे सुर्ख लाल हो जाता है । हर बार सबसे छुपने वाले, सामने न आने वाले ‘तुम’ ; अबकी बार
रुकते नहीं, नैनों से कपोल और फिर न जाने कहाँ-कहाँ तक का सफर तय करते हो । कई बार हथेली, तो कभी तकिया, तो कभी कहीं ओर..... मेरा रोम-रोम भीगोकर, सब कुछ नम-सा कर जाते हो । बहुत मुश्किल से तुम्हें बाहर आने की आज़ादी मिलती है, तो तुम इस बाहर की दुनिया में जी भरकर घूमते हो, अनवरत बहते ही रहते हो । ऐसे समय पर तुम्हें रोकना मेरे बस की बात भी नहीं, मेरे मन में भी यही सोच उठती है कि कोई नहीं देख रहा तो छककर, पेट भरकर तुम इस बाहरी दुनिया का मज़ा ले लो । एक कमाल की बात है कि अपना निश्चित समय बिताने पर तुम फिर से वहीं छुप जाते हो, इस बाहरी दुनिया से गुम हो जाते हो और फिर से इन नैनों की कैद में चुपचाप जाने के लिए तैयार .... । दूसरी कमाल की बात यह है कि बाहर तो तुम घूमते हो , लेकिन उसका सुकूँ मुझे मिलता है ,जैसे इस हृदय के घावों पर तुमने कोई जादुई  लेप लगा दिया   हो । वैसे अच्छा ही है तुम सबके सामने बाहर नहीं आते, तुम्हीं तो मेरी जादुई  शक्ति हो ; जो मुझे अंदरूनी ताकत देती है और मजबूत बनाती है । बस सफलता इसी में हैं कि तुम्हें सहेजकर, छुपाकर अपने नैनों में रखा है । जहाँ कोई भी तुम्हें देख नहीं पाता ।
 नहीं दिखते,
एकांत में रिसते
जादुई मोती ।
-0-
2-सन्ताप भार
रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'

"इक अम्बर का ही सहारा था....वो दूर क्या गया....सब कुछ बिखर गया...."
"भूमि ये भार क्यों सहती है बेटी! कहीं कुछ भी नहीं बिखरा....हाँ टूटा ज़रूर है....
एक सहारे की उम्मीद ही है, जो तोड़ रही है तुझे.....खुद को मजबूत बना
वरना इस तरह से बिखरेगी कि फिर कभी खुद को समेट नहीं पाएगीजिसे आना ही नहीं इस गली....उसके लौट आने की आस में दरवाजे की चौखट पर खड़ी हो ,उसका रास्ता ताकने की बजाय खुद के अन्दर भी देख कभी....! तुझमें ही वो इक जज्बा है....,जो देगा मुश्किल हालात से लड़ने की शक्ति अपार...जो ले कर जागा तुझे हर बाधा के पार....
ये अकेलेपन का दु:क्यों ???
इस बोझ के तले मन क्यों दबा हुआ है तेरा ???
तू अकेली कहाँ है....,तेरी हिम्मत हर पल तेरे साथ है बेटी...
जरूरत है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ खुद को पहचानने की....!

संताप-भार
दबा जाता हृदय
निकल पार ।
-0-

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

825


1-डॉ0 सुरंगमा यादव
1-बीत ही जाती रात

रात सुहानी
चाँदनी में मुखड़ा
धोकर आई
सितारों की चुनरी
ओढ़, उतरी
मुख पर है सजी
चंदा की बेंदी
खुशियाँ  हैं  बिखरीं
चारों  ही ओर
सब लगे मगन
धरा-गगन
साकार हुए सब
मन के स्वप्न
अधिक न ठहरा
स्वर्णिम काल
खोई  चाँदनी रात
घिरा अँधेरा
रूप-शृंगार सब
चित्र; रमेश गौतम
गया बिखर
गुम हो गए सारे
उजले तारे
पथ को आलोकित
करने वाले
पर न रुकी रात।
गहरा तम
या फैला हो उजास
कुछ भी मिले
करके आत्मसात्
बीत ही जाती रात
-०-
2-पिया घर आ

घिरी घटाएँ
मनभावन बरखा
टूट न रहीं
सावन की झड़ियाँ
मन बेचैन
काटूँ कैसे घड़ियाँ
बूँद-बूँद से
मैं करूँ गुजारिश-
पिया के पास
जा करे सिफारिश
पिया घर आ
ले पवन झकोरे
डोले मनवा
सपनों का पलना
कैसे  मैं झूलूँ
पिया मन आँगन
बरसो मेघ
उनका भी अन्तस्
व्यग्र हो उठे
हो मधुर मिलन
घर आयें सजन।
-0-
3- आँसू के मोती

गहरी नींद
धरा माता की गोद
सोऊँ निश्चिन्त
भूलूँ सब क्रीड़ाएँ
आँसू पीड़ाएँ
तारों में छिपकर
देखूँ जग को
नभ के आर- पार
करूँ विहार
इन्द्रधनुषी रंग
करूँ रंगीन
सभी अधूरे स्वप्न
आसूँ के मोती
जग रहा टाँकता
नारी के आँचल में
-0-
डॉ0 सुरंगमा यादव,असि0 प्रो0 हिन्दी,महामाया राजकीय महाविद्यालय महोना , लखन
-०-

2-पूर्वा शर्मा
1
मेरी सब  साँसों में
तू ही बसता है
मेरी इन आँखों में ।
2
बूँदें करती बातें
कितनी प्यारी थी
वो फुरसत की रातें ।
3
बादल घिर आते हैं
प्यास बुझाते हैं
हरियाली लाते हैं ।
4
फूलों के खिलने से
सब हैं झूम रहे
बूँदों के मिलने से ।
5
पतझड़ की शाम रही
तेरी वे  बाँहें
मुझको थाम रही।
6
कोयल क्या कहती है?
साजन हैं आए
अब चुप ना रहती है ।
7
कितना तड़पाते हो
ख़्वाबों में आके
हर रोज़ रुलाते हो ।
8
ये मन भी बहक रहा 
तन के तारों में
बस तू ही महक रहा
9
फूलों में कलियों में
तुमको पाया है
जीवन की गलियों में ।

शुक्रवार, 18 मई 2018

808

1
कुछ खिलौने
उम्र छीन ले गई
कुछ वक़्त  ने लूटे,
ख़ाली हाथ हूँ
काश ! कोई लहर
हथेली भर जाए !

आज आदरणीया डॉ. सुधा गुप्ता जी का जन्म दिन है , इस अवसर पर हाइकु की शोध छात्रा  पूर्वा शर्मा का पत्र ,तथा अन्य रचनाएँ दी जा रही हैं. 
 पूज्या सुधा गुप्ता  जी को शत -शत नमन !
( सम्पादक एवं सभी रचनाकार )
-०-
आदरणीया सुधा जी,
प्रणाम !
 आपको जन्म दिन के लिए बहुत-बहुत बधाई हम सब के लिए बहुत ही ख़ुशी का अवसर है कि आपने अपने जीवन के 84 वर्ष पूर्ण कर लिये  और आज भी आपका साहित्य-सृजन निरंतर गतिमान है ‘हाइकु’ शब्द के साथ ही आपका नाम अपने आप जिह्वा पर आ जाता है  मैं ये दावे के साथ कह सकती हूँ कि शायद ही कोई ऐसा हाइकु रसिक होगा ,जो आपकी रचनाओं से प्रभावित न हुआ हो  आपके साथ बिताया प्रत्येक पल मेरे जीवन का अविस्मरणीय पल है, जिसे कैमरे में कैद करने की आवश्यकता नहीं है, यह सभी स्वर्णिम  पल मेरी आँखों में सदा के लिए बस चुके हैं  बस यही कामना  करते हैं आप नीरोग रहे और आपकी रचनाओं का स्वाद लेने का सौभाग्य हमें प्राप्त होता रहे  हम सभी हाइकु प्रेमियों की ओर से आपको बहुत-बहुत बधाई 
हाइकु वर्षा
अनवरत बरसे
सुधा-कलम से
-पूर्वा शर्मा 
-०-
1-मन बावरा 
-सत्या शर्मा ' कीर्ति '

उबड़ -खाबड़ , चढ़ाई से भरे रास्ते  और कहीं-कहीं दिखते पत्थरों से बने खूबसूरत से मकान
, जिनके आस -पास हसीन से  लोग जानी पहचानी सी मुस्कान लिए यूँ अपनापन दे रहे थे जैसे शायद उन्हें पता हो मै आऊँगी एक दिन ,जैसे कि नियति ने पहले ही सब व्यवस्था कर रखी हो ।
फिर हल्की सी बारिश और पेड़ों , फूलों , पत्तों से निकली मिली- जुली मीठी -सी खुशबु जैसे अंदर तक अमृत घोल गयी ।शुद्ध हवा कितना कुछ दे जाती है न जैसे कुछ भरता ही जाता है  अंदर ही अंदर ।पास ही सर्पिली सी नदी बलखाती- सी नीचे उतर रही थी और मेरा चढ़ना देख ,हँसकर  कह रही थी जाओ न अलकनन्दा तुम्हे ही याद कर रही है । मन जैसे और भी पुलकित हो उठा ।
तभी कहीं से किसी वाद्य यंत्र की आवाज सुनाई दी ।
जाने कहाँ से हवा संग तैरती - ढूँढ़ती हुई आ मिली मुझेसे ।मैंने भी कानों से सुन मन में बसा लिया पर जाने क्यों आँखों से टपक नदी संग बह गयी ।
कितना अजीब है न जहाँ हम किसी को नहीं जानते पर उस जगह को भी इन्तजार सा रहता है हमारा । हाँ , तभी तो मैं अपने सम्पूर्ण बजूद के साथ समाती जा रही थी और लग रहा था जैस एक जगह कब से खाली रखा था इन खूबसूरत वादियों ने शायद मेरे लिए ।
क्या सब कुछ निश्चित होता है ?
शायद इसीलिए पास से गुजरती हुई हवा ने हल्के से छू कर कहा "थकी तो नहीं "और आस - पास के पेड़ों को जोर से हिला अनगिनत रंग - बिरंगे फूलों को मुझ पर बरसा कहा " आओ स्वागत है तुम्हारा ।"
हाँ , कुछ जगहें भी इन्तजार करती है हमारे आने का ।
0
देखता द्वार
करता इन्तजार
मन बावरा ।।

0
उठे है हूक
पिया परदे
सी
कब
 आएँगे।।

-0-
2-दर्द  पेड़ों का
 -कमला घटाऔरा

आज मन बड़ा उत्साह से भरा था ।गगन में रह रह कर बादल अठखेलियाँ कर रहे थे । धूप  चंचल शिशु की तरह हमारी कार की खिड़की से हमारा स्पर्श कर  दूर भाग जाती। कभी जंगल की         ओर जाने वाले ऊँचे -ऊँचे पेड़ों के पीछे जाकर लुका-छिपी का खेल खेलती कभी फिर सामने आ जाती ।हमारा बचपन जगा रही थी । जी करता अभी कार से निकल हम भी पेड़ों के पीछे छुप जायें उसके दिखते ही उसे पकड़ लें । लेकिन शीतल हवा का स्पर्श तन में कंपन भर रहा था ।यहाँ इस देश में धूप होने पर भी ठंड ही रहती है ।
हम एक नए खरीदे घर को देखने जा रहे थे उसके मालिक के साथ । कार अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रही थी ।अब हम फोरेस्ट रोड़ से आगे जा रहे थे । ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सड़क के दोनों ओर  ऊँचे - ऊँचे घने वृक्षों की कतारें आने वालों के स्वागत में खड़ी हों ,नवीन हरित वस्त्र धारण किये मुस्कुराती हुई ।आगे चल कर गिनती के कुछेक घरों का छोटा सा रिहायशी एरिया आ गया ।कुछ माइल चलने के बाद हमारी मंजिल थी । गेट खोलने के लिये कार से बटन दबाया गया । हमारी कार हमें कई मीटर चलकर अंदर गृह द्वार तक ले गई ।
तीन चार एकड़ की जगह में फैला यह एरिया  चारों ओर दरख्तों से घिरा था ।एक तरह से जंगल के बीच स्थित था । चारों ओर घूम कर अपने पग चिन्ह बनाना मेरे जैसे ढलती उम्र वालों के लिए मुश्किल होता है ।सो चारों ओर घूम कर हर पेड़ से ‘हैलो’ नहीं कह सकी । मैं तो वहाँ पूर्व बाशिंदो के लगाए फूल पौधों ,बेलों और फलों के पेड़ों को ही निहारती रही । मोहित होती रही । पेड़ पौधों के रसिकों का मन ही मन गुण गान करती रही । एक बहुत ही पुराना पेड़ जिसकी जड़ें , इस अर्ध सदी पूर्व बनाए पाँच कमरों के घर की नींव तक पहुँचने जा रही थी ,उन्हें काट दिया गया था ताकि घर को कोई क्षति न पहुँचे ।उसकी लकड़ियों को छोटा- छोटा करके  सूखने के लिये बिखेर दिया गया था , जो सर्दियों में घर गर्म रखने के काम आने वाली थी।
घर के नए मालिक ने इधर उधर बिखरी सूखी पतली टहनियों को भी इकट्ठा करके जलाने के लिए एक पेड़ के नीचे जमा किया हुआ था । जाते ही वह अपने काम में जुट गया । पुराने पेपर ले जाकर लाइटर से आग जला दी । धुँआ छोड़ती लकड़ियाँ जल्दी ही लपटों में बदल गईं । जिस सूखे पेड़ के नीचे सूखी लकड़ियाँ रखकर जलाई जा रही  थीं , उसकी लपटें सूखे पेड़ के शिखर को तो छू ही रही थी, लेकिन जब उन लपटों का सेक आस पास खड़े हरे भरे पेड़ों को भी झुलसाने लगा तो मन
असह्य पीड़ा से भर गया ।लगा जैसे पेड़ दर्द से कराह उठें हों ।मैं न उन्हें सांत्वना  दे सकती थी ना धुएँ को उस ओर जाने से रोक सकती थी ।जो कर सकती थी वह भी न कर सकी । मैं कह सकती थी आप लोगों को इन हरे भरे वृक्षों के पास इस तरह आग नहीं जलानी चाहिये थी । मैं कुछ कहती पहले ही मकान मालिक आग जला चुका था ।कहने का अब कोई फायदा नहीं था ।
जो एक तरफ तो सैंकड़ों नए पेड़ लगाने को यत्नशील है दूसरी ओर आग जलाते समय यह कैसे भूल गया  कि जो पेड़ लहलहा रहें हैं उन की सुरक्षा तो पहले सोच लूँ ।उनसे दूर जा कर आग जलाऊँ । मैं  इस उलझन से घिरी सोचती  रही कि हमारा ध्यान क्यों एक ही  काम पर जुट जाता है ? उसके दूसरे पक्ष को कैसे भूल जाता है ? काश ! उन की आँखें देख पाती जलते पेड़ों के दर्द को , जान पाती  उन में भी जान होती है । उन के दुख से धरा को भी पीड़ा होती 
दर्द पेड़ों  का
जान पाए न कोई
धरा तड़पे ।

-०-

-०-
3-भीग गई वसुधा
डॉ.पूर्णिमा राय, अमृतसर 

हवा के झोंके
छू रहे तन-मन
निश्छल यादें
बरबस उतरी
मन के द्वार
अखियों का पैमाना
ज्यों ही छलका
बादलों से टपकी
बूँद-बूँद से
भीग गई वसुधा
विरहाग्नि में
मूसलाधार वर्षा
हृदय नभ
हो गया आह्लादित
प्रिय मिलन
अनोखा प्रकृति का
भीनी सुगंध
अंग प्रत्यंग  हुए
पुलकित धरा के !

-0-