माहिया-रेनू सिंह जादौन
1
अम्बर बदली छाई
धरती तड़प उठी
ऋतु सावन की आई।
2
कैसी ये रीत पिया
सजना परदेसी
तड़पाती प्रीत पिया
3
शृंगार नहीं सजना
दर्पण सूना है
पायल भूली बजना।
4
तुमको लिखती पाती
सागर यादों का
लहरें उमड़ी जाती।
5
शुभ हो बरसात तुम्हें
प्रियतम घर आना
देना सौगात हमें।
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अनिता मण्डा के 3 हाइबन
1-आषाढ़- अनिता मण्डा
आषाढ़ प्रतीक्षा की पूर्णता का महीना है। झमाझम संगीत और
माटी की सोंधी सुरभि का महीना है। धरती की दरारों में छिपा अँधेरा बादलों की गड़गड़ाहट
से भय खाता है। बूँदों के पोर आहिस्ता आहिस्ता धरती को गुदगुदाते हैं, हरियाली
धरती की खिलखिलाहट है। तपस्वी पेड़ों की साधना का वरदान आषाढ़ बादलों के लिफाफों में
बूँदों के ख़त लाता है। अपना दुःख, ताप धोकर पेड़ सरसाते हैं। सारे
लोकगीत आषाढ़ पर पाँव धर सीधे सावन का झूला झूलने की हड़बड़ी में हैं। इन सबसे अनभिज्ञ
आषाढ़ मदमस्त हाथी- सा गुज़रता है, गरजता
है, बरसता है। एक आवेग हर कहीं भर देता है। नदियों की मंथरता
टूटती है। पंछियों के गान फूटते हैं। जंगल कच्चे हरे से उफनता है। खेतों में हल के
मांडने आस से हरे होते हैं। पर्वत, नदियाँ, जंगल, खेत, वनस्पति, जीव सब आषाढ़ ढ़ की छुवन से स्पंदित हो गाते हैं। बारिश सुख का संगीत रचती है,
इंद्रधनुष का सतरंगी सितार प्रकट होता है, मानो
अम्बर के आँगन रंगोली पूर दी हो किसी ने। कण-कण में अनुराग की
उपस्थिति है बारिश।
1
आषाढ़ माह
अनुराग उपजे
मेघ बरसे।
2
बंजारे मेघ
गाएँ मल्हार राग
जागे हैं भाग।
-0-
2-बैसाख-- अनिता मण्डा
बैसाख में सूरज की प्यास अनियंत्रित हो जाती है। नदी तालाब
बावड़ी जहाँ भी पानी दीखे अपनी किरणों की स्ट्रो से चोसता रहता है। बैसाख के ज़ुल्म से
नदियों की देह सिकुड़ जाती है। लहरें घायल से पाँवों से रेंगती हुई अपनी पायल के घुँघरू
उतार रख देती हैं। किनारे अपनी पहले दिन वाली जगह नहीं मिलते। नित्य जगह बदलते हैं।
फिर भी वो नदी से अलग नहीं रह पाते। उसके साथ जो बंधन की आदत जो ठहरी।
प्यासे चौपाये, पखेरू पल-पल अपने होने को बचा रहे तालाब-बावड़ियों के पास जाते
हैं। प्यासे जीवों को तृप्त न कर पाने के दुःख में तालाब बावड़ियों का हृदय दरक जाता
है। उनके पाँवों के निशान वो स्मृति-स्वरूप अपने पर संजो लेते
हैं।
ऐसी ही बैसाखी दुपहरी में धूप को दूर-दूर तक बादल
का कहीं आलम्बन नहीं मिलता। तब वो हरियाते रूखों का आश्रय ढूँढती है। पेड़ों के नीचे
विश्राम करती छाँव काँप कर सिकुड़ जाती है। पेड़ अनवरत धूप का अनुवाद छाँव में करते हैं।
ऐसा सटीक संवेदनशील अनुवाद करना और किसके बस की बात है भला। दम साधे बैठे पंछियों का गला अवरुद्ध हो सुर गले में ही चिपक जाते हैं। तब
हर कहीं सन्नाटा अपना साम्राज्य जमा लेता है। सन्नाटे से दम साधे जूझती प्यासी दुपहर
रेंगती -सी चलती है। हर कहीं बस प्यास और प्यास। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं का वैभव तब एकदम फीका लगता है ,जब उनमें
प्यासे पंछियों के लिए एक मिट्टी का सिकोरा तक नहीं मिलता। पत्ता पत्ता प्यासा होकर
बादलों को पुकारता है।
1
दरक गया
बावड़ियों का हिया
प्यासे पखेरू।
2
सताए प्यास
खोये हैं मीठे सुर
पंछी उदास।
-0-
3-गुलमोहर- अनिता मण्डा
चिलचिलाती धूप में जब आँखें खुलते हुए स्वतः सिकुड़ जाती
हैं,
सिर को छाँव का आसरा याद आने लगता है, हवा में
बढ़ते तापमान की धमक त्वचा पर हमला कर चुभने लगती है तभी जेठ माह की धूप को मुँह चिढ़ाता
गुलमोहर रंग पहनने लगता है। धीरे- धीरे हरा झड़ कर विरल हो जाता
है और केसरिया, नारंगी, लाल हावी होता जाता
है। धूप जब छाँव के अस्तित्व को मिटाने उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करने लगती है गुलमोहर
के फूल किसी योद्धा की भाँति मुकाबले में डट जाते हैं।
फूलों को कोमल समझा जाता है। उनकी सुंदरता बरबस मन मोह लेती है, दृष्टि बाँध लेती है। मधुमक्खियाँ उन पर उत्सव मनाती हैं। चूम-चूम कर रस का संचय करती हैं। शहद चुम्बनों का संचय है। तभी तो इतना मीठा
इतना विशुद्ध, गुणकारी है।
फूल कड़ी धूप में भी मुस्कुराना नहीं भूलते। अपनी एक मुस्कान से देखने
वालों को ख़ुशी मिलती है तो ये काम इतना कठिन भी नहीं न। फिर हँसकर जिया जाये या मुँह
लटकाकर जीना तो है ही। ख़ुश्बू कभी अपने फूल में लौटकर नहीं आती। पर पहचानी तो उसी के
नाम से जाती है। हमारी मुस्कान भी वही ख़ुशबू है जो हमारी छवि के साथ ही किसी हृदय में
बसी रह जाती है। एक मुस्कान जितना सा जीवन और कितने सुनहरे रंग। प्रकृति की कितनी बड़ी
पाठशाला हमारे इर्द-गिर्द मौजूद है। कितना बड़ा कैनवस नित्य सजता
है। कितने रंग रोज़ अपना स्वरूप बदलते हैं। आँखें होते हुए भी कितना कुछ
अनदेखा छूट जाता है हमसे। कितना निकल पाते हैं हम मन में लगे जालों को हटाकर। देखने
की एक दृष्टि परिमार्जित करते ही दृश्य कितना कुछ कह जाते हैं। समझा जाते हैं। तो क्यों
न गुलमोहर को देख कुछ पल को एक गुलमोहर अपने भीतर भी उगा लें जो जीवन के घाम को सहकर
खिल उठे। जिसका मकरन्द किसी का सानिध्य चूमकर शहद सा मीठा बन जाए।
गुलमोहर
धूप में मुस्कराए
जीना सिखाए।
-0-