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बुधवार, 14 अगस्त 2019

879

पुष्पा मेहरा  
1
मस्तक टीका
कलाई में रक्षा –सूत्र
प्यार–सौगात
आस –विश्वास बीच
टिका, भाई का प्यार |
2
आँधी-तूफ़ान
बाढ़ बीच बहना
राखी ले हाथ
कहें,शूरों को धन्य
बने शौर्य-प्रतीक
-0-

बुधवार, 30 मई 2018

810



1-सेदोका
1-डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
1
जिंदगी मेरी
ये रंग कैसे-कैसे
इसमें दिए डाल
ओ चित्रकार  !
अब इस चित्र से
बाहर तो निकाल ।

-0-
2-शशि पाधा
1
लो छू ही गई
बंद खिड़कियों से
सलाखों में लिपटी
गुलाबी गंध
रोम- रोम महका
सुवासित- सा तन
2
डगमगाई
सिहराई सिसकी
अँखियों से पिघली
मन की पीर
बह गई नदियाँ
टूटे बाँध -किनारे
3
परतें खुलीं
अतीत की चादर
सलवटों से झाँके
कोई निशानी
कब से बिसराई
वो ही प्रीत पुरानी
--०-
 2-ताँका
1-पुष्पा मेहरा
1
जल से बर्फ़
बर्फ़ से बना जल
सत्य अटल
जन्मे नारी औ नर
बढ़े सृष्टि –चरण ।
2
बाँधना नहीं
जड़ बन्ध से कभी
पाँव ये मेरे
काटना नहीं डैने
चूमूँगी आकाश मैं।
3
कली–कली में
भरो,सृजन-रस
हरो उदासी
छेड़ो मृदु  भैरवी
फिर जागें तन्द्रा से !!
4
घट पराग
छिपाए थीं कलियाँ
मधु से भरा
नटखट था भौंरा
उड़ा ले गया सारा !!
5
पाला था भ्रम
यहीं-कहीं फूलों का
चाही ख़ुशबू
घूमी जो घाट-घाट
मिले काँटों के बाँध !!
6
खुली जो आँखें
पढ़े चार अध्याय
नियतिबद्ध
अंतिम चौखट पे
धुँधले मिले सारे !!
7
रात ढलेगी
सूर्य फिर उगेगा
छाया हुआ जो
आतंक अँधेरे का
एक दिन छँटेगा ।
8
भरे उड़ानें
मन, यह बावरा
कभी न थके
ढंग पाले निराले
तौलता रहे डैने ।
9
छेनी से नहीं
हथौड़े से भी नहीं
खाता है चोटें
जब अविश्वास की
मन टूटता तभी ।
10
बादल बनूँ
आकाश से उतरूँ
धरा से मिलूँ
वेणी माँ की सजा दूँ
सीप का मोती बनूँ ।
11
मुझे ना मार
सुहाग मैं धरा का
घर पाखी का
कहता थका पेड़
पर,कत्ल हो गया 
12
नई है पीढ़ी
छिपाए है दावाग्नि
छेड़ो न इसे
जलेगी-जलाएगी
रोको,आँधी उत्पाती ।
13
सभ्य गढ़ में
बसी ,सृष्टि की देवी
चाहे सुरक्षा
अग्नि की ज्वालाओं से
खूंखार पशुओं  से ।
14
चिरैया प्यारी
ढूँढे ना मिली कहीं
सभ्य नगर
यात्राएँ विकास की
विनाश –रेल चढीं
15
मथा जो जग
मिले सुधा औ विष
किया चिन्तन
फेंकी विष –गागर
पी के छकी अमृत ।
16
पल दो पल
आओ ! हँस बोल लें
न जाने कब
समय का मछेरा
फाँसे हमे जाल में !!
-0-
Pushpa.mehra @gmail.com

-0-





सोमवार, 11 दिसंबर 2017

785

ताँका रचनाएं : डॉo सुरेन्द्र वर्मा

1

घिरती रात 

दहाड़ती लहरें

समुद्र तट -

यहाँ नहीं हो तुम

फिर भी मेरे पास

2

हर चौखट

भटकता रहा मैं

तुम्हारे लिए

जंगल में बस्ती में

गरमी में सर्दी में

3

इतना वृद्ध

कि छोड़ गए मित्र

सारे के सारे

बरगद पुराना

देता रहा सांत्वना

4

वासंती दिन

हर जगह शान्ति

जूही के फूल

क्यों अशांत होकर

यत्र तत्र बिखरे 

5

वादा करके

मुकर गई थी

मेरी तो छोडो

सौगंध खाकर वो

है कित्ती दयनीय !

 6  

एक अकेला

पर्वत की ढाल पे

चीड का वृक्ष

चारो ओर ताकता

कोई साथी न पास

7

युग युगांत

बीते राह देखते

झोली न भरी

खाली आई थी साथ

रीती चली जाएगी

8

डूबना चाहा

उतराता ही रहा

सतह पर

गहरी थी नदिया

तैर भी तो न पाया

9

सर्वत्र व्याप्त

अनुपस्थित रहा.

एकला चला 

भीड़ जुटती गई

राह बनती गई

(10

गुलमोहर

सहता रहा ताप

हंसता रहा

तंज कसता रहा

क्रोध पर सूर्य के

-0-                                               

डा. सुरेन्द्र वर्मा (मो. ९६२१२२२७७८)

१०, एच आई जी / १, सर्कुलर रोड ,इलाहाबाद -२११००१ 

-0-
2-पुष्प मेहरा 

यादें हैं मेरी
उधार की न कोई,
मिलीं भेंट में
अपनों से ही मुझे
अमूल्य बड़ी
ब्याज़ न वसूलतीं
लुटीं न कभी
मन- पेटिका भरी
चमकती हैं
सदा स्वर्ण-आभा- सी
दिपदिपातीं
रातों में जुगनू -सी
चन्द्र-चन्द्रिका
भोर उजास -भरी
झोंका हवा का
ठंडा मनभावना
जुड़ाता मन
ताप धूप का बन
जलाती मन
कभी झड़ी वर्षा की
फुहार बन
अंतर्मन भिगोती,
अरे ! देखो तो
पेटी में बंद  डाँट
प्यारी अम्मा की
जो तहों में सहेजी
पड़ी थी दबी
आज अचानक ही
खुलने लगी
परतें,सुगंधित
उसकी सारी ,
भीगा जो मन-पट  
मीठी गंध से
हो उठी भावुक मैं
रोए जो नैन
तह से खुला पल्लू ,
माँ का निकला        
पोछने लगा आँसू
धीरे-धीरे से,
अहा !अमोल पल
सुरभित वे
भूलूँगी नहीं कभी
सोचती हुई ,
दौड़ गई तेज़ी से
कभी बस्ती में
कभी सूनेपन में
झूलों-पेड़ों पे
मन्दिरों व बागों में
खलिहानों में
रातों-महफ़िलों में
देखती फ़िल्में -
हर पल बिताए
सभी दिनों की
हसीन थे जो सारे,
उन्हीं दिनों को
तह पे तह लगा
बंद पेटी में
बुरी नज़र वाले
हर साथी से 
छिपा  कर रखूँगी
सूने में ही खोलूँगी ।

-0-

शनिवार, 2 सितंबर 2017

775

1-माहिया
परमजीत कौर 'रीत'
1
खामोशी कहती है
यादें सावन बन
आँखों से बहती हैं
2
आँगन के फूलों की
याद बहुत आ
नानी-घर झूलों की
3
नदिया- सा मन रखना
रज हो या कंकर
सब हँस-हँसकर चखना
4
नभ में मिलती राहें
पाँव धरा पे जो
मंजिल थामे बाहें
5
क्या खोना ,क्या पाना
अपनों के बिन ,जी!
क्या जीना,मर जाना
-0-
2-चोका
 पुष्पा मेहरा

लिपटा क्या है
इस कलेवर में
आया कहाँ से
है ज्ञात ना मुझको
बस ज्ञात है-
भिन्न रूपों-नातों से
आ जुड़े सभी
कहीं न कहीं हम
भिन्न भावों से,
जातिगत भेद से,
धर्म बंध से
मिल गए हैं जैसे
जन्म लेते ही
मधुरिम वात्सल्य,
ममता-डली
बिन माँगे ही हमें
निकटतम
निज माता-पिता से ,
प्रिय-अगाध
तन्द्रिल औ मायावी,
खोये अहं में
धीरे–धीरे जागे तो
मिली रौशनी
अनजाने सूर्य से
मिली चाँदनी
शुभ्रतम चाँद की,
मिलता सुख
संदली हवाओं का
निर्विरोध ही,
बढ़ते रहे सदा
दृश्य पथ  पे
नियति-डोर थाम
लिपटे हुए 
अहं मद में रमे
बेचते रहे
सपने,सुहावने
खरीद कर
सुख-राशि क्षणिक,
मन उनींदा
घिरा रहा तम से
दिखी ना राहें
मतवाले प्रेम की,
बिछड़े साथी
ज्यों नदी के किनारे
लहरें ऊँची
तोड़ती रहीं बाँध
सद्भावना का
जलस्तर स्वार्थ का
बढ़ता रहा
धँसते गए, डूबे,
गुह्य तल में
जो था घाना अँधेरा
मिला न द्वार
न मिली झिरी कोई,
न ही प्रकाश कभी
-0-
pushpa.mehra@gmail.com