दुबड़ी मोनेस्ट्री
भीकम सिंह
युकसुम भारत के सिक्किम राज्य के पश्चिमी भाग में स्थित है। जो
गंगतोक से 123 किलोमीटर
की दूरी पर है ।
सन् 1642
में यह सिक्किम की राजधानी हुआ करता था । कंचनजंघा राष्ट्रीय
उद्यान और कंचनजंघा माउंट पर ट्रैकिंग के लिए आधार शिविर के रूप में ट्रैकर इसी
नगर का उपयोग करते हैं ।
फुंसक
नामग्याल ने सन् 1701 में जिस मोनेस्ट्री को युकसुम में स्थापित किया, उसे दुबड़ी
मोनेस्ट्री के नाम से जाना जाता है । जिसे अब राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया
है और यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सरंक्षण में है । युकसुम के प्राथमिक
स्वास्थ्य केन्द्र से एक छोटी- सी पगडण्डी में दो- तीन किलोमीटर की दूरी पर एक
पहाड़ी की चोटी पर ये अदभुत मोनेस्ट्री है ।जिस पहाड़ी की चोटी पर ये मोनेस्ट्री है उसकी ऊँचाई तक
आँखें पहुँच जाती है इसलिए चढ़ने का साहस जुट जाता है ।हमने भी आहिस्ता-आहिस्ता
चढ़ना शुरू किया ।मौसम बहुत अच्छा था ।मन भी बहुत खुश था ।लगभग आधा घंटे में हम
मोनेस्ट्री पहुँचे ।
मैने देखा मेरे सामने एक बौद्ध भिक्षु
कुछ उठाये चला आ रहा है ।वह मेरे सामने आकर खड़ा हो गया, वह लंबा और रोबीला बौद्ध
भिक्षु मुस्कुराया और उसने स्पष्ट हिन्दी में बोलते हुए दस - बारह अखरोट दिए और एक फल चखने को दिया जो शक्ल और
स्वाद में बिल्कुल आँवले जैसा था ,जिसका नाम उसने मेल बताया
।उसका स्वाद लेने के बाद मैं मोनेस्ट्री के अन्दर ध्यान लगाने बैठ
गया तो ऐसा लगा जैसे बौद्ध भिक्षु ने कहा हो ,
"अनचखा स्वाद चखने की अनुभूतियों जैसा जीवन है, कुछ स्वादरहित " , और फिर लगा मोनेस्ट्री के
अन्दर गुनगुनाता कोई भँवरा बाहर निकलना चाह रहा हो । मैंने आँखें खोली और बुद्ध की
प्रतिमा को देखने लगा। बुद्ध के चेहरे की चमक तसल्ली दे रही थी, मन में अच्छे- अच्छे ख्याल
आने लगे, कहीं बुद्ध वाकई बोल उठे ? ऐसा सोचते हुए, थोड़ी देर बाद मोनेस्ट्री से
बाहर निकलने पर मैंने देखा वह बौद्ध भिक्षु एक पेड़ की छाया में बैठा है। जैसे उसे हमसे
कोई मतलब नहीं है। मैं बौद्ध भिक्षु के पास गया ।अपने पर्स से पाँच- सौ का एक नोट
निकालकर मैंने उसकी
ओर बढ़ा दिया। उसने रुपये लेने से मना कर दिया और निर्लिप्त भाव से आकाश को देखता
रहा ।मैं बौद्ध भिक्षु का यह अदभुत व्यवहार समझ नहीं सका।
इसके बाद हम सभी मोनेस्ट्री की तलहटी की ओर बढ़ गए, जहाँ पर एक स्वच्छ दर्पण- सा
झरना बहता है, जिसे एलीफेंट जलप्रपात के नाम से जाना जाता है। उस रास्ते के दोनों
ओर घने बाँस लहलहाते हुए जैसे हवा के रहस्यों को ढक रहे थे। मैंने जलप्रपात की ओर
देखा, जिसकी एक शिला पर वही बौद्ध भिक्षु विराजमान था, जिसे हम मोनेस्ट्री में
छोड़ आए थे। मुझे आश्चर्य हुआ। वह एक हाथ खड़ा किए ऐसी मुद्रा में बैठा था जिससे
गौतम बुद्ध की ज्ञानप्राप्ति वाली प्रतिमा की स्मृति जागृत हो रही थी। अपराह्न का
तेज सूर्य बाँसों के झुरमुटों से आ रहा था ।मैं सोचता हुआ लौट रहा था ।
स्वप्न वितान
कैसे- कैसे लगाता
मन का हाता ।