डा सुरेन्द्र वर्मा
बेशक आपने करौंदा देखा होगा और खाया भी होगा लेकिन क्या आपने करौंदा-फूल देखा
है? – ‘अनोखी है खुश्बू/ अनोखा रूप / विरला
पहचाने,’ और डा.
सुधा गुप्ता उन विरले लोगों में से
हैं जो अनजाने खिले करौंदा-फूल को पहचान लेती हैं।मुझे कभी कभी लगता है कि यदि
सुधा जी प्रकृति का गान गाने वाली कवियित्री न होकर एक वनस्पति शास्त्री या जीव
वैज्ञानिक होतीं तो इस क्षेत्र में न जाने कितनी खोजें और शोध-कार्य कर डालतीं ; लेकिन साहित्य की किस्मत अच्छी थी उन्होंने अपनी रचनात्मकता
के लिए कविता को चुना।
डा. गुप्ता
मूलत: प्रकृति-वैभव की गायिका हैं।उनके नवीनतम ताँका संग्रह, ‘तलाश जारी रहे’ में भी प्राकृतिक सौन्दर्य का कोई कम गुणगान नहीं है।इस पुस्तक
का पूरा एक खंड ही उन्होंने प्रकृति को समर्पित कर दिया है।इसमें फूल और तितलियाँ
हैं, भौंरों की गुन गुन है, वर्षा से धुली हरी-भरी घास है, फुदकता हुआ टिड्डा है,
तारे हैं, आकाश गंगा है, वासंती रात है, आठें का चाँद है, बिरहन अमावस है, हटीली
आश्विन की धूप है, तोतों की डार है, कुतरे अधखाए फल हैं, वन तीतर हैं, जल कुक्कुटी
है, रूप गर्व से भरे मोर हैं, हरियल हैं, मधु-मक्षिकाएँ हैं, केंचुए हैं, मज़बूत
जबड़ों वाले मगर(मच्छ) हैं, फ्लेमिंगो का दल है, चीते हैं, मृग हैं, हिरन हैं,
टिड्डी-दल है, पेंग्वन है, जल-चरी है, कोयल है, पपीहा है, गुलाब है, कमल है, चित्रित
क्रोटन-पत्र हैं, गुड़हल के फूल हैं, धान
की बालियाँ हैं, तगर की बेल है, मधुमालती है, बच्चों को ललचाता कदम्ब है, पाटल
पुष्प और गुड़हल के फूल हैं।वाराणसी के जगमगाते घाट हैं मोक्ष दायिनी गंगा है, भोर
किरण है।तुलसी चौरा है।सुधा जी ने इन्हें बड़े ध्यान से देखा है और मानव मन से
इन्हें जोड़ा है।केवल पक्षी-अवलोकन (बर्ड-वाचिंग) ही नहीं, फूलों का, पशु-पक्षियों
के व्यवहार का सूक्ष्म परिवेक्षण भी उनका सराहनीय है; लेकिन सबसे बड़ी बात – वे सारा निरीक्षण कुछ इस प्रकार करती हैं मानों ये अमानवी पेड़-पौधे
पशु-पक्षी, मनुष्य से होड़ लेते, अधिक मानवीय हों
खिलकर भी / गुड़हल का फूल / रहता झुका
जिसने रूप दिया / भेजे उसे शुक्रिया ।
रेशमी कोंपलों से / तरुओं की पोशाके॥कोई न पूछे बात / सब चाँद निहारें ।
हज़ारों तोते / सघन तरु पर / आकर लदे
बोझ तले तो दबा / पर हंसता रहा ।
हरे हैं चोगे / गले में कन्ठी माला / एक पेड़ पे
पचासों मिल बैठे / भजें हरिगोपाला ।
ऋतुओं में ऋतु बसंत ऋतु मानी गयी
है, लेकिन आधुनिक शासन पद्धति को देखते हुए सुधाजी हेमंत को राजा के रूप में
संबोधित करती हैं.और जब हेमंत राजा हो तो उसके कठोर शासन से निश्चित ही प्रजा का
सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है –
राजा हेमंत / बड़ा कठोर दिल / दया-ममता
कुछ भी नहीं पास / प्रजा की रुकी साँस।
पुस्तक के ‘राजा हेमंत’ खंड में कवयित्री ने शीत ऋतु की (प्रकारांतर
से असंवेदनशील शासन की) सामान्य जन पर पड़ने वाली कठिनाइयों का तफसील से ब्योरा
दिया है और साथ ही शीत ऋतु के नाजायज़ वैभव को भी रेखांकित किया है।‘दाँत बजाती आई / पौष की हवा’, ‘शीत कन्या बेघर / सर नहीं छप्पर’, ‘सुन्न हो गया / दिन का मज़दूर / बर्फ ढो- ढोके’, ‘मासूम बेजुबान / कमरों में बंद’, ‘दिन किटकिटाता / रात थरथराती’, और भी बहुत कुछ –
तीर- सी घुसी / खिड़की की संध से /
शातिर हवा
आ जमा हुए / बुझी भट्टी के पास / ताप की आस
बेघर लावारिस / आदमी और कुत्ते ।
डा. सुधा गुप्ता ने बड़ी चतुराई से शीत ऋतु और असंवेदनशील
शासन को ‘राजा हेमंत’ शीर्षक खंड में प्रस्तुत किया है।इन तांकाओं में उनका
प्रकृति प्रेम और सामाजिक चेतना दोनों ही मुखरित हुईं हैं।वे धीरे धीरे किस तरह
प्रकृति से समाज की ओर अधिगमन करती हैं यह देखने लायक है।पुस्तक का अगला खंड ‘रिश्तों की डोर’ है।इसमें उन्होंने रिश्तों की कुछ ‘छवियाँ’ दिखाई हैं।रिश्ते केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच ही नहीं होते, प्रकृति और
मनुष्य के बीच भी होते हैं, ‘पशु-पक्षी-मानव’ के बीच
भी होते हैं और प्रकृति के दो या दो से अधिक घटकों के बीच भी होते हैं।कुछ रिश्ते ‘पुण्य’ तो कुछ अभिशाप भी होते हैं, कुछ रिश्ते बार बार याद आते हैं, कुछ ऐसे भी हैं
जिन्हें हम याद करना ही नहीं चाहते।कोई रिश्ता ‘अबोला’ होता है तो कोई ‘अनूठा’ –
बड़ी अबूझ / रिश्तों की यह पहेली / नहीं सुलझी
छोड़-पकड़-द्वंद्व / सदा रही उलझी।
रिश्ते हैं पुण्य / रिश्ते अभिशाप भी / हँसा-रुलाते
धूपछाँही जीवन / की छवियाँ दिखाते ।
प्रकृति प्रेमी होने के नाते छोटे छोटे जीव-जंतुओं तक ने
सुधा जी से अपना नाता जोड़ रखा है।‘नन्हीं भूरी गौरैया’ उनकी प्यारी
सहेली है और ‘मन बहला जाती’ है।चपल गिलहरी खाने के लिए बादाम मांगती है।‘नन्हीं मोतिया’ उनकी ‘धोती घेरके’ पांवों में आ बैठती है।इसके अलावा सामाजिक
रिश्ते तो हैं हीं।‘गोद में पडी
/ नन्हीं परी नतनी’ है, ‘पूरा कृष्ण कन्हैया / लाढला मेरा भैया’ है।कितने ही रिश्ते स्मृतियों में संजोए रखे हुए हैं।‘नानी की ‘रहल’ पर फराफराता ‘रामायण का पन्ना’, ‘दादी के हाथों बना / बाजरे का चूरमा’, ‘बचपन में / मक्का–रोटी औ’ साग’ का स्वाद, ‘फूल पाती से सजे’, हाथों की थाप से बने रेत-घरौंदे - ये सब भी तो रिश्तों की
ही याद दिलाते हैं और उन्हीं के रंग रूप हैं।रिश्ते जो झूठे हैं, बेशक पीले पत्तों
की तरह ‘झर जाएँगे’ लेकिन वे भी ‘जो छील गए / तन और मन को / दुआ उनको.’ आखिर कवि हृदय है!
कवि ह्रदय है तो
आँसू भी हैं और दुःख भी है।कडुवी-तीखी यादें भी हैं और डबडबाई आँखें भी हैं–
बड़ी भीड़ है / आँसुओं के गाँव में / यादों का काँटा
अनायास आ चुभा / छालों भरे पाँव में ।
न मिला कोई / कांधा रोने के लिए / बेबस आँसू /
ख़ाक में गिरते थे / फना होने के लिए ।
दुःख का खरीदार कोई नहीं होता -
आँसुओं की हाट / खरीदार की बाट / कोई न मिला
डब डब डलिया / लौटी है खाली हाथ।
ऐसे में ज़ाहिर है ‘दिल का सुकून’ भंग हो जाता है, उदासी घर कर लेती है और सपने
टूट जाते हैं।अच्छा-खासा चलता-फिरता व्यक्ति ‘प्राणहीन पुतला’ सा बन के रह जाता है।पर यह तो समस्या का कोई हल नहीं है।विचारशील व्यक्ति फिर
क्या करे? सिवा इसके कि किताबें उसकी मित्र बन जाएं और अपने विगत सुखी पलों की
स्मृतियों में वह खो जाए –
तुम जो गए / बड़ी सिमट गई / मेरी दुनिया
चाँद किताबें और / गुज़ारे हुए पल ।
सुख के दिन थे एक सपन था ; लेकिन यही ‘भूला जीवन’ जब याद आता है तो बचपन की मस्त दुनिया एक बार फिर महक उठती
है।बचपन के दिन भी क्या दिन थे! –
याद आ गया / एक भूला जीवन / महका गया
केवडा-खिली-डाल / कोई जो हिला गया ।
कैसे कैसे तो स्वाद, कितने कतने लज़ीज़ व्यंजन ज़बान पर मानों
तरोताजा हो जाते हैं।‘आम चूसना’, ‘ककडी चबाना’, शरद पूनो पर ‘दूध-भिगोये “चौले” खाना, ‘कांजी के बड़े’, ‘केवडा-कुल्फी’, ‘अचार-फांकें’, ‘मठरी कुतरना’, चूड़ा चुभलाना, ‘भुने आलू व भुनी शकरकंदी’, माँ के परोसे पीले चावल, सभी तो याद आते हैं।बचपन के
अनगिनत वो सुख, नोन भरी हथेली, कमरख ,इमली, रेडियो पर फरमाइशी गाने सुनना, बादलों को देखकर ‘काले मेघा पानी दे, पानी दे गुडधानी दे’ गाना, नाचना, ताश की बाजी, चौसर का खेल, कैरम जमाना, खुले आकाश में घुमक्कड़ चाँद को ताकते
ताकते सो जाना, ‘देवदास’ पढ़ते पढ़ते
रो पड़ना, ‘आनंद मठ’ का ‘वन्दे मातरम’ – सभी कुछ पीछे छूट गया ; लेकिन अब
आँसुओं के गाँव में ये स्मृतियाँ ही तो हैं जो यदा-कदा तसल्ली दे जाती हैं।
बेशक डा.सुधा
गुप्ता एक अत्यंत संवेदनशील कवयित्री हैं।आज की सामाजिक स्थितियां देखकर उनका
ह्रदय रो उठता है, ख़ास तौर पर बच्चों और स्त्रियों की दारुण और दयनीय दशा को देखकर
इस पुस्तक की ‘झुलस गई मैना’ खंड में वे स्त्रियों की दुर्दशा का एक जीवंत लेकिन काव्यात्मक
दस्तावेज़ प्रस्तुत करती हैं. –
जले जो वन / रक्षकों की भूल से / कोई न चेता
झुलस गई मैना / राख हुई चिरैया ।
ऑटो से खींच / अगवा कर लिया / मसली कली
बेआबरू करके / फेंकी गई नाली में।
जिसे देखो आज स्त्रियों के शिकार में लगा हुआ है।माता-पिता
तक निर्मम हो गए हैं।सब ओर विपत्ति से घिरी है बेटी।हमारी सभ्यता कन्या-भ्रूण-हत्या से कलंकित हो रही है।यह कैसा अन्याय है कि बेटी को ‘माय’ कोख में ही मार डालती है! स्त्री को एक ‘जिन्स’ बना कर रख दिया गया है।वह ‘विज्ञापन’ के लिए शृंगार करती है।दहेज़-आशंका उसे भयभीत
करती है।शिकारी अफसरों, पाखंडी संतों, छद्मवेषी ऋषियों की लोलुप दृष्टि का वह
शिकार बनने के लिए वह अभिशप्त है।ऐसे में क्या करे स्त्री. डा. सुधा गुप्ता का मत
स्पष्ट है –
तेरी नियति / सीता और अहल्या / बनना नहीं
तू बन ‘छिन्नमस्ता’ / ‘महिषासुर मर्दनी’।
क्रान्ति-मशाल / जिस दिन जलेगी / ‘कामी’ जगत
धू -धू कर जलेगा / ज्वालामुखी बन जा ।
अपनी भूमिका, ‘संग्रह के विषय में’ सुधा जी कहती हैं कि पिछले कुछ समय से देश की
राजनैतिक-सामाजिक विषम, दुखद परिस्थितियों ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया।वे
अपनी व्यथा के सामने सचमुच ‘घुटने टेक बैठीं’।उन्हें
लगा कुछ उमड़ रहा है और उसे कागज़ पर उतार देना बहुत ज़रूरी हो गया है।अपनी पुस्तक के
अंतिम खंड ‘सपाट बयानी’ में उन्होंने अपनी इस सामाजिक पीड़ा को वाणी दी है।कहती
हैं,
करनी पडी / ‘सपाट बयानी’ ही / सच को बाँधा
कविता के दामन / गाँठ खोल के भागा ।
इस सच-बयानी के लिए उनकी नज़र भ्रष्ट करती सत्ता पर पड़ती है
जो कुटुम्भवाद से ग्रसित हो ‘बेनामी संपत्ति’ अर्जित
कर बैठा है; आज के नेताओं पर पड़ती है जो करोड़ों डकार जाते हैं; जीभ कटी जनता पर
पड़ती है जो सदा लुटती रही है।वह देखती हैं कि कानून के चीथड़े उडाए जा रहे हैं, कि
अफसर और नेता जनता का खून चूस रहे हैं, कि पाप का घडा पूरा का पूरा भर चुका है
लेकिन आश्चर्य कि फूटता नहीं।मनुष्य में मानवीयता पूरी तरह समाप्त हो चुकी है –
नई सदी ने / नव सृजन किया / यंत्र-मानव
बेचेहरा भीड़ में / गुम हुआ आदमी ।
अभिशप्त है / इंसानों की दुनिया / कितनी हिंसा!
रोम रोम
समाया / द्वंद्व-द्वेष-मत्सर्य ।
डा. गुप्ता के
इस तांका संग्रह ‘तलाश जारी रहे’ में 370 ताँका संकलित
हैं।हाइकु के बाद ताँका-विधा सुधा जी को विशेष प्रिय रही है, शर्त यही है की
ज़बरदस्ती पांच पंक्तियों में 31वर्ण की
जमात न जोड़ी जाए – गद्यात्मकता हावी न हो, पड़ते हुए एक आतंरिक ‘लय’ का अहसास होता रहे।स्वयं डा. सुधा गुप्ता की ही इस कसौटी पर उनके ये सभी हाइकु
पूरी तरह से खरे उतरते हैं।वह बधाई की पात्र हैं।लेकिन सुधा की अपने इस प्रयास से पूरी
तरह संतुष्ट नहीं हैं।पूर्णता की ओर जाने की लगातार कोशिश में हैं।मनाती हैं कि ‘तलाश जारी रहे’।हर बड़ा रचनाकार इसी तरह सोचता है।वह अपनी तलाश से पूरी तरह
संतुष्ट नहीं होता।इसीलिए इस उम्र और इन परिस्थितियों में भी उनकी तलाश अविराम
जारी है।और अंत में उन्हीं का शीर्षक हाइकु –
दिन जो ढला / सूरज तो खो गया /चाँद भी गुम
काली रात यूँ कहे -/ तलाश जारी रहे…।
तलाश जारी रहे
(ताँका संग्रह): डा. सुधा गुप्ता; अयन प्रकाशन,1/20, महरौली,नई-दिल्ली-110030
,पृष्ठ: 112 ; मूल्य: 220 रुपये;संकरण:2015
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डा. सुरेन्द्र वर्मा
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