हाइबन
अनिता मण्डा
रेगिस्तान में बसंत
लेकिन सच कहूँ तो वासन्ती महक से भी गहरी तासीर वाली एक महक है जो स्मृतियों में बसी हुई है। वो महक बचपन में घुली हुई है। बल्कि बचपन का पर्याय ही है। वसन्त के महीने की नहीं, कार्तिक महीने की।
मैं रेगिस्तान में पैदा हुई, पली-बढ़ी। जहाँ बरसात से साल में सिर्फ एक ही फसल ली जाती
थी। चालीस साल पहले वहाँ फूलों की पहुँच नहीं थी। फूल के नाम पर सिर्फ़ रोहिड़ा के
फूल थे। पलाश जैसे केसरिया रंग में थोड़ी ललाई लिए हुए।
आँखें मूँद कोई महक याद
करूँ, तो सबसे गहरी महक कार्तिक महीने में फसलों के पकने की महक स्मृति पर
दस्तक देती है। वो बचपन की महक थी या कार्तिक की। वो फसलों की महक थी या मेहनत की ; कुछ भी विलग नहीं किया जा सकता।
घर से 6-7 किलोमीटर दूर खेतों में काम करके ढलती साँझ और उगती रात के
मिलने की बेला में घर
लौटने की महक। ऊँटगाड़ी
की सवारी करने की महक। ठंडे रेतीले धोरों में समाती ओस की महक। पके हुए बाजरे के
सीटों की महक। मोठ- मूँग, तिल की फलियों की महक। सँवरती रात के दामन पर उजले
चाँद-तारों की महक। थकान से चूर देह पर उमंग भरे मन की महक। घर पहुँच भोजन पा लेने
की महक। खाली पेट में पड़ते मरोड़ की महक। परिवार के एक साथ होने की महक।
सच, अब न वैसी मेहनत होती है, न वैसी भूख होती है। न वैसी रात होती है, न वैसे चमचमाते चाँद-तारे होते हैं। बहुत-बहुत याद आती है
वो बचपन में खो गए चाँद-तारों की महक।
महक यानी बचपन। बचपन
घुली-मिली सारी खुशबुएँ। कौन सी महक किस पर हावी, नहीं पता। ओस भीगे सुनहरे धोरों की रेतीली मखमली मिट्टी जब पाँव सहलाती थी; जन्नत सी लगती थी।
काली रात में ढिबरी सा जलता
चाँद, ठहरी हुई हवा, आँखों में डेरा डालने को आतुर नींद; इन सबका मिला-जुला इत्र; सबसे अनमोल महक है।
1
स्मृति-चमन
खिल उठा फिर से
महका-मन।
2
मन-वीथियाँ
फिर हुई वासन्ती
खिली स्मृतियाँ।