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शुक्रवार, 24 मई 2024

1178

  

कमला निखुर्पा

 


जेठ की धूप 

सुबह- सवेरे ही

जला अलाव 

छत पे जा बैठे हैं

सूरज दादा 

सकुचाई -सी नदी 

सिकुड़ा ताल

सूने हैं उपवन

खोई चहक 

रोए पंछी की प्यास 

धौंस जमाए

बिना कुसूर के ही 

थप्पड़ जड़े

अरे! लू महारानी 

धूल निगोड़ी 

करती मनमानी 

कभी यहाँ तो

कभी उस मुँडेर

नाचे बेताल 

खिलखिलाता रहा 

गुलमोहर 

धानी चूनर ओढ़

चलता नहीं 

उसपे तेरा जोर

जितनी तपी

उतनी ही खिली वो

चटख हुए

सुर्ख फूलों के रंग 

जितना उसे

आतप  झुलसाए 

तपिस झेल


पंखुड़ियाँ बिछाए ।

हरी शाख पे

पंछी गाए सोहर

धूप में खिले

लाल गुलमोहर

सुर्ख गुलमोहर ।

-0-

[22 मई 2024]

शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2022

1084

 

रश्मि विभा त्रिपाठी

1

ऊँचा तकिया

बिछी पीली चादर

रवि जो लौटा घर,

गिरि ने दिया

बाँहें फैलाकरके

ख़ूब प्यार, आदर। 

2

अनोखा खेल

कभी काँधों पे बैठे

कभी पीठ के पीछे

शिखर देखे

सूरज खोले, मूँदे

रोशनी के दरीचे। 

3


हिम ओढ़के

सबकुछ छोड़के

की शैल ने साधना

है एकमात्र

उत्तरीय काँधे पे

शुद्ध सोने से बना। 

 -0- [ फोटो; कमला निखुर्पा के सौजन्य से]

सोमवार, 5 सितंबर 2022

1070-मन-मयूर

[ एक शिक्षक और प्राचार्य के रूप में  मेरी अनुजाश्री कमला निखुर्पा, जिस विद्यालय में भी रहीं, उसका नाम उन्नत किया। आज उनका एक चोका प्रस्तुत है। ऐसे प्रबुद्ध गुरु को नमन-काम्बोज]


 कमला निखुर्पा

मन-मयूर

हो गया रे मगन

ठुमक नाचे

रिमझिम के संग

बाहों के पंख

पसार उड़ चला 

पुरवा संग

टिप-टिप की धुन

जलतरंग

दूर क्षितिज पर 

 घूँघट पट

खोल बिजुरी हँसी

लजा के छुपी

आए मेघ रंगीले 

बजे नगाड़े

भिगोई चुनरिया

सिहर उठी

लाज से हुई लाल

खिलने लगे

अनगिन गुलाब 

दूर तलक

लहराई पुरवा 

महकी माटी

कुहू-पीहू की धुन

से गूँज रही घाटी ।

-0-

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

883--अमूल्य भेंट


[बहन कमला निखुर्पा द्वारा भेजी अतुल्य एवं अमूल्य भेंट सबको समर्पित। इन उद्गारों के लिए मैं चिर ॠणी रहूँगा। -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’]

(शिक्षक दिवस पर मेरे सृजन गुरु मेरे हिमांशु भैया को समर्पित ये चोका )
कमला निखुर्पा ( प्राचार्या केन्द्रीय विद्यालय , पिथौरागढ़-उत्तराखण्ड)


हाथों में थमा
सृजन की लेखनी
नेह सियाही 
भर यूँ छिटकाई
उठी लहर 
भीगा-भीगा अंतर
तिरते शब्द
उड़े क्षितिज तक 
मिलन हुआ
धरा से गगन का
रच ली मैंने
फिर नई कविता
निकल पड़ी
अनजानी राह पे
मिलते रहे
पथ में  साथी -संगी
कोई हठीली
अलबेली सहेली
हवा वासंती 
बदरी सावन की
प्प से गिरे
सिहरा के डराए
भिगो के माने
रिमझिम की झड़ी 
राह में मिली 
नटकेली कोयल 
छिप के छेड़े
कूक हूक जगाए
बागों में मिली
तितली महारानी
फूलों का हार
पाकर इतराई 
गुंजार करे 
भाट भँवर -टोली
सृजन राह
अनुपम पहेली
 नई -सी भोर
 निशा नई नवेली 
नवल रवि
चंद्रिका-सी सहेली।
मुड़के देखूँ
चित्र;प्रीति अग्रवाल
दूर क्षितिज पार 
तुम्हें ही पाऊँ
गहन गुरु -वाणी
थामे कलम
नेह भर सियाही
बूँदे छिटकी
सुधियों की सरिता 
उमगी बह आई।
-0-

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

880


कमला निखुर्पा

ढूँढे बहिन
भैया की कलाइयाँ
नेह की डोर 
बाँधती चहूँ ओर
छूटा पीहर 
बसा भाई विदेश 
सूना है देश 
आओ घटा पुकारे 
राह निहारे 
गाँव की ये गलियाँ 
नीम की छैयाँ
गर्म चूल्हे की रोटी 
गागर-जल 
आँगन की गौरैया 
बहना तेरी 
लगे सबसे न्यारी 
सोनचिरैया 
पुकारे भैया-भैया !!
सज-धजके
रँगी चूनर लहरा
घर भर में
पैंजनिया छनका 
बिजुरी बन 
चित्र;गूगल से साभार
ले हाथों में आरती 
रोली-तिलक
माथे लगा अक्षत 
भाई दुलारे 
डबडबाए नैन 
छलक जाए  
पाके एक झलक
जिए युगों तलक !!!
-0-

गुरुवार, 25 जुलाई 2019

876


कमला निखुर्पा
1-चाहत मेरी
1
चाहत मेरी-
बूँद बन टपकूँ
मोती न बनूँ
पपीहे के कंठ की
सदा प्यास बुझाऊँ।
2
चाहत मेरी-
कस्तूरी मृग बन
छुप के रहूँ
महकाऊँ जो यादें
खोजें धरा-गगन ।
3
पावन हुई
वैदिक ऋचाओं -सी
जीवन -यज्ञ
समिधा बन जली
पूर्णाहुति दे चली ।
4
लो आई हवा
लेके तेरा संदेशा
रोए जो तुम
भीगा मेरा आँचल
गुमसुम मौसम ।
-0-




2- ओ री बरखा - कमला निखुर्पा

ओ री बरखा
चले जो तेरा चर्खा
बिखरी रुई
भरा है आसमान
बूँदों के धागे
जमी पे हैं बिखरे ।
भीजती धरा
उड़े तरु अँचरा
हँसी चपला
धर हाथ मुँह पे ।
सहमे तृण
पात -पात कंपित
बौराया वट
बूँदों की खटपट
डोला पीपल
हवा की हलचल
डबडबाई
तलैया की अँखियाँ
आया सावन
झूलीं सब सखियाँ
आओ बरखा !
चलाओ तुम चर्खा
गाएँ सखियाँ
रिमझिम की तान
झूमे सारा जहान ।
-0-21 जुलाई 2019
 -0-कमला निखुर्पा
प्राचार्या, केन्द्रीय विद्यालय पिथौरागढ़ ,पोस्ट ऑफिस – भरकटिया
(उत्तराखंड )पिन 262520

शुक्रवार, 5 जुलाई 2019

871


कमला निखुर्पा

1

कहीं भोर है
कहीं साँझ की बेला
खुशियाँ कहीं 
कहीं दु:खों का मेला 
ये जग अलबेला   
-0-

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

843-पास तुम्हें जो पाऊँ



कमला निखुर्पा

आओ तुम
सूरज की तरह
किरण-ताज
पहनकर आज
पूरब-द्वारे
राह तकूँ तुम्हारी
आओ तुम
रोज चाँद की तरह
होऊँ मगन
माँग- सितारे सजा
दुल्हन बनूँ
लाज से शरमाऊँ
आओ तुम
बदरा की तरह
सावन बन
मैं रिमझिम गाऊँ
भीजे जो अंग
पुरवैया के संग
बहती जाऊँ
धक से रह जाऊँ
पास तुम्हें जो पाऊँ  

शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

793


 1-कमला निखुर्पा
1
भोर की दौड़
थी साँझ तक चली 
होड़-सी मची
साथी रूठते गए
पीछे छूटते गए।
2
मंजिल वहाँ
जिसे ढूँढने चले
गुम हो गए
वो कदमों के निशाँ,
पर रुकना कहाँ ।
-0-
2-कृष्णा वर्मा
1
रात औ दिन
हाथ में मोबाइल
बातों में मग्न
तन-मन को घेरे
फिर एकाकीपन।
2
तरीके तौर
गए  सब बदल
मरे संस्कार
इंसानी रिश्ते में जो
आया मंदी का दौर।
-0-
(16 फरवरी-18)
1
थके पाँव थे
दूर-दूर गाँव थे
सन्नाटा खिंचा,
लगा कुछ न बचा-
कि आप मिल गए
2
राहें कँटीली
चुभन व कराहें
बाधाएँ बनी
पास में  ही छाँव थी
कि फूल खिल गए।
3
तलाशा जिसे
भोर से साँझ तक
सूखा हलक
नदी- तीर पर मिले
मन दोनों के खिले।
4
रेत -सी झरी
भरी -पूरी ज़िन्दगी
कुछ न बचा
था सुनसान वन
कि पार था चमन ।
5
भोर -सी मिली
साँझ -सूरज  हँसा
कि आज कोई
आके  मन  में बसा
वह भोर थी तुम्हीं ।
6
घेरते रहे
बनके रोड़े कई
हारने लगे
जब अकेले पड़े
तुम साथ थे खड़े।
7
कामना यही-
जब तन में बचे
साँस आखिरी
अधरों पे हास हो
सिर्फ़ तुम्ही  पास हो।
8
मुट्ठी में कसा
बस तेरा हाथ हो
सदा साथ हो
जितनी  साँसें  बचें
कुछ नया ही रचें।
-0-