कमला निखुर्पा
जेठ की धूप
सुबह- सवेरे ही
जला अलाव
छत पे जा बैठे हैं
सूरज दादा
सकुचाई -सी नदी
सिकुड़ा ताल
सूने हैं उपवन
खोई चहक
रोए पंछी की प्यास
धौंस जमाए
बिना कुसूर के ही
थप्पड़ जड़े
अरे! लू महारानी
धूल निगोड़ी
करती मनमानी
कभी यहाँ तो
कभी उस मुँडेर
नाचे बेताल
खिलखिलाता रहा
गुलमोहर
धानी चूनर ओढ़
चलता नहीं
उसपे तेरा जोर
जितनी तपी
उतनी ही खिली वो
चटख हुए
सुर्ख फूलों के रंग
जितना उसे
आतप झुलसाए
तपिस झेल
पंखुड़ियाँ बिछाए ।
हरी शाख पे
पंछी गाए सोहर
धूप में खिले
लाल गुलमोहर
सुर्ख गुलमोहर ।
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[22 मई 2024]