सुदर्शन रत्नाकर
तितली
बाल रवि अभी-अभी उदय हुआ है। मंद-मंद, सुगंधित शीतल हवा चेहरे का स्पर्श कर रही है। मैं प्रकृति की इस छटा का आनन्द
ले रही थी कि मेरी दृष्टि पीले रंग की एक तितली पर गई ।जाने
कितने समय के पश्चात् आज फूल पर बैठी तितली को देख रही हूँ। कंकरीट के जंगलों में विलुप्त
होते प्राकृतिक उपादान चिंता का विषय बनते जा रहे हैं। चालीसवें माले पर गमलों में
फूल-पौधे लगाकर हरियाली भले ही कर ली जाए : किन्तु तितली तो इतनी ऊँची नहीं न उड़ सकती।
बचपन में भाग-भाग कर तितलियों को पकड़ने की कोशिश और जब पकड़ लेते तो उसकी
छुअन का जो अहसास होता था <उसकी अनुभूति आज भी रोमांचित कर रही है। तितली अब भी मेरे
सामने है। एक फूल से उड़कर दूसरे फूल पर बैठती है, लेकिन लौटकर फिर उसी फूल पर बैठ जाती है। शायद यह फूल उसे अधिक आकर्षित कर
रहा है। गहरे हरे रंग के पत्तों के बीच बैंगनी रंग के फूल और उस पर बैठी पीले रंग की
तितली। इन तीनों प्राकृतिक रंगों की छटा को घूँट-घूँट पीती मैं सम्मोहन में बँधती जा
रही हूँ। मैं इन क्षणों को अपने भीतर समा लेना चाहती हूँ।
तितली उड़ी
फूल-पंखुड़ियों के
गले जा मिली।
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हाइबन
उन आँखों को भूलना आसान है क्या...?
प्रियंका गुप्ता
कई बरस बीत चुके हैं, मुझे हरिद्वार में
हर की पैड़ी पर गए। पर जाने क्यों, जब भी...कहीं भी गंगा किनारे
के घाटों पर जाती हूँ, दो निरीह...बूढ़ी और आशा से भरी आँखें मेरा
पीछा नहीं छोड़ती। जाने कितने सवाल भरे हैं उन आँखों में...जवाब खोजते-खोजते थक गई हूँ,
पर जवाब हैं कि हर बार मुँह मोड़कर चले जाते हैं। घाट की सीढ़ियों पर
उतरती हूँ, तो दो लड़खड़ाते कदम, कँपकँपाते
झुर्झुर हाथ मेरा सहारा लेने को आगे बढ़ आते हैं...पर चाहकर भी उन्हें थाम नहीं पाती।
लपककर हाथ आगे बढ़ाती हूँ...सम्हालो अम्मा...पर फिर जैसे होश आता है। सामने न तो सवालों
से भरी वह आँखें हैं, न वह डगमगाते कदम...और न ही वह कमज़ोर हाथ।
थककर वहीं सीढ़ियों पर बैठ जाती हूँ। नीचे उतरने की हिम्मत नहीं होती।
पंडा कहता रह जाता है...नीचे जाकर आचमन करो बिटिया...गंगा मैया से माँग लो...जो माँगना
है। मैया की मनौती खाली नहीं जाती। पर मैं माँगू भी तो क्या...? अन्दर अचानक ही जो खालीपन आ गया, उसे दूर करने की मनौती
माँगू...या फिर ये...कि बरसों पहले जो सवाल सामने खड़े कर दिए थे तुमने...उनके जवाब
ही दे दो मैया...?
आज भी...बहुत चाह कर भी दिलो-दिमाग़ से वह घटना नहीं निकल पाती। शादी के
कुछ ही दिनों बाद देहरादून गई थी...मँझली बुआ सास के यहाँ...मोहिनी बुआ के यहाँ, तीन दिनों के लिए। दूसरा ही दिन था, जब देवर गौरव और
ननदों दीपा, पारुल और प्रीती ने यूँ ही बैठे-बिठाए हरिद्वार-ऋषिकेश
का प्रोग्राम बना डाला। राजीव तो नहीं जाना चाहते थे, पर उन्हें
मनाने का भार दीपा ने सम्हाला। ऊपर से बुआ-फूफाजी का जोर...अरे, तुम्हारा न सही, बहू और इन सब का मन तो है। हो आओ एक
दिन के लिए ही। हार कर राजीव तैयार हुए और एक बड़ी गाड़ी लेकर हम सब घर से रवाना हो गए.
राजीव को ड्राइवर का पड़ोसी बना पीछे हम चारों फुलटूश मस्ती करते चल पड़े थे।
पहले ऋषिकेश थोड़ा-सा घूमते हुए हम सब शाम तक हरिद्वार पहुँचे...सीधे हर
की पैड़ी पर। एकादशी का दिन था। सुहावना मौसम...एक बड़ा-सा जन-सैलाब...सामने हहराती गंगा
जी। अप्रतिम नज़ारा था। हिम्मत तो नहीं थी, पर सबके
कहने पर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नीचे की सीढ़ियों तक उतरी...गंगा का पानी ले अपने ऊपर
छिड़क भर लिया। वापस ऊपर आकर सीढ़ियों पर बैठ नज़ारा देखते कब शाम का धुँधलका गहरा गया,
अहसास ही नहीं हुआ। शाम की प्रसिद्ध गंगा-महाआरती का वक़्त हो रहा था।
उठने ही लगी थी कि पीछे आ रही बातचीत कान में पड़ी...अम्मा, कब
तक बैठी रहोगी...? भीड़ बहुत है, चलो उधर
कोने में बैठा दूँ। अब कोई न आने वाला...बेकार ज़िद किए बैठी हो।
पीछे मुड़ कर देखा, अस्सी-पिचासी साल
की एक बूढ़ी अम्मा मुझसे एक-दो सीढ़ी पीछे बैठी हुई थी। झुर्रीदार, पोपला मुँह...नाक पर बार-बार फिसल-सा आता मोटा चश्मा, जिसे वह नाक सिकोड़कर अपनी जगह पर टिकाए रखने का असफल प्रयत्न कर रही थी...और
सफल न हो पाने पर गर्दन हल्की ऊँची कर उसे गिरने से बचाए हुए थी। सफ़ेद, थोड़ी मैली-सी धोती। कद शायद चार-साढ़े चार फुट से ज़्यादा नहीं रहा होगा। हाथ
में एक गँदलाई-सी पोटली बड़े जतन से सहेजे हुए थी...मानो डर हो कि अशक्त जान कोई वह
पोटली उनसे छीन न ले जाए। उस आदमी के उनके वहाँ से उठ जाने के इसरार के जवाब में उन्होंने
बगल में रखी लाठी एक हाथ से पकड़ ली थी, जैसे ज़रा भी जबर्दस्ती
हुई नहीं कि वह उस लाठी से उसका सिर ही फोड़ डालेंगी।
वो व्यक्ति उन्हें वहाँ से उठाने की कोशिश कर रहा था और वो...हम न जाबे, बउआ अइहें तो केहर ढूँढबे करि हमका...कहती उठने से इंकार किए जा रही थी।
जाने क्यों हल्की उत्सुकता लगी। खुद को रोक नहीं पाई तो पूछ ही लिया...क्या हुआ अम्मा...?
वह बूढ़ी अम्मा टुकुर-टुकुर मुँह देखने लगी। जाने मेरा सवाल समझ नहीं
आया था या वह खुद नहीं समझ पा रही थी कि मेरी बात का जवाब क्या दें। उत्तर उस आदमी
ने दिया...हुआ कुछ नहीं बिटिया। इनका बेटा इस बुढ़ापे में धोखा दे गया और ये हैं कि
इस बात को मानने को तैयार ही नहीं। सुबह से इन्हें धोखा देकर यहाँ बैठा गया कि धर्मशाला
ठीक करके आता हूँ...तब तुम्हें ले जाऊँगा। न उसको आना था, न वह
आएगा। पर अब अम्मा को कौन समझाए...? इस तरह बीच में बैठी हुई
हैं, भीड़ बढ़ रही। इधर लोग आरती के लिए खड़े होंगे...कहीं दब-दुबा
गई तो क्या होगा...?
अम्मा शायद उसकी बात समझ रही थी, तभी गरियाने
के से अन्दाज़ में अंट-शंट बोलने लगी...जिसका सार यही था कि उनका बउआ जब कह कर गया
है, तो आएगा उन्हें लेने। पर हकीक़त तो शायद सच में कुछ और ही
थी। जिस तरह अपने विश्वास के समर्थन में उन्होंने मेरी तरफ़ देखा, उसमें दिए की टिमटिमाती लौ-सी एक उम्मीद थी कि सच में उनका बउआ उन्हें इस
समय लेने आएगा न...? उम्र के इस पड़ाव पर, जब वे उसका सहारा नहीं बन सकती...वो उनको काँधा देने में हिचकिचाएगा तो नहीं
न...? उनके इस विश्वास को आधार देने की कोई उम्मीद मेरे पास भी
नहीं थी, सो मैंने भी नज़रें चुरा ली। आखिरकार उन्हें वहाँ से
उठना ही पड़ा। राजीव के नाराज़ होने के कारण वहाँ से मुझे भी हटना पड़ा...पर जाते-जाते
पीछे मुड़कर देखा...लड़खड़ा कर खड़ी होती अम्मा के हाथों से उनका आखिरी सहारा...वो लाठी...एक
झटके से छूट कर जाने कहाँ विलीन हो चुकी थी।
भुला न पाऊँ
मिचमिची वह आँखें
सहारा माँगे।