1-सुदर्शन रत्नाकर
भय
भय, यानी डर।इसे न तो देखा जा सकता है, न ही छुआ जा सकता है। यह एक भावना है
और इसे बस प्रेम की तरह अनुभव किया जा सकता है।प्रेम किसी अच्छी वस्तु, व्यक्ति अथवा विचार के प्रति होता है लेकिन भय हमेशा बुरी वस्तु, व्यक्ति, भावना के कारण जन्म लेता है।भय वास्तव है कुछ नहीं है मन का वहम है यह, क्योंकि एक व्यक्ति को अंधेरे से भय लगता है लेकिन दूसरे को नहीं।
शायद
उसे अंधेरे में आनन्द आता होगा तभी वह ड़रता नहीं।
किसी
को ऊँचाई से डर लगता है, किसी को पानी से ,किसी को हवाईजहाज़ की यात्रा में भय लगता है।
अकेले
रहने में, भीड़ के साथ चलने में।
जीवन
में कुछ खो देने का डर, परीक्षा में असफलता का डर, प्रेम में बिछुड़ने का डर, व मृत्यु का डर
। बस
डर - डर ,भय।हमारे अंतर्मन में पनपती एक भावना जो सदैव हमें क्षीण बनाती है, कुछ नया करने
का मार्ग अवरुद्ध करती है और हम इच्छा रहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते और फिर यही भय हमें अवसाद के गर्त में धकेल देता है।
जहाँ
से तनाव उत्पन्न होता है, जो हमारे तन-मन का विनाश करता है।
यह एक ऐसी परिधि है, जिसके भीतर हम घूमते तो रहते हैं ; लेकिन बाहर निकलने की बात नहीं सोचते।
बात मन की और सोच की है ।
इस मन को अपनी इच्छाशक्ति से पकड़ना है, सुदृढ़ बनाना है, सोच को बदलना है अर्थात् भावनाओं को नियन्त्रित करना है, जो हमें भय की ओर धकेलती हैं और हमारे सर्वनाश का कारण बनती हैं।
कबूतर
की तरह बिल्ली से बचने के लिए नादानी में आँखें बंद कर लेने से भय तो नहीं रहेगा परन्तु प्राण अवश्य चले जाएँगे।
मन का भय
बाधक है बनता
रास्ता रोकता।
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2-रश्मि विभा त्रिपाठी
1
व्यथित मन
व्यर्थ सारे जतन
दुख- पीड़ा सघन
प्रिय तुम्हारा
आशा- गीत- गुंजन
अहो ! अभिनन्दन ।
2
बसे हुए वे
भले दूर नगर
रखते हैं खबर
मेरी आँखों में
पीड़ा जो अँखुआई
उन्हें नींद न आई ।
3
सर्वविदित
शौर्य अपरिमित
भीतर ही निहित
अवलंबन
फिर किसके हित
'मन' तू अविजित ।
4
मुक्तामणि- सा
उज्ज्वल आशा- रत्न
प्रिय का एक यत्न
दुख- द्रावण
जीतूँ जीवन- रण
ले विजय का प्रण ।
5
उर उचाट
उनको ही पुकारूँ
जब- जब भी हारूँ
प्राणप्रिय को
किस विधि बिसारूँ
श्वास- संग उच्चारूँ ।
6
अन्तर्मन में
शौर्य अपरिमेय
मैं जो अपराजेय
एकल श्रेय
तुम्हारी मधु- वाणी
सदा शुभ कल्याणी ।
7
नहीं अपेक्षा
कोई बने सम्बल
एकाकी हूँ सबल
संग प्रिये का
आशीष अविरल
'हो जय अविचल' ।
8
नेह निर्मल
दे आशाएँ नवल
जीवन कल- बल
दिव्य दीपिका
करे सदा प्रज्वल
मन- गेह उज्ज्वल।
9
प्रेम- रंजित
भाव- गुंजा पुष्पित
खुश्बू अपरिमित
प्रिय माली- से
करें सदा सिंचित
मन- प्राण हर्षित।
10
प्राण मुदित
प्रेम अपरिमित
मन में मुकुलित
भाव ब्रह्म- सा
प्रिय को हो विदित
हूँ सुखी या व्यथित।
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