मंगलवार, 24 अप्रैल 2018

804


हाइबन-
अनिता मण्डा
1-नादाँ हवाएँ


कभी सहसा बादल घिरते हैं, काली घटाएँ उमड़कर आती हैं। मोटी-मोटी बूँदें टप-टप का संगीत बनाती हैं। भीगी मिट्टी की सौंधी महक़ भीतर तक भरने को साँस इतनी गहरी हो जाती है कि आँखें स्वतः मूँद जाती हैं। बावरा मन पहले टप-टप के संगीत में भीगता है फिर सौंधी महक़ में। तन में एक तरंग उठती है झूमकर भीगने की, उसी तरंग में लबों पर कोई बरसाती गीत आ विराजता है। बरसों के बिछड़े पल क़रीब आने को मचलते हैं। कोई भीगी सी स्मृति सरसराती हवा में बिखर जाती है। तभी निगोड़ी हवा को जाने क्या सूझती है कि बादलों को हाँक ले जाती है। उमगी इच्छाओं का हिलोर फिर तलछटी पर जा बैठता है।
नादाँ हवाएँ
साथ उड़ा ले गई
काली घटाएँ।
2-सुधियाँ

अपने शहर में अरसे बाद आना अपनी स्मृतियों की हर शय पर जमी मिट्टी की पर्तें झाड़ना है। चाय की गुमटी, खोमचे वाला, पार्क की बेंच पर बैठे बुजुर्ग, फेरी वालों की आवाज़ें सब कुछ कितने समय बाद भी मन में वैसा का वैसा ही बना रहता है। एक चित्र सा जिसमें सभी चीज़ें चलती रहती हैं पर बदलती नहीं। चलती हुई चीज़ों की स्थायी  स्थिरता।  बरसों बाद भी वो चेहरे कभी बूढ़े नहीं होते। पुरानी परिचित गलियाँ, आइसक्रीम के ठेले, बसों के हॉर्न ,जाने किन किन चीज़ों से बातें निकल निकल आती हैं। एक पल पहले जो बात ख़ुशी बन याद आई थी अगले ही पल ने उसका अनुवाद उदासी में कर दिया।
वही गलियाँ
थाम हथेली चलीं
साथ सुधियाँ।

-०-
3- गौरव


रात की कालिख़  पोंछ प्राची दिशा से स्वर्ण रश्मियों की सवारी नित्य आ पहुँचती है जैसे कोई प्रशिक्षण पाया हुआ सैनिक कभी अनुशासन नहीं भूलता। कोने-कोने से तम के अवशेष बुहार कर उजाले की विविधरंगी सीनरी सज जाती है। उजाले के कई रंग होते हैं। अँधेरे का रंग सिर्फ़ अँधेरा ही होता है। जागते ही भोर निर्मल ओस से अपना मुँह धोती है। ओस कभी बासी नहीं हो सकती। उसे रोज़ बनना होता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि कल की ओस से आज की भोर मुँह धोए। भोर हमेशा नई होती है। दोपहर कल की दोपहर की तरह अलसाई हो सकती है, शाम कल की शाम की तरह उदास, रात कल की रात की तरह अँधेरी, पर भोर हमेशा नई होगी। जैसे खिलखिलाहट हमेशा नई होती है। तो भोर और ओस दोनों एक जैसी होती हैं भले ही भोर के आने पर ओस मिट जाए। वही उसकी सार्थकता है। सार्थक होकर मिटने में मिटने का रंज शामिल नहीं होता। यहाँ मिट जाना ही उसका गौरव है।
ओस से धोए
भोर अपना मुख
सरसे सुख।

-०-

सोमवार, 23 अप्रैल 2018

803


हाइबन
1-सुदर्शन रत्नाकर
प्राकृतिक उत्सव
सुबह उठते जैसे ही दरवाज़ा खोला, शीतल ठंडी हवा के झोंके चेहरे को छूते हुए सारे बदन को भी रोमांचित कर गए. नारियल के पेडों की शाखाएँ मस्ती में झूम रही हैं। भोर के होते ही सागर में धीमी गति से उठती-गिरती लहरें दिखाई दे रही हैं। दूर-दूर तक फैला हुआ सागर हरा, नीला, काला, मटमैला दिखाई दे रहा है। चारों ओर शांत, नीरव वातावरण। कहीं भागदौड़ नहीं। गुनगुनी धूप अच्छी लग रही है। सर्दी होने पर भी मौसम सुहावना है। वुडकटर पक्षी का जोड़ा दीवार पर आकर बैठ गया है। , स्वीमिंगपूल में चोंच भर पानी पीकर, फिर डुबकी लगा कर उड़ जाता है। चिडिया का एक जोड़ा अभी भी दीवार पर बैठा है। शायद घोंसला बनाने की जगह ढूँढ रहा है।
पेडों पर बैठे अनगिनत पक्षी अपनी-अपनी आवाज़ में कलरव कर रहे हैं। उनके स्वर में संगीत है, लहरों के उठने-गिरने में संगीत है, हवा की गति में संगीत है। धीरे-धीरे फैलती सूर्य की किरणों में संगीत है। वातावरण की नीरवता में यह संगीत कितना मधुर लग रहा है। मैं घूँट-घूँट कर हवा पी रही हूँ, पक्षियों की छोटी-छोटी उड़ाने देख रही हूँ। यह संगीतमय प्रभात बेला का आनन्द मुझे रोमांचित कर रहा है।
मैं इस प्राकृतिक उत्सव को अपनी आँखों में बसा लेना चाहती हूँ जो मुझे महानगरों की ऊँची इमारतों और भीड़ भरी सड़कों में दिखाई नहीं देगा।
महानगर
लील गए प्रकृति
सपना हुई.
-0-
1-कमला घटाऔरा
1
मात प्रकृति
लगी सजाने नित
धरती बिटिया को
दे दे चुनरी
हरी, कभी सफेद
कभी रंग बिरंगी।
-0-

2-सब तमाशबीन
अनिता ललित
मन ये मेरा
ख़्यालों के जंगल में
फिरे अकेला!
यूँ काँटों में उलझा
है रस्ता भूला!
भटकती निगाहें–
ढूँढ़ें पनाहें!
थकी मैं पुकार के
कोई तो आए
नई आस जगाए
राह सुझाए!
हो ख्व़ाब में ही सही-
हाथ बढ़ाए!
आग का दरिया ये
पार कराए!
गहराते अँधेरे
रात के घेरे
हूक-भरी चिमनी
सन्नाटा चीरे!
ज़िन्दगी ग़मगीन
फ़रेबी साए-
क्या अपने, पराए
सब तमाशबीन!
-0-1 / 16 विवेक खंड, गोमतीनगर, लखनऊ-226010
ई मेल: anita. atgrace@gmail. Com
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शनिवार, 7 अप्रैल 2018

801


डॉ ज्योत्स्ना शर्मा
1
जीवन तो होम किया
पर जिद ने मेरी
पत्थर को मोम किया।
2
कब दुख से घबराए
तानों के पत्थर
हरदम हमने खाए ।
3
धीरज तो खोता है
पत्थर के दिल में
सोता भी होता है।३
4
हाथों से छूट गया
पाहन से लड़कर
मन-दर्पण टूट गया।
5
माला अरमानों की
देकर चोट गढ़ी।
मूरत भगवानों की।
6
ना कहती ,ना सुनती
पाहन पीर हुई
बस अँधियारे बुनती।
7
अरमान नहीं दूजा
चाहत में तेरी
हर पाहन को पूजा ।
8
सब शिकवे भूल मिले
फिर तुमसे मिलना
पत्थर पर फूल खिले ।
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