प्रीत का रंग
डॉ.महिमा श्रीवास्तव
होली आती रही और जाती रहीं मेरे जीवन में।
कोई भी तन या मन, किसी को ना रँग पाई, मात्र एक के अतिरिक्त।
समय की लहरों को पार कर मन सुदूर अतीत में जा पहुँचता है।
बचपन में होली खेलने से बहुत डरती थी। याद पड़ता है कि पिताजी जब रँगे-पुते होली खेलकर घर आते थे तो मैं उनसे रूठ, चारपाई
के नीचे जा छुपती थी।
बचपन की दहलीज़ पार कर किशोरावस्था में प्रविष्ट हुई।
पन्द्रह वर्ष की आयु व अत्यंत शर्मीली- से स्वभाव वाली एक लड़की यानी मैं।
उस वर्ष होली पर सुबह-सुबह द्वार की घंटी बजी, तो पता नहीं कैसे मैं दरवाज़ा खोलने जा पहुँची।
पर यह क्या?
द्वार खोला ही था कि मेरे गालों पर गुलाल मल दिया व सामने खड़ा प्रतिवेशी
परिवार का किशोर पुत्र आण्टी को पूछता अंदर आ गया।
मैं सिहर उठी थी, इतना दुस्साहस?
संभवतः मुझे पहली व अंतिम बार होली पर तभी रंग लगाया गया।
विवाह होकर जिस घर आई वहाँ होली खेलना पूरी तरह वर्जित था।
पूरा दिन त्योहार पर नाश्ता-खाना बनाने
में ही व्यतीत हो जाता था।
एकरस जीवन में रची बसी मैं भूल गई कि कभी किसी ने मुझे भी रँगना चाहा था, खुशियों के रंग से।
1
होली मनाने
तन मन रँगने
फिर आओगे?
2
प्रीत का रंग
होली पर हो संग
बाजे मृदंग।
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डॉ महिमा श्रीवास्तव
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