गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

1208

डॉ. सुरंगमा यादव

  1.आसमान में सीढ़ी

 


महानगर के जंगल में, अपार्टमेंट्स रूपी वृक्षों पर फ्लैट के घोंसले में रहने को विवश आज का बचपन जमीन और आसमान दोनों  के सुख से वंचित-सा हो गया है. आज उसे वह अल्हड़ आनंद कहाँ, जो हमने आम-अमरूद के बाग में चुपके से कच्चे फल तोड़कर भागने में  पाया।  बरसात में कागज की नाव बनाने के लिए कापी के पेज फाड़ना,अमावस्या के गहरे काले अँधेरे को देखकर डरना और चाँदनी रात में उजाला होने के कारण भय कम लगना तथा रात में छत पर खुले आसमान के नीचे लेटकर चंद्रमा पर चरखा कातती बुढ़िया की कहानियाँ सुनने का सुख बचपन की अमूल्य निधि है।  आज के बच्चे फुल मून और न्यू मून बस किताबों में ही पढ़ते हैं, बिजली के प्रकाश से जगमगाते शहरों में उन्हें पता ही नहीं कि कब पूर्णिमा है और कब अमावस।  

उम्र के पहाड़ पर चढ़ते-चढ़ते मन जब-तब फिसलकर बचपन की ओर चला जाता है अतीत की ओर , ये फिसलन मन को गुदगुदा देती है।  आज भी जब मैं अपनी छत पर जाती हूँ और आसमान को देखती हूँ, तो बचपन की उस कल्पना को याद करके हँस पड़ती हूँ, जब मैं अकसर सोचा करती थी कि आसमान कितना ही ऊँचा क्यों न हो, यदि हम बहुत-सी सीढ़ियों को जोड़कर एक लम्बी-सी सीढ़ी बना लें, तो क्या आसमान तक नहीं पहुँच सकते।  माँ हँसकर कहती- "बेटा आसमान बहुत ऊँचा है; लेकिन  अपने कार्यों से हम आसमान की ऊँचाई पा  सकते हैं। ''  अबोध मन की यह कल्पना कहीं न कहीं मन के किसी कोने में आज भी पल रही है.

 किस्से-कहानी

चाँद-सितारे भूला

महानगर।

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2.परख

 चाचा जी के पहुँचने से पहले ही स्मृतियों ने आकर आतिथ्य ग्रहण कर लिया।  उस दिन चाचा जी की छोटी बेटी की शादी थी।  चाचा जी बिटिया की शादी में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते थे।  बारात के  स्वागत सत्कार से लेकर दान-दहेज सब सामर्थ्य से बढ़कर दिया।  इस खुशी के मौके पर भी किसी पुरानी चोट की तरह टीस लहर मार देती थी,जो उनकी बातों और चेहरे से साफ झलकती थी।  रोबीला चेहरा,घनी मूँछें सामने वाले को प्रभावित करने वाली थीं।  वे अकसर कहा करते थे-‘‘बच्चों को अच्छे संस्कार देना चाहिए।  हमारी तो दोनों बेटियाँ सुशील और संस्कारी हैं’’ यह कहते-  कहते  उनका हाथ मूँछों पर चला जाता; लेकिन जब उनकी अपनी बनायी कसौटी पर संस्कार परखने की बारी आ,तो उन्हें गहरा धक्का लगा।  मूँछों का ताव और युवावस्था की हठ दोनों आमने-सामने थीं।  अंततः दोनों ने एक-दूसरे को अस्वीकार कर दिया।  धीरे-धीरे वक्त बीतता गया।  एक दिन  बूढ़ा शरीर बीमारी की गिरफ्त में आ गया।  सूचना मिलते ही छोटी बेटी और दामाद आ गए; लेकिन यह क्या, जो दामाद कई-कई दिन रुककर आवभगत कराता था,दूसरे ही दिन जाने को तैयार हो गया।  बेटी ने किनारे ले जाकर उसे समझाना चाहा, तो जवाब में उसके दो टूक शब्द उनके कानों में चुभने लगे-‘‘जिस लड़की के भाई ना हो,उससे शादी इसीलिए नहीं करना चाहिए, बुढ़ापे में बुड्ढे-बुढ़िया की देखभाल का झंझट रहता है।  वो तो इतना दहेज ना मिला होता, तो मैं भी कभी नहीं करता।  यहाँ अस्पताल में मेरा दम घुटता है।  मैं नहीं रुक सकता। ’’

चाचा जी समझ चुके थे ,उनकी पारखी आँखों ने धोखा खाया है।  पाँच साल पहले जब बड़ी बेटी ने कोर्ट मैरिज की, तभी से उन्होंने उससे अपना रिश्ता खत्म कर लिया।  पिता की बीमारी का पता पाते ही वह अपने पति व चार साल के बेटे के साथ भय,चिंता और संकोच का दामन थामे पिता के सामने थी।  बड़े दामाद ने अस्पताल में रहकर रात-दिन उनकी सेवा की।  उसका सेवा भाव देखकर उनकी आँखें लगातार चुपचाप उसके प्रति अपने मन में जमे मैल की पर्त धो रही थीं।  वह मन ही मन कह रहे थे-इसे कहते हैं संस्कार।

      अस्पताल से डिस्चार्ज होते समय नर्स ने कहा- ‘‘आपके बेटे ने आपकी बहुत सेवा की,आप बहुत भाग्यशाली हैं।  रुँधे गले से वे इतना ही कह पा‘‘यह बेटा मैंने अपनी बेटी की बदौलत पाया है। ’’

 वक़्त जो पड़ा

कितने मुखौटों से

 परदा हटा।

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3.आँधियाँ/ डॉ. सुरंगमा यादव

 आँधियाँ जब आती हैं, तो सभी पेड़ों को झंझोड़ती हैं,कुछ आँधियों की धक्का-मुक्की सह नहीं पाते और गिर जाते हैं । कुछ बिना विचलित हुए आँधियों का सामना करते हैं और अपने अस्तित्व को बचा लेते हैं। दुःख किसी न किसी रूप में सभी के जीवन में आता है,जो साहसी होते हैं दुःख की ज्वाला में तपकर और निखर जाते हैं। कुछ ऐसे ही विचारों से अपने मन को रीचार्ज करते हुए वह जैसे निश्चय कर रही थी कि ऐसे संबंध जो जीवन को दुष्कर बना दें, उन्हें ढोना क्या ईश्वर प्रदत्त  अनमोल जीवन के साथ न्याय है? नहीं कदापि नहीं।  जब स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर हो जायें तो क्लेश सहने से क्या लाभ? समाज में ऐसी बहुत -सी महिलाएँ हैं जिन्होंने कष्टकारी स्थितियों का सामना किया है या कर रही हैं।   इनमें कई ऐसी भी हैं जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में बड़े धैर्य से काम लेकर स्वयं को स्थापित किया। हमें दूर जाने की जरूरत नहीं है, अपने नजदीक ही हम ऐसा उदाहरण देख सकते हैं ,जो न कभी संकटों से घबरायीं न आशा का दामन छोड़ा और आज वह मान-प्रतिष्ठा व स्थान उन्हें प्राप्त है जिस पर कोई भी गर्व कर सकता है। यही सोचते हुए वह अपने मुकदमें की तारीख पर कोर्ट के लिए निकल पड़ती है।

वृक्ष हैं वही

जो तूफानों से लड़े

आज हैं खड़े।

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सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

1207-मेरे बचपन का साथी

 

हाइबन— मेरे बचपन का साथी

रश्मि विभा त्रिपाठी 

 


मेरे गाँव में मेरी हवेली के ठीक सामने जो बड़ी— सी हवेली थी, उसके पीछे के बड़े— से आँगन में खूब सारे पेड़- पौधे लगे हुए थे। स्कूल से लौटने के बाद मैं रोज उस हवेली के आँगन में जाती थी और एक पेड़, जिसके नीचे की धरती पर हमेशा लाल गलीचा— सा बिछा रहता था, मैं वहाँ रोज खेलती मेरी दोस्त के साथ। मेरा छुट्टी का तो पूरा दिन ही वहाँ बीतता था। तब मुझे नहीं पता था— पेड़ का अपने- आप अपने फूल गिराना। मुझे तो तब यही लगता था कि मैं जो माँ की बात मानकर इस पेड़ की डाली से फूल नहीं तोड़ती हूँ तो खुश होकर ये खुद ही मेरे लिए अपने फूल गिराता है और मैं खुशी से भरकर उन झरे फूलों को अपनी हथेलियों में भर लेती। खूब उनसे खेलती। वो कागज— से फूल मुझे बहुत लुभाते।

एक दिन गाँव छूटा तो जिसके साए में मेरा बचपन बीता, वो पेड़ भी छूट गया मगर वक्त की राह पर हर पल बहुत याद आए वो कागज- से फूल और बगैर खुशबू के महकाते रहे मुझे बेसाख़्ता मेरी यादों में आ- आकरके। बचपन में मुझे उस पेड़ का नाम भी नहीं पता था, पता थी तो बस बारह मास उसके खिलने की आदत।


आज हू- ब- हू वैसा ही पेड़ दुबारा देखा
, तो देखती रह गई, एकटक— याद आ गया मेरे बचपन का साथी। मैंने नब्ज देखी— पहली बार दिल जोरों से धड़क रहा था (वरना जिए जाने के बाद भी जीने का अहसास नहीं होता था कई बार तो) उसकी याद ने यकीन बनाए रखा था लेकिन यूँ रू-ब- रू होकर आज मेरे यकीन को पुख़्ता कर दिया कि ज़िन्दगी में जिधर देखती हूँ, उधर काँटे ही काँटे हैं मगर इन काँटों के बीच भी ये जो मेरी पलकों पर फूल खिल रहे हैं उम्मीदों के, और नजरों का नशेमन गुलजार है ना, उसी बोगनबेलिया ने बचपन में मेरे सर पर हाथ रखकर मुझे आशीष दिया है, (आज मुझे इसका नाम मालूम हुआ, बचपन में तो बस खोई रहती थी उसके बारह मास के खिले सुर्ख काजगी फूलों की सुंदरता में)। मेरी बात शायद कुछ एक को अजीब लगती है जब मैं कहती हूँ कि पेड़ों के आशीष देने की बात करती हूँ, कुछ ये सोचकर हँसते हैं कि पेड़ों के तो हाथ नहीं होते! 

मैं बचपन से माँ को देखती आई हूँ— बरगद और पीपल की हमेशा से पूजा करते हुए। माँ मानती हैं कि पेड़ पुरखे हैं हमारे, ये सच में आशीष देते हैं हमें।

पेड़ सच में आशीष देते हैं, कोई सर झुकाकर तो देखे? मेरी यादों के जैसे इस पेड़ के साए में खड़े होकर मैंने आँखें बंद कर लीं और चली गई सोच के गलियारे से अतीत की हवेली के आँगन में, जहाँ मेरे बचपन का पेड़ है, उस पेड़ के नीचे गई और भर लीं अपनी हथेलियाँ फूलों से, अपने सर पर महसूस किए कागजी फूल— से पोर और बगैर खुशबू के महक गई मैं फिर लौट आई वक्त की कँटीली राह पर—

 

मेरी गुइयाँ

बोगनबेलिया है

सदा खिलूँगी!

 

 

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

1206

 

भीकम सिंह 


1

खेत का दुःख 

खलिहान जानता,

ठोकर भरे 

दगड़ों की टीस भी 

पहचानता,

मीलों -मील चलके 

तलाशता है 

शस्यों के अच्छे -भाव,

और चूल्हों के 

हँसते हुए तवे,

अनथक कूल्हों से।

2

नीम के नीचे 

पुराने अचार की

गंध ज्यों आई 

बुझ गई त्यों बीड़ी 

तभी लगाई 

खलिहान खुश है 

दिन चढ़ा है 

भली है परछाई,

घूँघट में से

जैसे कोई प्रतीक्षा 

वहीं सिमट आई। 

 3

बीजों के बो
उगे अंकुर सारे
लहराए हैं
गाँवों के मौन मन
बतियाए हैं
मुर्झाए पड़े दिन
हरियाए हैं
खेतों में फसलों के
फलने तक
साँझ की मेड़ों पर
गाँव चल आए हैं।

4

सूर्य ने ढका
भीगा -सा खलिहान
खेतों में आई
ज्यों उजली मुस्कान
उँगलियों ने
खोली और सँवारी
गेहूँ की बाली
सिरहाने आ बैठी
शर्मीली हवा
मेघों की देख रति
हाथों में आई गति।

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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

1205

 

हाइबन

अनिता मण्डा

रेगिस्तान में बसंत

 वसन्त ऋतु में रंग-बिरंगे फूलों से दिलजोई करते तितली, भँवरे, मधुमक्खियाँ किसका मन नहीं मोहते। शीत का कम होना और ग्रीष्म से दूरी ख़ुशनुमा माहौल बना देती है। पूरी प्रकृति अँगड़ाई लेकर  जाग उठती है। वसन्त प्रकृति की मुस्कान है। वासन्ती हवा में घुली महक का अलग ही रोमांच होता है। क्या इससे भी मोहक कोई महक हो सकती है


लेकिन सच कहूँ तो वासन्ती महक से भी गहरी तासीर वाली एक महक है जो स्मृतियों में बसी हुई है। वो महक बचपन में घुली हुई है। बल्कि बचपन का पर्याय ही है। वसन्त के महीने की नहीं
, कार्तिक महीने की।

मैं रेगिस्तान में पैदा हुई, पली-बढ़ी। जहाँ बरसात से साल में सिर्फ एक ही फसल ली जाती थी। चालीस साल पहले वहाँ फूलों की पहुँच नहीं थी। फूल के नाम पर सिर्फ़ रोहिड़ा के फूल थे। पलाश जैसे केसरिया रंग में थोड़ी ललाई लिए हुए। 

 

आँखें मूँद कोई महक याद करूँ, तो सबसे  गहरी महक कार्तिक महीने में फसलों के पकने की महक स्मृति पर दस्तक देती है। वो बचपन की महक थी या कार्तिक की। वो फसलों की महक थी या मेहनत की ; कुछ भी विलग नहीं किया जा सकता।

घर से 6-7 किलोमीटर दूर खेतों में काम करके ढलती साँझ और उगती रात के मिलने  की बेला में घर लौटने की  महक। ऊँटगाड़ी की सवारी करने की महक। ठंडे रेतीले धोरों में समाती ओस की महक। पके हुए बाजरे के सीटों की  महक। मोठ- मूँग, तिल की फलियों की महक। सँवरती रात के दामन पर उजले चाँद-तारों की महक। थकान से चूर देह पर उमंग भरे मन की महक। घर पहुँच भोजन पा लेने की महक। खाली पेट में पड़ते मरोड़ की महक। परिवार के एक साथ होने की महक।

सच, अब न वैसी मेहनत होती है, न वैसी भूख होती है। न वैसी रात होती है, न वैसे चमचमाते चाँद-तारे होते हैं। बहुत-बहुत याद आती है वो बचपन में खो गए चाँद-तारों की महक। 

महक यानी बचपन। बचपन घुली-मिली सारी खुशबुएँ। कौन सी महक किस पर हावी, नहीं पता।  ओस भीगे सुनहरे धोरों की रेतीली मखमली मिट्टी जब पाँव सहलाती थी; जन्नत सी लगती थी।

काली रात में ढिबरी सा जलता चाँद, ठहरी हुई हवा, आँखों में डेरा डालने को आतुर नींद; इन सबका मिला-जुला इत्र; सबसे अनमोल महक है। 

1

स्मृति-चमन

खिल उठा फिर से

महका-मन।

2

मन-वीथियाँ

फिर हुई वासन्ती

खिली स्मृतियाँ।