अधूरी प्यास
कमला घटाऔरा
मन उदासी के पलों में जाने कहाँ -कहाँ भटकता रहता है ,न जाने किस अपने को ढूँढने मिलने जा पहुँचता है उस के पास । दूरियों की परवाह किये बिना ।तुरन्त मिलने का तो बस एक ही जरिया है सपने में उसे बुला लेना ,या आप उसके पास चले जाना ।मेरे मन ने या उसके मन ने स्मृतियों के द्वार खड़काये और मैं वहाँ पहुँच गई उसके पास ।उस के जाने बिना अपना मन परचा कर ,उसे देख कर अधूरी प्यास लिये लौट भी आई अपनी दुनिया में ।ऐसा अक्सर हो जाता है जब उसे दिल से याद करूँ वह मिल ही जाती है । भले सपने में ही मिले ।सपना तो रात में आता है ।जिस से मिलने का मन किया वह भी तो सो रहा होगा ऐसे में तो मिलन नहीं हो सकता। मन सब जानता था मेरे यहाँ रात तो वहाँ सबेरा होता है ।अलग देशों का टाइम अलग होता है।सारी प्लानिंग मन ने सोच समझ कर की थी । भला रूह के निमन्त्रण को वह कैसे नकार सकता था ।उसी ने याद किया होगा । मैं पहुँच गई वहाँ बिना किसी विघ्न - बाधा के। मैंने देखा वह कोई स्कूल स्थल था । एक मैडम ने अपना फोन देकर मुझे कहा ,उसे फोन करो वह आ रही है ,या कुछ और पूछने को कहा पर उस का संकेत यही था अपनी सहयोगी टीचर के बारे में पता करना । फोन पर बड़े बड़े अंक तो थे मैं पूछने ही वाली थी कि अनलॉक कैसे करूँ ? तभी उस का उधर से फोन आ जाता है ।देर से आने का कारण बताने के लिए ।मैं शायद उसी मैडम को मिलने गई थी वहाँ ।वह नहीं आई थी ।यह जानकर मैं उस के पास ही पहुँच गई उसके घर । बिना किसी सवारी के , बिना किसी से रास्ता पूछे । मन के रथ पर सवार को राह तलाशने की कहाँ जरूरत पड़ती है । बस एक इशारा ही काफी है । है न अजीब बात ! मन का रथ जहाँ चाहो ले चलो ।तुरन्त चल पड़ता है ।पर उसे काबू में करना आना चाहिये ताकि अपनी मर्जी न कर बैठे ।
वह अपनी रसोई में नीचे पटरे पर बैठी नाश्ता कर रही थी। जैसे अक्सर गाँव में सर्दी के दिनों में रसोई में ही बैठकर खाना खाते थे लोग ।वह दृश्य मुझे मेरे बचपन में ले गया ,जब मैं ऐसे ही रसोई में बैठकर माँ के हाथ का ,कभी नानी या दादी के हाथ का बना गर्म गर्म खाना खाया करती थी चूल्हे की आग के सामने ।मैं काफी देर उसे निहारती रही । वह अब देखती है , तब देखती है लेकिन नहीं , वह तो अपने ध्यान में धीरे धीरे खाना खाती रही । किसी मौन चिंतन में डूबी हुई जैसे मुद्दतों बाद उसे फ़ुर्सत मिली हो अपने आपे से मिलने की ।मैंने पुकार कर उसका ध्यान भंग करना नहीं चाहा । और मैं लौट आई मन में विषाद भर कर खिन्न मन से ।
भला ऐसा भी क्या ध्यान मगन होना किसी के आने की आहट तक न सुनाई दे। कोई बात नहीं , मिलने पर खबर लेती हूँ , अरे नाश्ते को ना पूछती सिर उठा कर देख तो लेती ।बड़ी निर्मोही हो गई हो तुम । यही है तेरा प्यार ! दिखाई न दो बोला तो करो ।दु:ख सुख खोला तो करो ।मन की तिजोरी को कभी कभी हवा भी लगा लिया करो ।मुद्दत हुई ,उससे बात किये ,कान तरसते रहें उसे सुनने को और उसके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी ।जाने वह किस गूढ़ रहस्य को सुलझाने में लीन थी ।उसके लिए वह क्षण कितने अनमोल होंगे ।मैं जानती थी ,इसलिए उसे आवाज नहीं दी ।लौट आई मन की मन में ले , प्यासी की प्यासी ।
मौन समाधि
कैसे तोड़ती भला
जुड़ी आपे से ।
कमला घटाऔरा