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रविवार, 17 सितंबर 2023

1136

 

1-सविता अग्रवाल सवि कैनेडा 

1.

मीरा की भक्ति

राधा का घनश्याम

जगत रखवाला

मुरारी ग्वाला

प्रेम- रस- गागर

आनंद का सागर ।

2 .

देवकी पुत्र

यशोदा का ललना

झूल रहा पलना

लीला रचाता

कुंजों  में विचरता

मटकियाँ फोड़ता ।

3.

मुरलीधर

वंशी धुन बजा

गोपियों को रिझाए

रक्षक बन

नोंक पे अँगुली की

गोवर्धन उठा

4 .

यशोदा लाल

कदम्ब वृक्ष बैठ

सखाओं को बुला

गेंद उछाले

यमुना- जल डाले

कालिया नाग मारे ।

5.

कृष्ण की छवि

निरखता ह्रदय

बेसुध करे मन

भक्ति में डोले

श्याम श्याम ही बोले

कर्ण अमृत घोले ।

6.

कुञ्ज बिहारी

अधर वंशीधर

मोहन गिरधारी

ब्रज का ग्वाला

बना सखा सुदामा

कंठ वैजन्ती माला ।   

-0-

2-  बेटी (जनक छन्द) /विभा रश्मि 

1

बेटी अँगना - खेलती ।

माँ से जीना सीखके

दुख - सुख हँसके झेलती ।

2

भोली - भाली लाड़ली ।

नैहर में नाज़ों पली

निकली मिश्री की डली ।

3

नव दुल्हन की पालकी ।

दिल में खिलते फूल हैं

तड़पी चिड़िया डाल की ।

4

तनया सोने की कनी

नखरों - नाज़ों से  पली 

मुक्ता , हीरे से बनी

5

लाडो खेले मगन हो ।

आकर खुशियाँ चूम लें 

छू लेगी वो गगन को ।

-0-


गुरुवार, 2 मार्च 2023

1112

 1-ताँका

कृष्णा वर्मा 

1

भुलाना होता 

तो भुला बैठे होते 

जन्मों पहले 

मुड़-मुड़के जन्म  

न लेते तेरे लिए। 

2

बरबस ही  

उड़ते पंछी देख

कोई संदेशा   

तुम्हें भिजवाने को  

फड़क उठें होंठ।

3

क्या पता कब 

पूरा हो यह यज्ञ 

बीत रही है 

उमर की सामग्री 

यूँ देते आहुतियाँ। 

4

लहर की भाँति 

लगे थे किनारे से 

तुम्हें देखके 

ऐसा फलाँगा तट 

कि रहे न नदी के।

-0-

2-चोका

सविता अग्रवाल 'सवि

1-सर्दी का चूल्हा 

 

सूर्य से आई

भोर नहाई धूप

ओढ़ चादर

धरा पर उतरीं

रवि किरणें

सखियाँ इठलाईं

घर-आँगन

बुहार, निपट के 

अटारी चढ़ीं

ले, मटर पिटारी

गाजर- मूली

मूँगफली की थैली

किस्सों की थाली

ताली दे-दे बजातीं

दुःख बाँटती

चढ़ती धूप संग

खटिया बैठ

गुड़ -रेवड़ी खातीं

टोकरी झाड़ें

धूप की गर्मी सेंक

हाथ मलतीं

प्रभु- भजन गातीं

प्रेम में डूबी

चूल्हा जलातीं और

स्नेहपूर्वक

सब्ज़ी छोंक लगातीं

आटे की लोई

बेलन- करें गोल

तवे पे डाल

कोयलों पर सेंक

रोटी बनातीं

धूप में बैठाकर

परिवार – पालतीं। 

-0-

2-माँ से मिलन

 

नदी किनारे

बैठीराह ताकती

जाना है पार

विचलित था मन

बंदिश आस

ईश्वर आए याद

समक्ष देखा

तैरती नाव आई

आस- सी जगी

मुख मुस्कान छाई

नाविक आया

किनारे बाँध नाव

मुझे बुलाया

मन भावों को पढ़

नाव बैठाया

बाट जोहती, माँ से

मिलन करवाया।

-0-

3-गाँव की छोरी

 

गाँव की छोरी

स्वछन्द मन घूमे

धानी चुनरी

बदन से लिपटी

दौड़ लगाती

वन- वन विचरे

सखियों संग

लकडियाँ चुनती

उठा, गठरी

मतवाली चाल से 

घर को आती

भाई- बहन संग

अभावों में भी

छल कपट बिन

खुशियों संग जीती।

-0-

ईमेल: savita51@yahoo.com

 

रविवार, 5 फ़रवरी 2023

1107

 

1-बूँद का चक्र 

सविता अग्रवाल सवि कैनेडा 

 

बर्फ़ की बूँद

चाँदी में नहाकर

बैठी –मुँमुंडेर 

सेक सूर्य की गर्मी

बूँद शर्माई

पानी- पानी होकर

धरा पे आई

मिल सखियों संग

नदी से मिली

भाप- सी उड़कर

नभ को चली

बादलों को ढूँढती 

प्रेमिका बनी

नवरंगों को बसा   

नभ चूमती

सौदामिनी से भिड़ी

हवा के संग

इत उत बिखरी

उड़ती फिरी

बर्फ़ीली रुत आई

बूँद ही बनी

वृक्षों पे गिरकर

शाखओं से लिपटी |

 -0-

2-सुदर्शन रत्नाकर

 

1-सर्दी की धूप

 

सर्दी की धूप

छुई-मुई सी बैठी

मुँडेर पर

उतरी धीरे -धीरे

लजाती हुई

छुए धरा के पाँव

थपथपाया

दुलार से तपाया

ढकी है छाँव

धूप ने आँचल से

सबके साथ

लगाई गपशप

थक गई वो

आँचल को समेटा

साँझ बेला में

लाँघ के दहलीज़

 छुपी जाकर

पेड़ की फुनगी पे

लौटेगी कल फिर

 -0-

 

2 आया वसंत

 

आया वसंत

कूक उठी कोयल

बही बयार

महका आम्र-वन

फैली सुगंध

चहक उठे पक्षी

प्रेम में मग्न

धरा का कण-कण

बिछे क़ालीन

नर्म -नर्म घास के

नव पल्लव

लाए नव जीवन

खिली सरसों

पहन पीले वस्त्र

हँसे कुसुम

दिया प्रेम -संदेश

रंगों का मेला

मादकता है  छाई

गूँजे भँवरे

तितलियों का रेला

सजा सूरज

देने को गर्माहट

देखो तो ज़रा

निर्मल आसमान

नहाया ज्यों जल में।

-0-

सुदर्शन रत्नाकर,-29, नेहरू ग्राउंड,फ़रीदाबाद 121001

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3-भीकम सिंह 

 

 

गाँव  - 41

 

खेत जमीनी 

बारिशें आसमानी 

फसलें उगें 

ज्यों चेहरा नूरानी 

देख -देखके 

मन होता बेमानी 

परिंदे करें 

ज्यों सत्संग रूहानी 

गाँवों में होता 

जब भी ये मौसम 

आती याद पुरानी 

 

गाँव- 42

 

अब के चली 

खेतों में जो हवाएँ 

दिल्ली को लेनी 

पड़ गई दवाएँ

खौफ-सा छाया 

शहर के ऊपर

माँगनी पड़ी

ईश्वर से दुआएँ 

हैरत में हैं 

पूर्वजों की ध्वजाएँ 

वेदना लहराएँ 

 

गाँव- 43

 

खेत सहते 

नीलगायों की चोट

और क्रूरता 

धर्म तो व्याख्याओं का

जाल पूरता 

लोकतंत्र का व्यंग्य 

मौन घूरता 

ग्रामीणों के  हिस्से में 

दुःख ही आता 

वो सहते रहते 

मानकर वीरता 

 

गाँव  - 44

 

मिट्टी में घुला 

रसायन देखके 

डरे  हैं खेत 

जाने किस सोच में 

पड़े हैं खेत 

फसल चक्र से भी 

बचने लगे 

थोड़ा-सा चलने पे

थकने लगे 

कुछ दिनों से खेत 

उड़ने लगी रेत 

 

 

गाँव- 45

 

वर्षा में धुला 

पवन चल रहा 

खेत का अंग 

शाइरी कर रहा 

लिख रहा ज्यों 

सतर खींचकर 

हल से अभी 

मिसरा कर रहा 

जोते हैं कोने 

ज्यों काफ़िया से, उन्हें 

मतला कर रहा 

-0-