प्रगीत कुँअर
1
ऊँचा भवन
गिरा पल भर में
यूँ एकदम
क्या करें नींव की ही
गहराई जब कम ।
2
भागमभाग
रात औ’ दिन बस
एक ही राग
सपनों की दुनिया
जिसमें लगी आग ।
3
उसके द्वारे
देते रहे दस्तक
इंतज़ार में
गिरे सूखे पेड़ -से
आया न अब तक ।
4
देखो चली है
ठंडी हवा छू मुझे
उनकी गली
पूरे उपवन में
मची है ख़लबली ।
5
जो आए कभी
राह में पत्थर तो
पूजा उनको
समझ भगवान
हुई राह आसान ।
6
थी हसरत-
दे दे दुनिया साथ
दूर तल़क
मंज़िल खोई जाना-
भरोसा था गलत ।
7
तनहाई में
आ जाते हैं मिलने
उसके ख्याल
पूछते हैं मुझसे
अनबूझे सवाल ।
8
ढूँढना होगा
अपने ही भीतर
छिपा वो समाँ
जो करे तरोताज़ा
अपना सारा जहाँ
9
चाहे लगाओ
तन- मन व धन
मगर सदा
दुनिया ये निर्दय
देती केवल जख़्म
10
अनगिनत
तारों के बीच सजा
बैठा है चाँद
अँधेरे की बाधाएँ ।
चाँदनी आए फाँद ।
11
आशाएँ बैठ
रोशनी के रथ में
जाती जहाँ से
मिटता निराशा का
अँधियारा वहाँ से ।
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