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बुधवार, 22 अगस्त 2018

827


1-डॉ. हरदीप कौर संधु






















2-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' 

1.अब जाल समेटो-

बहुत हुआ
अब जाल समेटो
कमी वक़्त की
भुजपाश लपेटो
कल न होंगे
इतना तुम जानों
यही सत्य है
हे प्रियवर ! मानो
सफर छोटा
पर अच्छा ही बीता
कर न पाए
हम मन का चीता
बन्धन न था
यह इस जग का
फिर भी  इसे
भरपूर निभाया
पात्र था छोटा
पर अधिक  पाया
जन्मेंगे हम
फिर तुम्हें मिलेंगे
तेरे आँगन
निश्चय ही खिलेंगे
मन में छुप
हम बात करेंगे
कोई भी मारे
अमर भाव सृष्टि
हम नहीं मरेंगे
.
-०-
2-चन्दन वन

चन्दन वन
अपनों ने जलाया
बचे थे ठूँठ
थोड़ी सी खुशबू
किसी कोने में
आखिरी साँस लेती,
कोई आ गया
मन व  प्राणों पर
खुशबू बन
प्यार बन छा गया
जो कुछ बचा
वह उसी का रचा
उसी का रूप
सर्दी की वह धूप
मेरी जीवन  आशा।
-०-

बुधवार, 31 अगस्त 2016

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चाय का कप
डॉ हरदीप कौर सन्धु

Image result for a cup of tea spills

निखरे से दिन ने रात को अलविदा बोलकर नए रास्तों पर रौशनी बिखेर दी थी। चारों तरफ़ बिखरी तेज़ लौ मन तथा रूह को छू रही लगती थी। किरणों के तोहफ़े बाँटते किरमची रंग उसकी जिन्दगी को नए अर्थों से परिभाषित कर रहे थे। उसका  मन आँगन सिंदूरी सपनों की पावन समीर में खिला हुआ था। आज वह अपनी चाहत से मोह का शगुन पाने के लिए उसके सामने बैठा था।

चुप्पी का आलम था ; मगर दिल की ज़ुबान चुप नहीं थी। वह सोच रहा था कि आज वह अनगिनत सवालों की बौछार करेगी जिनका उसके पास शायद कोई जवाब भी नहीं होगा। पता नहीं वह मेरी जीवन साथी बनकर मेरे जीवन को भाग्यशाली बनाने के लिए हाँ कहेगी भी या नहीं।

वह एक दूसरे को कालेज के दिनों से जानते हैं। वह एक अमीरज़ादा था और सभी लड़के -लड़कियों का चहेता। सभी उसके इर्द-गिर्द मँडराते रहते। बेरोक ज़िन्दगी उसके स्वभाव में खुलापन ले आई तथा धन की भरमार ऐशपस्ती। कीमती कपड़े , बेशकीमती कार तथा आशिक मिज़ाज उसकी पहचान। वह सोच उड़ानों को तारों का साथी बनाकर सब को प्रमुदित करने की भरपूर कोशिश करता;मगर वह उससे कभी प्रभावित न होती।

वह मध्यवर्गी परिवार से थी। नैसर्गिक सौंदर्य की  स्वामिनी तथा एक आत्मविश्वासी लड़की। मेहनतकश, पढ़ाई में अव्वल तथा घरेलू कामों में निपुण। सादे लिबास तथा ऊँचे आचरण वाली। वह किसी भी सफ़र पर चलने से पहले अपनी कमज़ोरी तथा क्षमता को तोलने में विश्वास रखती थी। आज वह एक ऊँचे पद पर कार्यरत थी।

ज़िन्दगी आज फिर उनको एक दूसरे के सामने ले आई थी, दिल की बातें करने। विचारों का प्रवाह उसको काफ़ी परेशान कर रहा था। उन दोनों के बीच कुछ भी एक समान नहीं था ,जो उनकी रूह के मिलाप का कारण बने। वह तो उसको फ़िजूल -सा दिखावा करने वाला एक अमीरज़ादा मानती थी जिसको जीवन सच के करीब होकर जीने का हुनर कभी नहीं आया। अब बोझिल ख्याल उसकी साँसे पी रहे लग रहे थे। अचानक गर्म चाय का कप पकड़ते हुए उससे छूट गया। उसका कोमल हाथ लगभग जल ही जाता ,अगर वह अपना हाथ आगे कर उसको ना बचाता।


कहते हैं कि किसी के दिल में हमेशा के लिए जगह बनाने में युगों बीत जाते हैं। मगर चाय का गिरना एक की साँसों को दूसरे की रवानी दे गया। अमीरी ठाठ के पीछे छुपे निर्मल दिल की लौ रौशन कर गया, जिसे अब तक उसने देखा ही नहीं था। अपनी ज़िन्दगी में आने वाले गर्म हवाओं के झोंको को थामने के लिए किसी को उसने जीवन में पहली बार ढाल बनते देखा था। उसके जीवन की ढाल तो तब तिड़क गई थी ,जब उसके बाप ने पुत्र न होने की वजह से उसे,माँ तथा बहनों को छोड़कर दूसरी शादी कर ली थी। मर्द जात से उसका तो विश्वास ही उठ गया था।

आज दोनों की भावना एक हो गई थी। सिंधूरी चमक वाली नवीन उम्मीदें मन में उगम आईं थीं। दिल में यकीनी ख़ुशी का अहसास अश्रु बनकर आँखों से बहने लगा।


चाय का कप
पहली मुलाकात
स्वर्ण प्रभात।





शुक्रवार, 3 जून 2016

709



Click on the arrow to listen कहकशां 

कहकशाँ
डॉ हरदीप कौर सन्धु 


 सरघी वेला सी। शफ़ाफ़ नीले अंबर दी हिक्क 'ते सरकदे सुरमई ते संतरी रंग दी भाअ मारदे बदल दूर -दुमेल 'ते चढ़दी टिक्की दी निशानदेही कर रहे जाप रहे सन। कुज पलां बाद बूंदाबांदी होण लग्गी। निक्कीआँ बूँदां दे आर -पार लंघदीआँ धुप किरणां सत्त रंग बण के खिण्डण लग्गीआँ। भांत -सुभाँते खुशबूदार फुल्लां तो हो के आई पौण मिठ्ठी -मिठ्ठी लग्ग रही सी। पंछीआँ ने रल के आपणी मिठ्ठी आवाज़ दा सुर छेड़िया होइया सी। 
             मैं बाहर बरांडे 'च बैठी इस अलौकिक नज़ारे दा आनंद लै रही सी। चाँदी कणीयाँ बण वरदीयाँ बूँदां दी टिप -टिप ते दूर दुमेल वल्ल उडारी भरदी कोयल दी आवाज़ डा सुमेल मैनू उस दी कहकशां वल्ल लै तुरे। अगले ही पल अछोपले जिहे उस दे खिआलाँ तक्क आण पहुँचे मेरे अहिसासाँ नू जिओण जोगे साहाँ दी खैरात मिल गई। यह आपणी कहकशां 'चों बाहर निकल मेरे नाल गल्लां करन लग्गी," तैनू किवें पता लग्गा कि कोयल दी आवाज़ मैनू मोहित करदी है ?" हुण मैं जागदीआं अख्खां दे सपनिआँ रहीं ओह पल जी रही साँ जो मेरी असल ज़िन्दगी 'च कदे नहीं आए। 
   उस दी कहकशां दी हमसफ़र बणी मैं उस दे नाल हो तुरी। ओह मैनूं अंतरीव विच झात पवाऊँदी आपणे ओस आलमी विहडे 'च लै गई जिथे देश प्रेम नाल ओत -प्रोत गाथावाँ सुणदी ओह वड्डी होई है। बटवारे वेले ओह मसीं 13 कु वरिआँ दी होवेगी। उस दे आपे नूं पता वी ना लग्गा कि संवाद रचाऊण दी आत्मिक पिरत उस अंदर कदों पैदा हो गई। मस्तक 'च चानणा डा कफिला कावि रिशमाँ बण वहिण लग्गा। अखाँ 'च उनींदरीआँ राताँ दे सेव सुपने उस दे आपे अंदर खलबली मचाऊँदे रहे। ओह आपणी जादूमई छोह नाल मौलिक अंदाज़ 'च नित्त नवाँ सिरजदी रही ते हुण तक्क सिरज रही है। नवीआँ उचाणा नूं नतमस्तक होणा उस दी सच्ची इबादत है। 
  मेरा मन कणीआँ दी रिम -झिम 'च सरशार होइया उस दी अमुक गल्लाँ डा हुँगारा भरी जा रिहा सी। कदे -कदे मैनूं इंझ लगदा कि जिवें मैं आपनी पड़नानी नाल गल्लाँ कर रही होवाँ। ओह मेरे वास्ते असीसाँ दी आबशार ए ते मेरे सुपनिआँ दी जूह। हुण ओह किरमची कियारी 'चों फुल्ल बिखेर रही सी, " बन्द कमरिआँ 'च मेरा दम घुटदा है। रंग -बिरंगी कायनात दी मैं दीवानी हाँ। कुदरत नाल रह के बहुत कुज मिलिया। पर कोई वी ख़ुशी इकदम नहीं मिली, सालाँ बधी मेहनत ते उडीक तों बाद मिली है। पर अजे ताँ छोप विचों पूणी वी नहीं कती। जद तक ऊँगलीआँ 'च जान है लेखण जारी रहेगा।"
  कहिंदे ने कि अहसासाँ दी साँझ डा रिश्ता सभ तों सुच्चा रिश्ता हुँदा है जिहड़ा उमरां दे तराज़ू विच नहीं तुलदा। सोच दे हाणीआँ 'च साह -जिन्द जिही नेडता हुंदी है ते साडी साँझ वी कुज एहो जिही ही है। चानण राहाँ 'ते तुरन दीयाँ तरकीबां दस्स ओह मैनू ऊँगल ला आपणे नाल तोरी रखदी है। कदे ओह किणमिण चानण 'च बहि के धुप्प नाल गल्लाँ करदी ए ते कदे उस दे हिस्से आई चुलबुली रात ने कोरी मिट्टी दे दीवे बाल ओक भर किरना नाल खुशबू डा सफ़र तहि कीता है।आपणे कलामई क्रिश्मियाँ नाल ओह मुहांदरा लिशकाऊँदी गई जद कदे इकल्ला सी समाँ। उस दे नवें मरहल्लियाँ दे दस्तावेज़ महिज़ लफ्ज़ नहीं बल्कि उस दे सफ़र दे छाले ने। 
 हुण मठी मठी पौण ने बदलां डा घुँड चुक दित्ता सी। मैनूं लग्गा जिवें अज्ज ओह चिलकणी धुप्प वाली सरघी संग साडे विहडे  आ के फ़िज़ा 'च सूहे रंग बिखेरदी सुचीआँ नियमतां दी रहमत मेरी झोली पा रही होव। उस दी कहकशां डा रुख्ख अज्ज साडे विहडे उग्ग आया सी। 
कोयल कूक 
मींह भिज्जी सरघी 
चिलकी धुप्प। 

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सरघी -भोर ;   शफ़ाफ़- साफ़ ; कहकशां- आकाश गंगा ; अंतरीव- भीतर ; सरशार -सराबोर  ; अछोपले -हौले से ; मरहल्लियाँ- मंजिल ; पिरत - परंपरा 
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अब हिंदी में------------------------------------

सोमवार, 18 अप्रैल 2016

697

डॉ हरदीप कौर सन्धु 

1 . 
ये मधुर मुलाकातें 
गूँगी ख़ामोशी 
करती जीभर बातें। 
2 . 
टूटी मन की पायल 
ख़ामोश निगाहें 
हर इक दिल है घायल। 
3 . 
चन्दा छुपके रोता 
यादों का साया 
जब इस दिल पर होता। 
4 .
ये घोर उदासी है 
आँसू पीकरके 
रूहें फिर प्यासी हैं। 
5. 
प्यार सभी द्वार मिले 
आज दुआ मेरी 
प्रभु चैन करार मिले। 

(महिया -संग्रह = पीर भरा दरिया )


मंगलवार, 29 मार्च 2016

694

अपूर्ण कामना
डॉ हरदीप सन्धु
भाद्रपद की सवेर थी। पक्षी अपनी सुरीली आवाज़ों में जश्न मना रहे लगते थे। मुँह -अँधेरा सा होने की वजह से मौसम में अभी ठंडक थी। मैंने चाय की अभी दो घूँट ही लिये थे  कि उसने द्वार पर दस्तक दी। मैं उसी का इंतज़ार कर रही थी। वह थी 17 वर्ष की, खुश मिज़ाज, छोटे से कद की चुलबुली -सी लड़की । कच्चे फूलों -सी हँसी बिखेरती वह भीतर चली आई। 
               उसके कॉलेज में आज बहु -सभ्याचार दिवस मनाया जा रहा था। विद्यार्थियों  ने अपनी -अपनी सभ्यता को दर्शाता कोई भी वस्त्र पहनना था। उसने साड़ी चुनी थी, जिसे पहनना किसी हुनर निपुणता की माँग करता है। मगर अभी वह इस हुनर से अनभिज्ञ थी और मुझसे सहयोग माँगा था। मैं भी अभी तक इस हुनर से अनजान ही थी। मैंने न कभी खुद साड़ी बाँधी, न किसी को बाँधते देखा और न ही अभी तक कभी सीखने की जरूरत महसूस की थी। मेरी अनभिज्ञता के बावजूद उसने मेरे पास आना ख़ुशी- ख़ुशी स्वीकार कर लिया था। 
   " आज उसको माँ बहुत याद आई होगी," उसकी माँ की अनुपस्थिति का यह दर्दीला अहसास मुझे भीतर तक झिंजोड गया। उसकी माँ को बिछड़े पूरे दो वर्ष बीत चुके हैं।मांवां ठंडीयाँ छावाँ -बिन  माँ  मोहताज  बनी वह जिंदगी को किसी गहरी पीड़ा के रूप में बतीत कर रही है। मगर इस पीड़ा को अपनी दूधिया हँसी में घोलकर वह सहज ही पी जाती है। 
           एक खास उत्तेजना आज उस पर हावी थी। परन्तु मैं एक अजीब से डर में असुरक्षित महसूस कर रही थी। सोच रही थी कि सीमित से समय में मेरी पहली कोशिश के असफल हो  जाने से कहीं उसका चाव फीका न पड़ जाए। वह तो आज किसी अज्ञात मंजिल की ओर बिन पंखों से उडान भरना चाह रही थी। माँ की खरीदी मोर पंखी रंग वाली चमकीली साड़ी  उसने मेरे आगे रख दी। मैं अपनी भीतरी  उल्लास के घेरे को तोड़ती हुई उसको साड़ी  बाँधने लगी। वह  खुशबु भरे स्वर में साड़ी के हर घेरे के साथ अपनी माँ की मीठी मोह भरी यादों  का सुख पा रही थी और मुझे भावुक किए जा रही थी। 
       उसके मुखड़े पर अब सिंदूरी  क्रीड़ा थी। उसका उल्लास चाँद की परछाईं जैसे मन के आँगन में बिखर रहा था। खूबसूरत रंगीन साड़ी पहने हुए वह मुझे अपनी माँ के आँचल का आनंद लेती लग रही थी। साड़ी के रेशे -रेशे से शायद वह अपनी माँ के हाथों की छुअन महसूस कर रही होगी। दुनिया की कोई भी वस्तु उसकी माँ  की कमी को तो पूरा  कर सकती है, मगर एक छोटी सी अपूरित ख्वाहिश को उसकी झोली में डालना मुझे सकून  दे गया।
 

हवा का झोंका 
पंखड़ियों ने छेड़ा
राग सुरीला।  
          डॉ हरदीप सन्धु



रविवार, 6 मार्च 2016

690


 सुदृढ़  स्तम्भ
डॉ हरदीप कौर संधु

घने कोहरे तथा काले बादलों कारण दिन में ही अँधेरा सा लगने लगा था। छाए दुःख बादलों ने  पूरे परिवार के वजूद को ही झुका दिया था। सब के चेहरे मुरझा- से गए थे।  मौत के मुँह में पड़ा जो दिखाई दे रहा था। मगर उसका मनोबल तो आसमान को छुए जा रहा था। किसी भयानक रोग से पीड़ित ऑपरेशन बैड पर पड़ा भी वह खुद सबका हौसला बढ़ाए जा रहा था।

     उस दिन मेरी रूह भी उसके बैड के एक कोने में बैठी थी ,उसके बहुत ही पास। उसकी ज़िंदगी के क्षितिज के आर -पार देखती। ऋतुएँ बदली तथा ज़िंदगी का रहबर समय चलता गया। मगर समय की नब्ज़ पहचान इसको अपने ढंग़ से मोड़ने वाला कोई ,कोई ही।  वह बिलकुल ऐसा ही तो है जो दूसरों के हक की रक्षा करता ज़िंदगी में अनूठे रंग भरता चला गया।

  बँटवारे के समय उसकी आयु करीबन सात वर्ष की होगी। हाय कुरलाते कहर -भरे दिनों का असर उस मासूम के मन पर सहज ही अंकित हो गया था। सांदल बार को छोड़ने का सदमा उसको सपनों में भी सुनाई देता था; जिनमें वह अक्सर उन खेतों की सैर करता ,जहाँ बापू ने कभी हल चलाया था। मगर बापू हमेशा उस मिट्टी का मोह त्याग आगे बढ़ने का मशवरा देता तथा उसके छोटे -छोटे फैसलों की तर्ज़ुमानी भी करता। बापू की थापी ने उसे अडिग तथा सुदृढ़  दर्शनीय जवान बना दिया था।

         उसके खूबसूरत व्यक्तित्व को देखकर जन्नत के रंग भी फीके पड़ जाते। वह कभी भी फ़िज़ूल की बातें न करता। कच्चे दूध की घूँट जैसे इंसान ही उसके मित्र बने। परिवार के हर छोटे -बड़े फैसलों में वह सबसे आगे होता। शुरू से ही वह दिल से निडर था। हरेक का कष्ट वह साँसे रोककर सुनता तथा समझदारी से उसका हल भी ढूँढता। कई वर्ष वह गाँव का सरपंच भी रहा। अपनी जादूमयी आवाज़ से वह श्रोतागण को मुग्ध करने की क्षमता रखता है। रब की मौजूदगी से चाहे वह आज भी इंकारी है ;परन्तु ‘घल्ले आवै नानका सद्दे उठ जाए’ पंक्ति की प्रौढ़ता करने वाला नास्तिक भी तो नहीं हो सकता।

       साहित्य -सर्जन जैसी उत्तम कला उसकी रगों में दौड़ती है। उसकी सभी रचनाएँ आज भी उसके ज़ेहन में जीवित हैं; मगर आज तक किसी कोरे पन्ने पर अपना हक नहीं जमाया। अगर कहीं किसी पन्ने पर मोती बन बिखरीं भी तो ज़िंदगी के तेज़ अँधेरों में वह पन्ने पता नहीं कहाँ उड़ गए। उसकी छोटी बहन हर रचना की पहली श्रोता बनी। पाँच -छह दशक उपरांत छोटी बहन ने दिल की परतें खोल फिर से सांदल बार लिखने को बोला। हैरानी तो तब हुई; जहाँ -जहाँ लेखक की कलम अटकी , हमेशा की तरह उस दिन भी श्रोता बनी बहन टूटी पंक्तियाँ जोड़ती गई ;क्योंकि यह कविता उसके ज़ेहन में भी वर्षों से घर किए बैठी है।

  वह भीतर -बाहर से एक रूप है। पता नहीं कौन -सी आज़ाद हवाओं का राज़दार है वह। उसने कभी भी बदतमीज़ समय के पास अपनी अनमोल साँसों  की पूँजी को गिरवी नहीं रखने दिया। ...... और उस दिन ऑपरेशन से कुछ पल पहले वह मौत से मज़ाक करता हुआ कहता है , " वेख लई ज़िंदगी की प्राहुणाचारी -मौत मैनू सद रही जा के वेख लां"।मगर हम सब की दुआएँ दवा बन गईं और परिवार का सुदृढ़ स्तम्भ काली अँधेरी रात के बाद नए सूर्य की लौ में फिर से उठ खड़ा हुआ।

उगता सूर्य

गहरी धुंध -बाद

रौशन दिन।
                 डॉ हरदीप कौर संधु
 

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

682




सोन किरनें
डॉ हरदीप सन्धु
ढलती हुई शाम को ऊँचे आसमान पर छाए सुरमई बादलों में से कभी -कभी सूर्य भी दिखाई पड़ जाता था। इस अलबेले से मौसम में हम चारों अपनी नौका तथा चप्पू लिये नदी के किनारे जा पहुँचे थे। शहर के बीचो -बीच बहती इस नदी के पानी में शरबती रंग घुले लगते थे। मस्त हुए परिंदे आज़ाद हवाओं में कुदरत की सराहना के गीत गाते लग रहे थे। सूर्य के प्याले से बहती लाली से चमकता पानी इस मनमोहनी कायनात को और भी रंगला बना रहा था।
लाइफ़ जैकेट पहनकर एक नौका में हम दोनों माँ -बेटा तथा दूसरी में वे दोनों बाप -बेटी बैठ गए। खुला -ताज़ा माहौल था। एक दूसरे की मन की अनकही बातों को समझने तथा रिश्तों की गरिमा को महसूस करने का समय। हमें खुद ही चप्पू चलाकर गहरे पानी में उतरना था। मेरे हिस्से नौका को केवल आगे धकेलना आया था और मेरा बेटा नौका को सही दिशा में रख रहा था। फाल्गुन की धूप जैसे खिला हुआ वह बड़ी ही सहजता से नौका को कंट्रोल में रखने के बारे में भी मुझे बताता जा रहा था। मैंने नज़र घुमाकर सामने देखा। दूसरी नौका हमसे काफ़ी दूर जा चली थी। मगर हमारे वाली नौका हमारी हँसी के भँवरजाल में उलझी एक ही जगह पर गोल -गोल घूमे जा रही थी।
कहते हैं कि कुदरत उनका साथ दे ही देती है ,जो हर हालत में अपने मकसद को पाने के लिए दृढ़ रहते हैं। अब हमारी नौका हमारे कंट्रोल में थी; मगर हँसी अभी भी बेकाबू। "चलें पापा तथा निकड़ी से आगे निकलें," उसकी आँखों में शरारत तथा बोलों में ताज़ी हँसी थी। पानी की लहरों को चप्पुओं की आवाज़ ताल दे रही थी। अगले कुछ ही पलों में हमारी नौका दूसरी नौका के साथ -साथ जा रही थी। खुशियों- भरे शरबती पलों ने आँखों में खुशनुमा रंग बिखेर दिए थे।
नदी के किनारे लगे वृक्षों के अक्स पानी की तरंगों के संग नाचते लगते थे। परिंदों की गूँजती संगीतमयी आवाज़ों ने हमारे भीतर फैले चिंता के अँधेरे को रौशनी से भर दिया था। मोह -भरी हँसी की अँगुली पकड़कर उन कुछ ही पलों में हमने ताउम्र हँसी अपने आँचल में समेट ली थी। जिसको याद करते हुए आज भी मेरी साँसे जीने जैसे अहसास से धड़कने लगती हैं।
छुपता सूर्य
पानी पर फिसलें
सोन किरनें।
- ० -