सुदृढ़ स्तम्भ
डॉ हरदीप कौर संधु
घने कोहरे तथा काले बादलों कारण
दिन में ही अँधेरा सा लगने लगा था। छाए दुःख बादलों ने पूरे परिवार के वजूद को ही झुका दिया था। सब के
चेहरे मुरझा- से गए थे। मौत के मुँह में पड़ा
जो दिखाई दे रहा था। मगर उसका मनोबल तो आसमान को छुए जा रहा था। किसी भयानक रोग से
पीड़ित ऑपरेशन बैड पर पड़ा भी वह खुद सबका हौसला बढ़ाए जा रहा था।
उस दिन मेरी रूह भी उसके बैड के एक कोने में
बैठी थी ,उसके बहुत ही पास। उसकी ज़िंदगी के क्षितिज के आर -पार देखती। ऋतुएँ बदली
तथा ज़िंदगी का रहबर समय चलता गया। मगर समय की नब्ज़ पहचान इसको अपने ढंग़ से मोड़ने
वाला कोई ,कोई ही। वह बिलकुल ऐसा ही तो है
जो दूसरों के हक की रक्षा करता ज़िंदगी में अनूठे रंग भरता चला गया।
बँटवारे के समय उसकी आयु करीबन सात वर्ष की
होगी। हाय कुरलाते कहर -भरे दिनों का असर उस मासूम के मन पर सहज ही अंकित हो गया
था। सांदल बार को छोड़ने का सदमा उसको सपनों में भी सुनाई देता था; जिनमें वह अक्सर
उन खेतों की सैर करता ,जहाँ बापू ने कभी हल चलाया था। मगर बापू हमेशा उस मिट्टी का
मोह त्याग आगे बढ़ने का मशवरा देता तथा उसके छोटे -छोटे फैसलों की तर्ज़ुमानी भी
करता। बापू की थापी ने उसे अडिग तथा सुदृढ़ दर्शनीय जवान बना दिया था।
उसके खूबसूरत व्यक्तित्व को देखकर जन्नत के रंग भी फीके पड़ जाते। वह कभी भी फ़िज़ूल की बातें न करता। कच्चे दूध की घूँट जैसे
इंसान ही उसके मित्र बने। परिवार के हर छोटे -बड़े फैसलों में वह सबसे आगे होता। शुरू से ही वह दिल से निडर
था। हरेक का कष्ट वह साँसे रोककर सुनता तथा समझदारी से उसका हल भी ढूँढता। कई वर्ष
वह गाँव का सरपंच भी रहा। अपनी जादूमयी आवाज़ से वह श्रोतागण को मुग्ध करने की
क्षमता रखता है। रब की मौजूदगी से चाहे वह आज भी इंकारी है ;परन्तु ‘घल्ले आवै
नानका सद्दे उठ जाए’ पंक्ति की प्रौढ़ता करने वाला नास्तिक भी तो नहीं हो सकता।
साहित्य -सर्जन जैसी उत्तम कला उसकी रगों
में दौड़ती है। उसकी सभी रचनाएँ आज भी उसके ज़ेहन में जीवित हैं; मगर आज तक किसी
कोरे पन्ने पर अपना हक नहीं जमाया। अगर कहीं किसी पन्ने पर मोती बन बिखरीं भी तो
ज़िंदगी के तेज़ अँधेरों में वह पन्ने पता नहीं कहाँ उड़ गए। उसकी छोटी बहन हर रचना
की पहली श्रोता बनी। पाँच -छह दशक उपरांत छोटी बहन ने दिल की परतें खोल फिर से
सांदल बार लिखने को बोला। हैरानी तो तब हुई; जहाँ -जहाँ लेखक की कलम अटकी , हमेशा की तरह उस दिन भी श्रोता बनी बहन टूटी पंक्तियाँ जोड़ती गई ;क्योंकि यह
कविता उसके ज़ेहन में भी वर्षों से घर किए बैठी है।
वह भीतर -बाहर से एक रूप है। पता नहीं कौन -सी
आज़ाद हवाओं का राज़दार है वह। उसने कभी भी बदतमीज़ समय के पास अपनी अनमोल
साँसों की पूँजी को गिरवी नहीं रखने दिया।
...... और उस दिन ऑपरेशन से कुछ पल पहले वह मौत से मज़ाक करता हुआ कहता है , " वेख लई ज़िंदगी की प्राहुणाचारी -मौत मैनू सद रही जा के वेख लां"।मगर हम
सब की दुआएँ दवा बन गईं और परिवार का सुदृढ़ स्तम्भ काली अँधेरी रात के बाद नए सूर्य
की लौ में फिर से उठ खड़ा हुआ।
उगता सूर्य
गहरी धुंध -बाद
रौशन दिन।
डॉ हरदीप कौर संधु
11 टिप्पणियां:
हरदीप जी मनमोहक हाइगा का चित्रण .
सच दुआओं से मौत भी हार गई .
हरदीप जी, कविता भाई बहन के रगों में ऊर्जा का संचार करती रही और जिन्दगी जीने के लिए उत्साहित करती रही | अब मौत ने तो हार माननी थी ना | बधाई इस जीवंत हाइगा के लिए |
सस्नेह,
शशि पाधा
हरदीप सुन्दर भावपूर्ण चित्रण है ।मूवी की तरह सारा दृष्य सामने आ जाता है ।यह सर्व विदित है कि सच्चे दिल से निकली दुआ व्यर्थ नही जाती ।वे अवश्य अब अपनी अधूरी लिखत को पूरा करेगें ।उसीने उन्हें यह अवसर दिया है।
बहुत सुंदर चित्रण है ,वास्तव में मन से निकली दुआ अपना असर तो दिखाती ही है |
पुष्पा मेहरा
बहुत सुन्दर चित्रण ! सच्ची दुआयें तो प्रभु ज़रूर सुनते हैं......... बधाई इस जीवन से भरे हाइगा के लिए हरदीप जी
!ये पंक्ति मन को भा गई। ...........
कच्चे दूध की घूँट जैसे इंसान ही उसके मित्र बने।
bahut sundar bhaashaa, bhaav ,shailii mein mohak prastuti !
aapake lekhan kaa javaab nahi ...haardik badhaaii !!
saadar
jyotsna sharma
बहुत सुन्दर निरूपण। उम्दा प्रस्तुति....हार्दिक बधाई हरदीप जी।
भावों और विचारों की जादूगरी
बहुत सुंदर मनमोहक हाइबन। बधाई।
उम्दा प्रस्तुति....हार्दिक बधाई हरदीप जी।
बहुत मर्मस्पर्शी हाइबन...| हमेशा की तरह दिल को गह्र्रे तक छूता हुआ...| हार्दिक बधाई...|
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