अपूर्ण कामना
डॉ हरदीप सन्धु
भाद्रपद की सवेर थी। पक्षी अपनी सुरीली आवाज़ों में जश्न मना
रहे लगते थे। मुँह -अँधेरा सा होने की वजह से मौसम में अभी ठंडक थी। मैंने चाय की अभी दो घूँट ही लिये थे कि उसने द्वार पर
दस्तक दी। मैं उसी का इंतज़ार कर रही थी। वह थी 17 वर्ष की, खुश मिज़ाज, छोटे से कद की चुलबुली -सी लड़की । कच्चे फूलों -सी हँसी बिखेरती वह भीतर चली आई।
उसके
कॉलेज में आज बहु -सभ्याचार दिवस मनाया जा रहा था। विद्यार्थियों ने अपनी -अपनी सभ्यता को दर्शाता कोई भी वस्त्र पहनना था।
उसने साड़ी चुनी थी, जिसे पहनना किसी हुनर निपुणता की माँग करता है। मगर अभी वह इस हुनर से अनभिज्ञ थी
और मुझसे सहयोग माँगा था। मैं भी अभी तक इस हुनर से अनजान ही थी। मैंने न कभी खुद साड़ी बाँधी, न किसी को बाँधते देखा और न ही अभी तक कभी सीखने की जरूरत महसूस की थी। मेरी अनभिज्ञता के बावजूद
उसने मेरे पास आना ख़ुशी- ख़ुशी स्वीकार कर लिया था।
" आज उसको माँ बहुत याद आई होगी,"
उसकी माँ की अनुपस्थिति का यह दर्दीला अहसास मुझे भीतर तक झिंजोड
गया। उसकी माँ को बिछड़े पूरे दो वर्ष बीत चुके हैं।‘मांवां ठंडीयाँ छावाँ’ -बिन माँ मोहताज बनी वह जिंदगी को किसी गहरी पीड़ा के रूप में बतीत कर रही है। मगर इस
पीड़ा को अपनी दूधिया हँसी में घोलकर वह सहज ही पी जाती है।
एक खास उत्तेजना आज उस पर हावी थी। परन्तु मैं एक अजीब से डर में असुरक्षित
महसूस कर रही थी। सोच रही थी कि सीमित से समय में मेरी पहली कोशिश के असफल हो जाने से कहीं उसका चाव फीका
न पड़ जाए। वह तो आज किसी अज्ञात मंजिल की ओर बिन पंखों से उडान भरना चाह रही थी।
माँ की खरीदी मोर पंखी रंग वाली चमकीली साड़ी उसने मेरे आगे रख दी। मैं अपनी भीतरी उल्लास
के घेरे को तोड़ती हुई उसको साड़ी बाँधने लगी। वह खुशबु भरे स्वर में साड़ी के हर घेरे के साथ अपनी माँ की मीठी मोह भरी यादों का सुख पा रही थी और मुझे भावुक किए जा रही थी।
उसके मुखड़े पर अब सिंदूरी क्रीड़ा थी। उसका उल्लास चाँद की परछाईं जैसे मन के आँगन में बिखर रहा था। खूबसूरत रंगीन साड़ी पहने हुए वह मुझे अपनी
माँ के आँचल का आनंद लेती लग रही थी। साड़ी के रेशे -रेशे से शायद वह अपनी माँ के हाथों की छुअन महसूस कर रही होगी। दुनिया की कोई भी वस्तु
उसकी माँ की कमी को तो पूरा कर सकती है, मगर एक छोटी सी अपूरित ख्वाहिश को उसकी झोली में डालना
मुझे सकून दे गया।
हवा का झोंका
हवा का झोंका
पंखड़ियों ने छेड़ा
राग सुरीला।
डॉ हरदीप सन्धु
12 टिप्पणियां:
नि:स्वार्थ भाव से किसी की मदद करना और उसके चेहरे पर खुशी की चमक देखना अपने आप में अपूर्व आनंद प्राप्ति की अनुभूति का दिग्दर्शन करना है ।माँ की यादों में लिपटी वह लड़की भी असीम सुख को पा गई तेरी मदद से ।बहुत भाव पूर्ण हाइबन है ।हरदीप जी बधाई।
अल्हड उम्र में अपने आप को नए वस्त्रों में संवारने का शौक और वह भी मां की भीनी खुशबू बसी साड़ी में अपने यौवन को निखारने की खूबसूरत अनुभूति में उसकी मदद करने में भी आनंद आता है । सुन्दर लिखा है। हार्दिक बधाई हरदीप जी ।
हाईबन का खुबसूरत शब्द चित्रण माँ के वात्सल्य से लबालब भरी साडी नवयौवना के यौवन की खूबसूरती में चार चाँद हरदीप जी की साड़ी पहनाने की आनन्द भरी कोशिशों ने लगा दिए .
हार्दिक बधाई हरदीप जी ।
मैं आप के द्वारा लिखे हाइबन का इंतजार करती रहती हूँ । एक बार फिर आप का ये हाइबन मन को छू गया। याद आया जब मैंने पहली बार साड़ी पहनी थी तो माँ की आँखों में मेरे लिए झिलमिलाते सपने .........हार्दिक बधाई हरदीप जी ।
भावुक कर दिया...
सचमुच!आपके द्वारा की गई छोटी सी मदद से उसके चेहरे पर जो मुस्कान आई होगी... वह अनमोल होगी !
हार्दिक बधाई हरदीप जी !
~सादर
अनिता ललित
पहली बार साड़ी पहनना एक अनूठा अनुभव है । अगर आपकी इसमें कोई मदद करे तो वो आपकी मीठी अनुभूति का हिस्सा बन जाता है। ..आपको हमेशा याद रहता है |उसके चेहरे की मुस्कान आपका दिया उपहार.. वो हमेंशा ध्यान रखेगी। ..बड़ा प्यारा हाइबन है, आपके स्वभाव की तरह। ..... हार्दिक बधाई हरदीप जी !
बहुत हीसुंदर भावपूर्ण हाइबन ।मुबारक हरदीपजी।
बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी हाइबन। ... हार्दिक बधाई हरदीप जी!
bahut hii bhaavpurn nisvarth bhaav se kiya gaya karm jisane bin ma ki bachhi ki
sahayta ki aur apko atmik sukh bhi diya .apke maatritv bhaav se purit saral hriday hetu bahan hardeep aapko badhai .
pushpa mehra
सदा की तरह बहुत ही ख़ूबसूरत हाइबन ! आपकी लेखनी एक-एक दृश्य साकार करती है ...हार्दिक बधाई ..बहुत आभार इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए !
सभी पाठकों का तहे दिल से धन्यवाद हाइबन को पसंद करने के लिए। इस हाइबन में कुछ भी नया नहीं था। बस एक साधारण सी बात थी कि मैंने एक बिन माँ की बच्ची को साड़ी बाँधने में थोड़ी मदद की। यह तो कोई भी कर सकता है। मगर इस हाइबन में अगर कुछ संकेतक था तो यह कि यह मदद एक ऐसे व्यक्ति ने की जिसे खुद वह काम आता नहीं था, और समय भी केवल 15 -20 मिनट का ही था। सबसे बड़ी बात ये थी कि अगर इस सीमित से समय में यह काम न होता तो जितनी ख़ुशी उसे साड़ी पहनकर हुई थी इससे दौगुनी निराशा उसे होती। जिस से एक नहीं दो दिलों को चोट पहुँचती। तब शायद इसके बाद मैं कोई ऐसा काम करने का साहस न जुटा पाती जिस को करने की कला या सामर्थ्य मुझ में न हो। मगर अब तक भगवान की कृपा से मैं ऐसा करने का साहस जुटा पा रही हूँ। हरदीप
आपने तो इस हाइबन को साधारण सा कह दिया हरदीप जी, पर एक पाठक की हैसियत से यह मुझे बेहद पसंद आया...| मन को छू गया...| उस छोटी सी लडकी के मन में शायद अपनी माँ के सामीप्य की एक अतृप्त चाह थी, जो वह अपनी माँ की साड़ी पहन कर महसूसना चाह रही थी और आपने उसमे उसका साथ दिया...|
उसके साथ-साथ आपको भी कितना संतोष मिला होगा, मैं बहुत अच्छे से यह समझ पा रही हूँ...|
इस सुन्दर हाइबन के लिए और किसी को खुशी देने के आपके इस प्रयास के लिए भी...आपको मेरी हार्दिक बधाई...|
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