सुदर्शन रत्नाकर
भोर -बेला में खुले आसमान के नीचे, मंद-मंद बहती बयार का आनन्द लेती मैं एक छोटे से पार्क में हरी घास पर बैठी हूँ ।ग्रीष्म ऋतु में पार्क के चारों ओर गुलमोहर और अमलतास के पेड़ों के लाल, पीले झरते हुए फूल, घास के हरे रंग में मिलकर उसकी शोभा बढ़ाते हैं, तो
शरद् ऋतु में हरसिंगार के फूल धरती को समर्पित होते हुए सारे वातावरण को सुगंधित कर देते हैं।पार्क रंग-बिरंगे फूलों से सुरभित हो रहा है, जिन पर कहीं तितलियाँ नृत्य कर रही हैं, तो कहीं मधुमक्खियाँ पराग का रसास्वादन कर रही हैं।छोटे -से बने कृत्रिम तालाब में खिलें सफ़ेद लाल कमल के फूलों पर भँवरें मँडरा रहे हैं।चारों ओर बिखरी यह प्राकृतिक सुंदरता मन को लुभा रही है। लेकिन एक विचार मन में कौंधने लगता है- मनुष्य ने सारी धरती को सरहदों में बाँट दिया है। कई देश, कई धर्म अलग-अलग रंगों ,अलग-अलग जातियों के लोग, अपना अपना अस्तित्व लिये अपनी अपनी पहचान का तमगा छाती पर चिपकाए, सिर उठाए घूम रहे हैं और दूसरी ओर नदियाँ, हवाएँ, फूलों की ख़ुशबू, पंख फैलाते पक्षी,भँवरे ,तितलियाँ ,समंदर की लहरें, सूरज की किरणें, चाँद की चाँदनी, सितारों की चमक , वे तो नहीं बँटे। सब जगह एक जैसे, बिना भेदभाव झोली भर-भरकर देते हैं। हवाएँ एक जगह की ख़ुशबू दूसरी जगह फैलाती हैं, तो पक्षी सीमाओं के बंधन में नहीं बँधते। प्रकृति के इस उत्सव को , इस सारी सुंदरता को आँखों से पीकर आनन्दित होकर मानव प्रकृति के इस संदेश को ग्रहण क्यों नहीं करता! वह स्वार्थ, अलगाव , बिखराव, टूटन, तनाव में क्यों जीता है?
प्रकृति देती
आँचल भर-भर
मानव स्वार्थी।