पाया
बहुत
डॉ सुरंगमा यादव
पाया बहुत
है जग से हमने
धरा का प्यार
गगन का विस्तार
उज्ज्वल हास
रिश्ते बहु प्रकार
पर है रीता
मन का मृदु कोना
वो मन भाया
रहा सदा पराया
उम्र की नौका
लगने लगी पार
जाना ही होगा
एक दिन हमको
आगे या पीछे
जग से आँखें मींचे
तब संभव,
बदले मन भाव
पर क्या लाभ!
पछतावा ही शेष
व़क्त की रेत
हाथों से है फिसली,
तब पिघली
निष्ठुरता मन की
जिसको लिये
जीवन भर जिये
द्रवित हुए
जो मेघ समय पे
वही सार्थक
समय गए पर
जो बरसे वे व्यर्थ !
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