रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'
बिल्कुल भी नहीं चाहती थी कि आज बाजार जाऊँ ,दिये लेकर आऊँ; फिर उन्हें जलाऊँ और चौखट मुंडेर पर
सजाऊँ।
पापा के बगैर क्या दीवाली क्या होली?
सारे त्योहारों की शोभा उनसे ही थी, वे थे इस घर में, तो हर कोना
रौशन था। यहाँ का अब तो अँधेरों के सिवा यहाँ कुछ भी नहीं
दिखता।
मन ही मन सोचते हुए घर की चौखट के अंदर सुस्त कदमों से दाखिल हुई
मगर रस्म अदायगी तो करनी ही होगी । यह सोचकर पूजाघर में गई...बेमन से पूजन विधि शुरू की। सब कुछ सादे ढंग
से... दिये भगवान के आगे ज्यूँ ही रखे...
"बेटी दीप जलाओ..."-चौंककर
पीछे मुड़ी।
पिता की तस्वीर दीवार पर खामोशी से जैसे कह रही हो -घर में अँधेरा हो, तो कुछ देर बसर हो भी जायेगी ;
मगर मन में एक पल भी कभी मायूसी का अँधेरा मत छाने दो...
मन के हर कोने को जगमगाने दो इस खयाल के संग कि पिता घर से तो
रुख़सत हो गए, मन से दूर वह कहीं नहीं गए।
"क्या सचमुच आप मुझे देख रहे हैं?"
झिलमिलाती आँखों पर दुपट्टा रख लेती हूँ
थाल से दिया उठाकर पिता के चरणों में रखते हुए बोली-"लीजिए रसगुल्ले... हर बार आप लेकर आते थे मेरे लिए, आज मैं लेकर आई हूँ आपके लिए... खाइए ना पापा?"
पिता के सामने मिठाई का डिब्बा लेकर खड़ी थी...
आँखें बंद और नम...
अचानक फिर से कानों में गूँजी वही आवाज
"वाह! बहुत सुंदर बेटी!"
एक हल्की सी मुस्कान होठों पर तैर
गई...
आँखें खोलकर देखा, तो सामने
वही चेहरा दीवार पर मुस्करा रहा था...दिये की लौ और तेज हो गई... घर रौशनी से नहा
उठा... जगमगाई तस्वीर के आगे सर झुका लेती हूँ ।
"सुभाशीष दीजिए मुझे"
-बन्द आँखों में हजारों सितारे जगमगा उठे...लगा कि रौशनी ने सर पे
साया कर दिया...।
आशीष-दीप
तम में सूर्य जगा
उजाला उगा।