बुधवार, 27 मार्च 2013
महकता आज भी
सोमवार, 25 मार्च 2013
जीवन के विविध रंग
सेदोका
हवा उडाती
अमराई की जुल्फे
टेसू हुए आवारा
हिय का पंछी
उड़ने को बेताब
रंगों का समाँ प्यारा ।
2
डोले मनवा
ये पागल जियरा
गीत गाये बसंती
हर डाली पे
खिल गए पलाश
भीगी ऋतु -सुगंध ।
3
झूमे बगिया
दहके है पलाश
भौरों को ललचाए
कोयल कूके
कुंज गलियन में
पाहुन क्यूँ न आए । .
4
झूम रहे है
हर गुलशन में
नए नवेले फूल
हँस रही है
डोलती पुरवाई
रंगों की उड़े धूल ।.
5
लचकी डाल
यह कैसा कमाल
मधुऋतु है आई
सुर्ख पलाश
मदमाए फागुन
कैरी खूब मुस्काई ।
-0-
अमराई की जुल्फे
टेसू हुए आवारा
हिय का पंछी
उड़ने को बेताब
रंगों का समाँ प्यारा ।
2
डोले मनवा
ये पागल जियरा
गीत गाये बसंती
हर डाली पे
खिल गए पलाश
भीगी ऋतु -सुगंध ।
3
झूमे बगिया
दहके है पलाश
भौरों को ललचाए
कोयल कूके
कुंज गलियन में
पाहुन क्यूँ न आए । .
4
झूम रहे है
हर गुलशन में
नए नवेले फूल
हँस रही है
डोलती पुरवाई
रंगों की उड़े धूल ।.
5
लचकी डाल
यह कैसा कमाल
मधुऋतु है आई
सुर्ख पलाश
मदमाए फागुन
कैरी खूब मुस्काई ।
-0-
2-डॉ सरस्वती माथुर
1
प्रेम छंद के
पिरो करके गीत
घर आँगन गूँजा
मधुर राग
सज़ धज के आया
प्रिय, देखो
न फाग l
2
सपनो -भरी
रंगों की दुनिया है
गूंजे होली के राग
प्रेम के संग
आओ भी प्रियतम
खेलें हम भी फाग ।
3
होली है आई
शीतल मधुमय सी
प्रेम रंग सँजोए
तन रंग लो
फागुन की बेला है
मन को भी रंग लो
4
भीगा सा मन
फागुनी संबोधन
आशाओं के गुलाल
बिखरे रंग
इन्द्रधनुषी फाग
मधुरिम से राग
-0-
ताँका
1-रेनु चन्द्रा
1
1
मैं ना खेलूं
द्वेष रंग से होली
प्रेम रंग से
गुलाबी हुआ मन
फाग रँगा रसिया।
2
मन चाहता
चंग बजा होली का
कोई तो आए
प्यार भरे भावों से
आँचल रंग जाए।
-0-
द्वेष रंग से होली
प्रेम रंग से
गुलाबी हुआ मन
फाग रँगा रसिया।
2
मन चाहता
चंग बजा होली का
कोई तो आए
प्यार भरे भावों से
आँचल रंग जाए।
-0-
लेबल:
डॉoसरस्वती माथुर,
ताँका,
रेनू चन्द्रा,
शशि पुरवार,
सेदोका
जीवन के विविध रंग
डॉ.ज्योत्स्ना शर्मा
1
कैसी करो ठिठोली
लिए घूमते
ये पवन निगोड़ी
अनहोनी न हो ले ।
2
न मान करो
मेरे सखा वसंत
कहाँ बसाऊँ
तुम्हीं कहो तो ,मन
बसे हैं मेरे कन्त !
3
अरे फागुन
क्या गुनूँ तेरे गुन
सरस मन
गुनगुना ही उठे
रुत हुई मगन ।
4
सुनो रे पिया
अजब जादूगर
होरी मचाई
न रंग न गुलाल
हो गई मैं तो लाल ।
-0-
2-डॉ अनीता कपूर
1
हुई रंगीली
मन की रे पत्तियाँ
होली का वृक्ष
अब तो आओ कान्हा
मैं हुई राधा,
मीरा ।
2
भीगा मनवा
रहा सूखा तनवा
बाट निहारूँ
अब तो आओ कान्हा
राधा रूप हुई मैं
3
रंगो की बातें
सुनकर डोल गया
होली में मन
पुकार रही राधा
कान्हा का रूप धरे
-0-
3-कृष्णा वर्मा
1
टूटा सयंम
रचा उत्सव फाग
प्रीत है अंध
है साँसों में कस्तूरी
फैल गई सुगंध।
2
बरसी प्रीत
रंगों भरी फुहार
फाग ले आया
टेसू गुलमोहर
वसुधा का शृंगार।
3
मौन अधर
आँखों-आँखों में बात
गुलमोहर
पलाश, गुलाब के
हुए रक्तिम हाथ।
4
रस भीने से
छंद कलम लिखे
मन-पन्नों पे
प्रीत रंग में रँगी
मौन गोरी लजीली।
5
स्मृति के रंग
ह्रदय पटल पे
खेले फाग
याद पिया की आए
सुलगे तन आग।
-0-
4 - मंजु गुप्ता
1
प्यार का रंग
चढ़ा तन - मन पे
स्पर्शों की वर्षा
सपनों के नीड को
आबाद करा गई .
-0-
जीवन के विविध रंग
रचना श्रीवास्तव
त्योहार तुझे
यदि आना है तो आ
मेरे हाथों में
यदि आना है तो आ
मेरे हाथों में
तुम चंद सिक्के तो
धरते जाओ
ताकि बो दूँ अपने
बच्चों की आँखों
में ,कुछ उम्मीद भी
और उनके
श्वेत श्याम स्वप्नों को
मैं दे दूँ कुछ
इन्द्रधनुषी रंग
व्याकुल कान
खनकता -सा गीत
सुन पाएँगे
अबके इस होली
कुछ वो पके
जो कभी पका नहीं
भूख न चढ़े
चूल्हे पे ,पूड़ी बने
दुख कर ले
बंद अपने द्वार
लगा दे ताला
अब के खुश हुए
सदियाँ बीत गईं ।
-0-
धरते जाओ
ताकि बो दूँ अपने
बच्चों की आँखों
में ,कुछ उम्मीद भी
और उनके
श्वेत श्याम स्वप्नों को
मैं दे दूँ कुछ
इन्द्रधनुषी रंग
व्याकुल कान
खनकता -सा गीत
सुन पाएँगे
अबके इस होली
कुछ वो पके
जो कभी पका नहीं
भूख न चढ़े
चूल्हे पे ,पूड़ी बने
दुख कर ले
बंद अपने द्वार
लगा दे ताला
अब के खुश हुए
सदियाँ बीत गईं ।
-0-
2-पहली होली की पहली फुहार
अनिता ललित
ना वास्ता कोई
ना ही कोई बंधन
बीती बातों से ,
फिर भी ना जाने क्यूँ
जब चलती
ये बयार फाल्गुनी,
पूनम चाँद
खिले आसमान में,
महक उठे...
अतीत की बगिया
बह उठती...
भूली यादों की हवा,
सोंधी सी खुशबू
वो पहली फुहार,
पहली होली
जो सपनों में खेली
वो एहसास
नहीं था अपना जो
ना ही पराया
दिल मानता उसे !
मासूम रिश्ता
मासूम नादानियाँ
लाल, गुलाबी
रंगों में सजी हुई
बिखेर जाती
मुस्कुराती उदासी,
रंगीन लम्हे
भर के पिचकारी
क्यूँ भिगो जाते
आँखों की सूखी क्यारी?
भूली कहानी
यादों में सराबोर
मचल जाती,
ले नमकीन स्वाद
हो के बेरंग,
ओस की बूँदें जैसे
खेलतीं होली ...
ले पहली होली की...
भीगी प्यारी फुहार...!
ज्योतिर्मयी पन्त
1
1
बच्चों की किलकारी
अँगना रंग -भरा
हाथों में पिचकारी ।
2
होली का आलम है
झूम रहा मन भी
आया घर बालम है .
-0-
अँगना रंग -भरा
हाथों में पिचकारी ।
2
होली का आलम है
झूम रहा मन भी
आया घर बालम है .
-0-
लेबल:
अनिता ललित,
ज्योतिर्मयी पन्त,
ताँका,
माहिया,
रचना श्रीवास्तव
शनिवार, 23 मार्च 2013
मन की वादियों में झरे हरसिंगार
डा0 उर्मिला अग्रवाल
झरे हरसिंगार (ताँका
संग्रह):रामेश्वर
काम्बोज ‘हिमांशु’
, अयन प्रकाशन 1/20 महरौली नई दिल्ली-110030
;पृष्ठ:118 ( सजिल्द) ; मूल्य : 200 रुपये, संस्करण: 2012
|
रामेश्वर
काम्बोज ‘हिमांशु’ का ताँका संग्रह ‘झरे हरसिंगार ’ आद्योपान्त पढ़ गई। जैसे–जैसे पढ़ती गई मेरे मन की वादियों में हरसिंगार झरते रहे। पूरा का पूरा भाव–प्रदेश भर गया इन नन्हें–नभ्हें प्यारे–प्यारे खूबसूरत फूलों से।
ताँका को लघुगीत भी कहा जाता
हे और हिमांशु जी के इस संकलन की सबसे बड़ी विशेषता है इनके ताँकाओं में व्याप्त
रागात्मकता। निश्चय ही राग गीत का सबसे प्रमुख तत्व है और यह हिमांशु जी के अधिकतर
ताँकाओं में खुशबु की तरह समाया हुआ है। इनके ताँका सीधे मन को छूते हैं।
आज इन्सान के पास बहुत सी उपलब्धियाँ है, नहीं है तो अपनापन, नहीं
है तो साथ में दु:ख बाँटने वाली करुणा। काम्बोज जी का यह ताँका कहता है पूरा
अधिकार भले ही ना हो, जीवन भर का साथ भले ही न हो पर कुछ
करुणा मिल जाये नन्ही-सी आत्मीयता (शब्द प्रयोग द्रष्टव्य है,
थोड़ी सी नहीं, किचिंत्
नहीं नन्ही- सी) मिल जाए जो-
भीगे संवाद। नन्ही- सी आत्मीयता/बन के पाखी/उड़ी छूने गगन/भावों से भरा मन।
बादलों में व्याप्त आर्द्रता की तरह आपके ताँकाओं में रागात्मक वृत्ति
मन की धरा पर निरन्तर रसवृष्टि करती है– मनोजगत
को चित्रित करता यह ताँका देखिए–
बाँधे है मन/कुछ पाश हैं ऐसे/ जितना
चाहो/छूट के तुम जाना/काटे नहीं कटते।
इन्सान का दर्द किसी को दिखाई नहीं देता इसी पीड़ा को अभिव्यक्त करता
यह ताँका इस संग्रह का अनमोल मोती है–
काँच के घर/बाहर सब देखें/भीतर है
क्या/कुछ न दिखाई दे/न दर्द सुनाई दे।
प्राय: व्यक्ति जीवन से निराश ही दृष्टिगोचर होता है। वह अपने दु:ख
भरे पल तो याद रखता है सुख के पल भूल जाता है। इस ओर इंगित करते हुए काम्बोज जी का
यह ताँका देखिए–
बन्द
किताब/कभी खोलो तो देखो/पाओगो तुम/नेह भरे झरने/सूरज की किरने।
यह ताँका भी इन्सान की सोच से जरा हटकर है–
बन्द किताब/जब–जब भी खोली/पता ये चला-/हमें बहुत मिला/चुकाया न कुछ
भी।
प्रकृति हाइकु और ताँका का मुख्य विषय रहा है। हिमांशु जी ने भी
प्रकृति के विभिन्न चित्र उकेरे हैं पर वहां केवल वर्णनात्मकता नहीं है ,वरन जीवन की गन्ध है जैसे–
जागे हैं चूल्हे /घाटी की गोद
बसे/घर–घर में/तान रहा है ताना/धुएँ से बुनकर/
या आज की वास्तविकता को चित्रित करता यह ताँका–
नन्ही गौरैया/ढूँढ कहाँ बसेरा/खोए
झरोखे/दालान भी गायब/जाए तो कहाँ जाए।
संसार प्रेम की बात कितनी ही करें पर उसे पचा नहीं पाता है। पवित्र
प्रेम भी उसकी दृष्ति में पाप ही हो उठता है। इस कड़वाहट से उपजा यह ताँका देखिए–
‘सपने पले/तेरी सूनी आँखों में/इतना चाहा/कुछ की नजरों
में/यह क्यों पाप हुआ।
मन के पवित्र प्रेम की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति–
पूजा में बैठूँ/याद तुम आती हो/आरती
बन/अधरों पे छाती हो/भक्ति–गीत
पावन/
देखकर सहसा धर्मवीर भारती की एक पंक्ति याद आ जाती है जिसमें
उन्होंने माथे पर रखे हुए अधरो के लिए उपमान दिया है–
‘‘बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर ।’’
संग्रह के अधिकतर ताँका बहुत सुन्दर है। शिल्प की कसौटी पर तो सभी
ताँका खरे उतरते हैं। इतने सुन्दर ताँका–संग्रह
के लिए काम्बोज जी निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।
-0-
डा0 उर्मिला अग्रवाल,
15 शिवपुरी, मेरठ-250-002
शुक्रवार, 22 मार्च 2013
चहके बेटी
डॉ•सरस्वती माथुर
1
बेटी कोयल
घर माँ का बासंती
चहके बेटी
लगती रसवंती
भाग्य से है मिलती ।
2
सौन चिरैया
आई मेरी बगिया
ओ बिटिया तू
आँगन की चिड़िया
प्यारी मेरी
गुडिया ।
3
बिटिया बोली-
‘माँ ! मधुमय तेरा
घर -आँगन
खेलूँगी छमछम
कर तेरा दर्शन ।
4
माँ का अँगना
छमछम डोलूँ मैं
बाबुल मेरे
!
बताओ क्या बोलूँ मैं
जाना दूर,
रो लूँ मैं ?
-0-
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