डा0 उर्मिला अग्रवाल
झरे हरसिंगार (ताँका
संग्रह):रामेश्वर
काम्बोज ‘हिमांशु’
, अयन प्रकाशन 1/20 महरौली नई दिल्ली-110030
;पृष्ठ:118 ( सजिल्द) ; मूल्य : 200 रुपये, संस्करण: 2012
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रामेश्वर
काम्बोज ‘हिमांशु’ का ताँका संग्रह ‘झरे हरसिंगार ’ आद्योपान्त पढ़ गई। जैसे–जैसे पढ़ती गई मेरे मन की वादियों में हरसिंगार झरते रहे। पूरा का पूरा भाव–प्रदेश भर गया इन नन्हें–नभ्हें प्यारे–प्यारे खूबसूरत फूलों से।
ताँका को लघुगीत भी कहा जाता
हे और हिमांशु जी के इस संकलन की सबसे बड़ी विशेषता है इनके ताँकाओं में व्याप्त
रागात्मकता। निश्चय ही राग गीत का सबसे प्रमुख तत्व है और यह हिमांशु जी के अधिकतर
ताँकाओं में खुशबु की तरह समाया हुआ है। इनके ताँका सीधे मन को छूते हैं।
आज इन्सान के पास बहुत सी उपलब्धियाँ है, नहीं है तो अपनापन, नहीं
है तो साथ में दु:ख बाँटने वाली करुणा। काम्बोज जी का यह ताँका कहता है पूरा
अधिकार भले ही ना हो, जीवन भर का साथ भले ही न हो पर कुछ
करुणा मिल जाये नन्ही-सी आत्मीयता (शब्द प्रयोग द्रष्टव्य है,
थोड़ी सी नहीं, किचिंत्
नहीं नन्ही- सी) मिल जाए जो-
भीगे संवाद। नन्ही- सी आत्मीयता/बन के पाखी/उड़ी छूने गगन/भावों से भरा मन।
बादलों में व्याप्त आर्द्रता की तरह आपके ताँकाओं में रागात्मक वृत्ति
मन की धरा पर निरन्तर रसवृष्टि करती है– मनोजगत
को चित्रित करता यह ताँका देखिए–
बाँधे है मन/कुछ पाश हैं ऐसे/ जितना
चाहो/छूट के तुम जाना/काटे नहीं कटते।
इन्सान का दर्द किसी को दिखाई नहीं देता इसी पीड़ा को अभिव्यक्त करता
यह ताँका इस संग्रह का अनमोल मोती है–
काँच के घर/बाहर सब देखें/भीतर है
क्या/कुछ न दिखाई दे/न दर्द सुनाई दे।
प्राय: व्यक्ति जीवन से निराश ही दृष्टिगोचर होता है। वह अपने दु:ख
भरे पल तो याद रखता है सुख के पल भूल जाता है। इस ओर इंगित करते हुए काम्बोज जी का
यह ताँका देखिए–
बन्द
किताब/कभी खोलो तो देखो/पाओगो तुम/नेह भरे झरने/सूरज की किरने।
यह ताँका भी इन्सान की सोच से जरा हटकर है–
बन्द किताब/जब–जब भी खोली/पता ये चला-/हमें बहुत मिला/चुकाया न कुछ
भी।
प्रकृति हाइकु और ताँका का मुख्य विषय रहा है। हिमांशु जी ने भी
प्रकृति के विभिन्न चित्र उकेरे हैं पर वहां केवल वर्णनात्मकता नहीं है ,वरन जीवन की गन्ध है जैसे–
जागे हैं चूल्हे /घाटी की गोद
बसे/घर–घर में/तान रहा है ताना/धुएँ से बुनकर/
या आज की वास्तविकता को चित्रित करता यह ताँका–
नन्ही गौरैया/ढूँढ कहाँ बसेरा/खोए
झरोखे/दालान भी गायब/जाए तो कहाँ जाए।
संसार प्रेम की बात कितनी ही करें पर उसे पचा नहीं पाता है। पवित्र
प्रेम भी उसकी दृष्ति में पाप ही हो उठता है। इस कड़वाहट से उपजा यह ताँका देखिए–
‘सपने पले/तेरी सूनी आँखों में/इतना चाहा/कुछ की नजरों
में/यह क्यों पाप हुआ।
मन के पवित्र प्रेम की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति–
पूजा में बैठूँ/याद तुम आती हो/आरती
बन/अधरों पे छाती हो/भक्ति–गीत
पावन/
देखकर सहसा धर्मवीर भारती की एक पंक्ति याद आ जाती है जिसमें
उन्होंने माथे पर रखे हुए अधरो के लिए उपमान दिया है–
‘‘बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर ।’’
संग्रह के अधिकतर ताँका बहुत सुन्दर है। शिल्प की कसौटी पर तो सभी
ताँका खरे उतरते हैं। इतने सुन्दर ताँका–संग्रह
के लिए काम्बोज जी निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।
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डा0 उर्मिला अग्रवाल,
15 शिवपुरी, मेरठ-250-002
3 टिप्पणियां:
हिमांशु भैया की हर रचना दिल से निकलकर सीधे दिल में उतरती है! 'झरे हरसिंगार' भी उसी का एक उदाहरण है!
व्यथित प्राण/ जीवन-परिभाषा / मरती आशा/ पहचानेगा कौन/ अपने भी हैं मौन!
काँच के घर/ बाहर सब देखें/ भीतर है क्या/ कुछ न दिखाई दे/ न दर्द सुनाई दे!
पढ़ने बैठो...तो बस पढ़ते ही जाओ.... :)
आपने बहुत अच्छी समीक्षा की है डॉ उर्मिला अग्रवाल जी!
~सादर!!!
kamal ke bhav .bhaiya bahut sunder tarike se apni bat kahte hain .
aapne un sunder bhavon ko bahut achchhe se byan kiya hai
badhai
rachana
काम्बोज भाई की लेखनी अद्वितीय है; चाहे जिस भी विधा में लिखें. झरे हरसिंगार को पढ़ना शुरू किया तो एक बार में ही पढ़ गई. जाने कितने गहरे अर्थ और भाव...
बन्द किताब/जब–जब भी खोली/पता ये चला-/हमें बहुत मिला/चुकाया न कुछ भी।
इस ताँका में यूँ लगता जैसे सम्पूर्ण ज़िंदगी को समझ लिया.
बहुत सुन्दर समीक्षा.
बधाई और शुभकामनाएँ.
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